
A graceful portrait of veteran actress Kamini Kaushal framed in remembrance, featured by Shah Times.
कामिनी कौशल का सफ़र ख़त्म: बॉलीवुड की एक रोशन विरासत का अन्त
📍 मुंबई 🗓️ 14 नवम्बर 2025✍️आसिफ़ ख़ान
कामिनी कौशल का 98 वर्ष में निधन सिर्फ एक निजी क्षति नहीं, बल्कि हिंदी-उर्दू फ़िल्मी तहज़ीब के एक पूरे दौर की विदाई है। यह एडिटोरियल उनके सफ़र, उनकी कला, उनकी मजबूती, उनके विवादित फैसलों, उनकी सामाजिक परतों और हमारे सिनेमा पर उनके असल प्रभाव की गहरी, बेबाक और इंसानी पड़ताल करता है।
मुंबई की नम हवा इन दिनों कुछ भारी-सी लगती है। एक वक़्त था जब स्टूडियो की सुनहरी रोशनी में कामिनी कौशल का चेहरा चमकता था, और आज वही सन्नाटा उनके जाने की खबर से गूंज रहा है। उनका निधन सिर्फ एक दंतकथा की विदाई नहीं, बल्कि उस ज़मीन का दरकना है जिस पर हिंदी-उर्दू फ़िल्मी तहज़ीब की पहली ईंटें रखी गई थीं। सच बात कहें तो उनके बग़ैर सिनेमा के शुरुआती दशक की कल्पना अधूरी है।
यह कहानी सिर्फ एक अदाकारा की नहीं; यह हिंदुस्तानी सिनेमा के बौद्धिक, सामाजिक और भावनात्मक इतिहास की कहानी है। और यहीं से हमारा विश्लेषण शुरू होता है।
एक दौर का आईना: कामिनी का उभार
1940 और 50 का दशक वो वक़्त था जब सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि सूफ़ियाना और सामाजिक रुहानीyat की मिट्टी में गढा हुआ एक बड़ा कला रूप था। उस दौर की अदाकाराएँ सिर्फ पर्दे पर नहीं दिखती थीं; वे समाज के लिए एक विचार, एक नैतिकता और एक तहज़ीबी सुकून का बयान थीं। कामिनी कौशल उसी परंपरा की सबसे संजीदा चाटों में से एक थीं।
उनका अंदाज़ किसी बनावटी ग्लैमर पर नहीं टिकता था। चेहरे पर एक किताब की तरह पढ़ी जा सकने वाली सादगी, आवाज़ में अदब, अदाओं में तहज़ीब, और संवादों में एक वज़न—यही उनकी ताक़त थी।
और यही वह जगह है जहाँ आज का बॉलीवुड उनसे सबसे बड़ा सबक ले सकता है।
उर्दू–हिंदी तहज़ीब का पुल
कामिनी कौशल एक दिलचस्प मिसाल हैं कि कैसे एक कलाकार ज़ुबान के फ़र्क़ से ऊपर उठकर इंसानी असलियत को छू सकता है।
उनके संवादों में उर्दू की नरमी थी, हिंदी की साफ़गोई थी, और अंग्रेज़ी का ठहराव था — मगर पूरा जज़्बा हिंदुस्तानी था।
आज के कलाकारों के लिए यह समझना ज़रूरी है कि जब भाषा सिर्फ “डायलॉग” बनकर रह जाती है, तब कला कमज़ोर पड़ती है; और जब भाषा “रूह” बन जाती है, तब स्क्रीन जिंदा हो उठती है।
कामिनी के कई किरदार इसी “रूह” से साँस लेते थे।
दूसरी पारी: बदलाव की कच्ची स्याही और मजबूत इरादा
1963 के बाद उन्होंने लीड भूमिकाएँ छोड़ दीं। बहुत-सी अदाकाराएँ इस पड़ाव पर आकर टूट जातीं, मगर उन्होंने नहीं। उन्होंने चरित्र भूमिकाएँ अपनाईं — और सच कहें, तो इन फिल्मों में उनकी परिपक्वता और गहरी हो गई।
ये वही दौर था जब बॉलीवुड में एक अनकहा नियम चल रहा था:
“हीरोइन बूढ़ी नहीं होती, बल्कि लापता हो जाती है।”
कामिनी ने इस नियम के दायरे को तोड़ दिया।
उन्होंने फिल्मों में मां, बुआ, चाची, दादी सबकी भूमिकाएँ निभाईं — मगर गौर कीजिए, वो कभी “साइड रोल” नहीं लगीं। वह हर दृश्य में मौजूद थीं, अपने वज़न के साथ, अपनी नफ़ासत के साथ।
इंसानी हक़ीक़त यही है कि उम्र एक सच्चाई है; छुपाने की चीज़ नहीं। उन्होंने इसे न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि कला में बदल दिया।
उनकी निजी ज़िंदगी: एक मुश्किल सच का सामना
कामिनी कौशल की निजी कहानी उतनी ही जटिल और जीवंत है जितना उनका फ़िल्मी करियर। अपनी बड़ी बहन की मौत के बाद परिवार ने उनकी शादी उनके जीजा से कराई ताकि उनके बच्चों को मां का साया मिल सके।
यह फैसला आज के हिसाब से अजीब लग सकता है, शायद कई नैतिक सवल भी पैदा करता है, लेकिन उस दौर की सामाजिक मजबूरियाँ अलग थीं।
यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि समाज अक्सर महिलाओं की ज़िंदगी को अपने हिसाब से मोड़ देता है।
