
Maulana Mahmood Madani supported Mohan Bhagwat's advocacy for dialogue on the Kashi-Mathura dispute
मौलाना मदनी ने मोहन भागवत के संवाद की तारीफ़ की
काशी-मथुरा विवाद पर मौलाना मदनी का बयान: संवाद ही रास्ता
मौलाना महमूद मदनी ने काशी-मथुरा विवाद पर मोहन भागवत की बातचीत की हिमायत का समर्थन किया, संवाद को समाधान का सबसे अहम रास्ता बताया।
New Delhi,( Shah Times)। नई दिल्ली में हाल ही में एक अहम बयान ने भारतीय राजनीतिक व सामाजिक बहस को नई दिशा दी। जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने काशी और मथुरा जैसे संवेदनशील धार्मिक मसलों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत की बातचीत की हिमायत को सराहा। इस बयान ने ना सिर्फ़ धार्मिक संवाद की ज़रूरत को सामने रखा बल्कि भारतीय समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण पर भी गंभीर सवाल खड़े किए।
इस सम्पादकीय विश्लेषण में हम समझेंगे कि यह बयान भारतीय राजनीति और समाज में किस तरह की लहर पैदा करता है, इसके क्या निहितार्थ हो सकते हैं, और क्या संवाद वाक़ई समाधान का स्थायी रास्ता बन सकता है।
संवाद की हिमायत: मदनी और भागवत का रुख़
मौलाना मदनी ने साफ़ कहा कि उनका संगठन पहले से ही मतभेद कम करने और बातचीत बढ़ाने के पक्ष में रहा है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि “बहुत सारे अगर और मगर हैं, लेकिन बातचीत होती रहनी चाहिए।”
भागवत ने हाल ही में बयान दिया था कि राम मंदिर आंदोलन में आरएसएस ने भूमिका निभाई, मगर काशी और मथुरा आंदोलनों में संघ की सीधी भागीदारी नहीं होगी। हालांकि उन्होंने अपने सदस्यों को इसमें शामिल होने की स्वतंत्रता दी।
यहाँ दो बड़े पहलू उभरते हैं:
मदनी का रुख़: बातचीत और जुड़ाव का रास्ता।
भागवत का रुख़: औपचारिक दूरी लेकिन व्यक्तिगत स्वतंत्रता।
धार्मिक विवाद और राजनीतिक समीकरण
काशी और मथुरा का सवाल केवल धार्मिक आस्था का नहीं बल्कि भारतीय राजनीति का भी केंद्र रहा है।
राम मंदिर आंदोलन ने भारतीय राजनीति की धारा बदल दी थी।
काशी और मथुरा के विवाद उसी सिलसिले का अगला पड़ाव माने जाते रहे हैं।
इस मुद्दे पर आरएसएस और मुस्लिम संगठनों का संवाद एक ऐतिहासिक संकेत हो सकता है।
राजनीतिक निहितार्थ
अगर संवाद का रास्ता निकलता है तो यह ध्रुवीकरण की राजनीति को कमजोर कर सकता है।
लेकिन दूसरी तरफ़, अगर बातचीत नतीजे तक नहीं पहुँची तो यह राजनीतिक टकराव को और गहरा कर सकता है।
धार्मिक संवाद बनाम सियासी बयानबाज़ी
भारत में धार्मिक विवाद हमेशा से सियासी दलों के लिए वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा रहे हैं।
एक तरफ़ हिंदू संगठनों की मांग है कि काशी और मथुरा को भी अयोध्या की तरह “मुक्त” किया जाए।
दूसरी तरफ़ मुस्लिम संगठनों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अब और विवादों को बढ़ावा देना समाज को अस्थिर करेगा।
मदनी का बयान क्यों अहम?
क्योंकि यह बयान मुस्लिम नेतृत्व की ओर से संवाद का औपचारिक समर्थन करता है। इससे यह संदेश जाता है कि टकराव की बजाय बातचीत ही सबसे उचित विकल्प है।
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क्या संवाद पर्याप्त है?
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि संवाद की अपील एक नैतिक संदेश तो है, मगर राजनीतिक ज़मीन पर इसकी सीमाएँ हैं।
कानूनी पेचिदगियाँ:
ज्ञानवापी और मथुरा मस्जिद मामले अदालत में लंबित हैं।
न्यायिक प्रक्रिया के रहते बातचीत कितनी असरदार होगी, यह सवाल अहम है।
राजनीतिक दबाव:
चुनावी मौसम में इन मुद्दों का इस्तेमाल ध्रुवीकरण के लिए होता रहा है।
क्या पार्टियाँ संवाद को सच में आगे बढ़ने देंगी?
सामाजिक अविश्वास:
समुदायों के बीच दशकों से बना अविश्वास इतनी आसानी से नहीं मिटेगा।
संवाद को ज़मीनी स्तर तक पहुँचाने की ज़रूरत है, केवल नेताओं की बात काफ़ी नहीं।
पहलगाम हमले का संदर्भ: एकता की मिसाल
मदनी ने हाल ही में हुए पहलगाम आतंकी साजिश का ज़िक्र करते हुए कहा कि इस घटना को भारतीय नागरिक समाज ने नाकाम किया। उन्होंने कहा कि अगर यह किसी और मुल्क में हुआ होता तो अराजकता फैल जाती, मगर भारत में लोगों ने धैर्य और एकता दिखाई।
यहाँ उनका संदेश साफ़ है:
भारत की ताक़त उसकी गंगा-जमुनी तहज़ीब है।
आतंकवाद की साजिशें सामाजिक एकता से नाकाम की जा सकती हैं।
रास्ता मुश्किल, मगर नामुमकिन नहीं
मौलाना मदनी का बयान और मोहन भागवत का रुख़ मिलकर भारतीय समाज के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर पैदा करते हैं।
अगर संवाद को सच्चाई और ईमानदारी से आगे बढ़ाया जाए, तो यह काशी-मथुरा जैसे विवादों को स्थायी समाधान की ओर ले जा सकता है।
लेकिन अगर इसे सिर्फ़ राजनीतिक स्टंट के तौर पर इस्तेमाल किया गया, तो समाज और ज़्यादा विभाजित हो सकता है।भारत की बहुलतावादी संस्कृति और लोकतांत्रिक ढाँचा यही कहता है कि संवाद ही सबसे सुरक्षित रास्ता है। अब यह राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व की ज़िम्मेदारी है कि वे इस मौके को गंवाएँ नहीं।





