
Balancing India's Foreign Policy Among Global Powers -Shah Times
क्या भारत वैश्विक राजनीति में निर्णायक शक्ति है?
क्या भारत वैश्विक कूटनीति में मज़बूत हुआ या उलझ गया?
भारत की विदेश पॉलिसी 2014 से 2025 तक चीन, अमेरिका, रूस और पड़ोसियों के बीच मल्टी-अलाइनमेंट पर टिकी रही, लेकिन क्या यह रणनीति कामयाब रही?
2014 से लेकर 2025 तक भारत की विदेश नीति ने दुनिया भर में गहरी बहस छेड़ दी है। एक तरफ़ मोदी सरकार ने चीन से लेकर अमेरिका और रूस तक हर शक्ति केंद्र से संबंध बनाए रखने की कोशिश की, दूसरी तरफ़ यही मल्टी-अलाइनमेंट पॉलिसी भारत की असल कमजोरी बनती दिख रही है। सवाल यह है कि क्या यह रणनीति भारत को मज़बूत बना रही है या दुनिया की नज़र में ” Just like that“” बना रही है?
भारत की विदेश नीति का झूला
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ साबरमती में झूला झूलने से लेकर पाकिस्तान के नवाज़ शरीफ़ के घर पकौड़े खाने और अमेरिका में ट्रंप के लिए “अबकी बार ट्रंप सरकार” के नारे तक – मोदी सरकार का कूटनीतिक सफ़र एक झूले की तरह कभी एक छोर तो कभी दूसरे छोर तक हिलता रहा। इस प्रक्रिया में भारत को अंतरराष्ट्रीय सम्मान तो मिला लेकिन रणनीतिक गहराई अक्सर खोती रही।
चीन-पाकिस्तान धुरी और भारत की चिंता
मई 2025 में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन के अफ़सर इस्लामाबाद में बैठकर पाकिस्तानी सेना को गाइड कर रहे थे। चीन ने पाकिस्तान को लड़ाकू विमान, मिसाइल और सैटेलाइट बैकअप उपलब्ध कराया। रूस भी तटस्थ रहा क्योंकि वह चीन पर निर्भर है। यह साफ़ हो गया कि पाकिस्तान और चीन रिश्तों में “सगे” हैं, और रूस भी चीन की लाइन से अलग नहीं जा सकता। भारत के लिए यह सबसे बड़ा सामरिक झटका था।
अमेरिका और ट्रंप फैक्टर
मोदी और ट्रंप के रिश्ते एक समय काफ़ी नज़दीकी माने जाते थे। भारत में ट्रंप के बिज़नेस प्रोजेक्ट्स को मज़बूती मिली, मोदी ने खुले मंच से उनके लिए चुनावी नारे तक लगाए। लेकिन जब ट्रंप ने भारत को “डेड इकोनॉमी” कहकर टैरिफ लगा दिए, तब यह समीकरण बदल गया। अमेरिका का रवैया कठोर ज़रूर रहा लेकिन उसने डोकलाम या पाकिस्तान के मुद्दों पर भारत को इंटेलिजेंस सपोर्ट भी दिया। फिर भी मोदी-डोवाल-जयशंकर ने ट्रंप का आभार जताने की बजाय दूरी बना ली, और पाकिस्तान ने इस मौके को पकड़ कर ट्रंप की तरफ़दारी शुरू कर दी।
मल्टी-अलाइनमेंट: रणनीति या असफलता?
फ्रांस के विश्लेषक अरनॉड बरट्रैंड ने लिखा कि भारत की मल्टी-अलाइनमेंट नीति विफल हो रही है। भारत सबके साथ खड़ा होना चाहता है लेकिन असलियत में वह किसी के साथ भी मजबूती से खड़ा नहीं है। नतीजा यह है कि कोई भी बड़ी ताक़त भारत को आसानी से दबा सकती है। यह स्थिति गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नॉन-अलाइनमेंट) से अलग नहीं लगती।
चीन के साथ तालमेल की कोशिश
19 अगस्त 2025 को प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी से मुलाक़ात की। यह मुलाक़ात ऐसे समय पर हुई जब अमेरिका ने भारत पर 50% टैरिफ़ लगाया है और द्विपक्षीय व्यापार 130 अरब डॉलर के पार जा चुका था। चीन भी भारत का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। ऐसे में भारत और चीन दोनों के लिए रिश्तों को बेहतर करना एक आर्थिक मजबूरी भी है।
रूस और अमेरिका के बीच संतुलन
रूस आज चीन पर निर्भर है, और यूक्रेन युद्ध के चलते भारत को भी सीमित विकल्प मिलते हैं। भारत ने एससीओ जैसे मंच पर अपनी मौजूदगी बनाए रखी लेकिन अमेरिका और यूरोप के साथ भी दूरी नहीं बढ़ाई। प्रोफेसर चिंतामणि महापात्रा का मानना है कि भारत अमेरिका से ब्रेकअप नहीं कर रहा, और न ही चीन को प्रेम प्रस्ताव भेज रहा है। यह सिर्फ़ रणनीतिक स्वायत्तता की कवायद है।
आर्थिक आयाम
भारत की अर्थव्यवस्था अमेरिका और चीन दोनों से जुड़ी हुई है। इलेक्ट्रॉनिक्स, फ़ार्मा, टेलिकॉम – सबमें चीन की तकनीक अहम है, जबकि अमेरिका भारत का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। अगर टैरिफ़ और तनाव बढ़ते हैं तो भारत को नए बाज़ार तलाशने होंगे, लेकिन यह इतना आसान नहीं है।
निष्कर्ष
भारत की विदेश नीति एक निरंतर “झूला कूटनीति” में फंसी हुई दिखती है। अमेरिका, चीन, रूस और पाकिस्तान सभी के साथ रिश्ते बनाने की कोशिशें जारी हैं, लेकिन सामरिक दृष्टि से भारत की स्थिति उलझी हुई है। मल्टी-अलाइनमेंट नीति ने भारत को विकल्प ज़रूर दिए, पर साथ ही यह संदेश भी दिया कि भारत निर्णायक शक्ति नहीं बन पा रहा। सवाल यही है कि क्या आने वाले समय में भारत इस नीति को परिपक्व रणनीति में बदल पाएगा या “ऐंवे ही” बने रहने का खतरा बढ़ेगा?