कामिनी का फैसला न उन्हें तोड़ पाया और न रोक पाया; बल्कि उन्होंने इसे अपनी ज़िंदगी की नई दिशा बना लिया।
धर्मेन्द्र का जिक्र: एक दिलचस्प एपिसोड
धर्मेंद्र ने कई बार कहा कि वह कामिनी के साथ की गई अपनी फिल्म “शहीद” को अपनी पहली फिल्म मानते हैं। यह इसलिए भी अहम है क्योंकि जिस दौर में सुपरस्टार अपने शुरुआती सफर को लेकर झिझकते हैं, धर्मेंद्र ने साफ़ कहा कि उनकी पहली सच्ची फिल्म वही थी जिसमें उनकी को-एक्ट्रेस कामिनी कौशल थीं।
यह बयान उनकी कला के कद को समझने के लिए काफी है।
फ़िल्मों के भीतर छिपी सामाजिक परतें
कामिनी कौशल की फिल्मों को देखें तो उनमें सिर्फ प्रेम कहानियाँ नहीं, बल्कि वर्ग-संघर्ष, सामाजिक तालमेल, नागरिकता की पहचान और औरत की जद्दोजहद मौजूद मिलती है।
“बराज बहू,” “दो भाई,” “शहीद,” “गोदान,” “नदिया के पार”—इन फिल्मों में उनका किरदार और कहानी दोनों ही तबके की आवाज़ थे जिन्हें समाज अक्सर पीछे छोड़ देता है।
आज जब बॉलीवुड अक्सर सतही ग्लैमर के पीछे भागता है, कामिनी की फिल्में एक मजबूत तर्क बनकर सामने आती हैं कि सिनेमा की मूल ताकत उसकी नज़ाकत और सादगी में है।
काउंटर-आर्ग्युमेंट: क्या हम उन्हें रोमांटिसाइज़ कर रहे हैं?
सवाल उठता है —
क्या हम पुराने दौर की हर चीज़ को सिर्फ इसलिए महान मान लेते हैं कि वह “पुराना” है?
यह वाजिब सवाल है।
कामिनी कौशल की कुछ फिल्मों में सीमाएँ भी थीं। “महिला किरदार” अक्सर त्याग की मूरत बनकर रह जाता था। कई बार वह समाज की रूढ़िवादी सोच का प्रतिबिंब भी बन जाता था। खुद कामिनी ने कई जगह “बलिदानकारी नारी” का किरदार निभाया, जो आज के feminist lens से आलोचना भी झेल सकता है।
यानी उन्हें सिर्फ “देवी” बनाकर देखना भी गलत होगा।
मगर सच्चाई यह है कि सीमाओं के भीतर रहकर भी उन्होंने कला को ऊँचा उठाया।
और यही असल कलाकार का हुनर है।
बॉलीवुड पर असर: एक बौद्धिक दृष्टि
कामिनी कौशल की विरासत हमें तीन बातें सिखाती है:
अभिनय की भाषा संवाद नहीं, समझ है।
जहाँ समझ गहरी होती है, वहाँ किरदार की उम्र और मेकअप मायने नहीं रखते।
सिनेमा सिर्फ दर्शक नहीं, समाज को भी आकार देता है।
उनकी फिल्मों ने 40–60 के दशक के समाज को जैसे थामा, वैसे आज की कोई फिल्म शायद ही कर पाती है।
महिलाओं की उम्र कला को कम नहीं करती।
बल्कि अनुभवी कलाकार अक्सर सबसे बेहतर स्क्रीन एनर्जी लेकर आते हैं।
उनके निधन का अर्थ: एक युग की विदाई
98 की उम्र में उनका जाना एक प्राकृतिक घटना है। मगर दुख इसलिए है क्योंकि उनके साथ वह entire emotional grammar भी चली गई जिसके सहारे हमारे सिनेमाई सौंदर्यशास्त्र ने पहली बार चलना सीखा था।
यह वैसा ही है जैसे परिवार में वह बुजुर्ग चला जाए जो कम बोलता था, मगर उसकी मौजूदगी घर को संतुलित रखती थी।
कामिनी कौशल वही संतुलन थीं।
क्या बॉलीवुड ने उन्हें उतनी तवज्जो दी जितनी वे डिज़र्व करती थीं?
सच कहें — नहीं।
लोग दिलीप कुमार को याद रखते हैं, देवानंद को याद रखते हैं, मगर कामिनी जैसी अदाकाराओं को अक्सर फ़ुटनोट में डाल दिया जाता है।
यह हमारी सांस्कृतिक भूल है।
हम हीरो की पूजा करते हैं; हीरोइन को याद कभी-कभार ही करते हैं।
अब समय है इस सोच को बदलने का।
अंतिम बात: उनकी विरासत अगली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़ती है?
कामिनी कौशल हमें सिखाती हैं:
कला का मूल रूप सादगी है।
उम्र एक तहज़ीबी कारवाँ है, बोझ नहीं।
समाज की मजबूरियाँ आपको तोड़ सकती हैं, लेकिन आपकी रूह को नहीं रोक सकतीं।
स्क्रीन पर मौजूदगी सिर्फ “स्टार पावर” नहीं, “इंसानी गहराई” से बनती है।
उनका जाना एक चुप्पा सा खालीपन छोड़ता है।
मगर उनकी फिल्मों में वह सब मौजूद है जो आने वाली पीढ़ियों को समझाएगा कि सिनेमा सिर्फ चकाचौंध नहीं; यह इंसानी असलियत का सबसे बड़ा आईना भी है।




