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लद्दाख की सड़कों पर उबाल: भूख हड़ताल से हिंसक आंदोलन तक
सोनम वांगचुक और लद्दाख की चार मांगें: सत्ता बनाम जनता की जंग
लद्दाख आज़ादी के बाद से उपेक्षा झेलता रहा है। आर्टिकल 370 हटने के बाद जो वादे हुए, वे अधूरे रह गए। इसी अधूरेपन ने अब सड़क पर ग़ुस्से को जन्म दिया है। सोनम वांगचुक की भूख हड़ताल, छात्रों का प्रदर्शन और हिंसक झड़पें एक बड़े राजनीतिक संकट की आहट दे रही हैं।
लद्दाख का गुस्सा क्यों फूटा
पाँच अगस्त 2019 को जब आर्टिकल 370 हटाया गया, तब सरकार ने इसे “नया सवेरा” कहा। उस वक़्त उम्मीद थी कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में विकास की नयी शुरुआत होगी। लेकिन लद्दाख के लोगों का कहना है कि वादा तो किया गया, मगर पूरा कुछ नहीं हुआ। लद्दाख को अलग केंद्रशासित प्रदेश तो बना दिया गया, लेकिन राज्य का दर्जा और संवैधानिक अधिकार गायब रह गए।
सालों से सीमांत इलाक़े में रहने वाले लोग यह महसूस कर रहे हैं कि उनकी ज़मीन, रोज़गार और संस्कृति पर बाहरी दख़ल बढ़ रहा है। यही वजह है कि जब पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक भूख हड़ताल पर बैठे, तो छात्रों और आम लोगों ने उन्हें अपना नेता मान लिया।
चार मांगें, चार आवाज़ें
वांगचुक की अगुवाई में जो आंदोलन खड़ा हुआ है, उसकी चार बुनियादी मांगें हैं:
लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले।
संविधान की छठी अनुसूची में लद्दाख को शामिल किया जाए।
लद्दाख में दो लोकसभा सीटों का प्रावधान हो।
जनजातियों को आदिवासी दर्जा मिले।
ये मांगें सिर्फ काग़ज़ी नहीं हैं, बल्कि पहचान और अस्तित्व का सवाल हैं।
सड़क से संसद तक टकराव
लेह और कारगिल में हाल के दिनों में जो हिंसक प्रदर्शन हुए, वे सिर्फ ग़ुस्से की झलक हैं। पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच पत्थरबाज़ी, CRPF की गाड़ियों को जलाना, बीजेपी दफ़्तर में आग लगाना—यह सब उस भरोसे के टूटने की निशानी है जो कभी 2019 में सत्ता ने दिया था।
लोग कह रहे हैं कि अगर पाँच साल में भी वादे पूरे नहीं हुए, तो अब शांतिपूर्ण इंतज़ार की गुंजाइश ख़त्म हो चुकी है। यह बयान अपने आप में राजनीतिक असंतोष का सबूत है।
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वांगचुक की भूमिका
सोनम वांगचुक का नाम सुनते ही ज़ेहन में शिक्षा और पर्यावरण सुधार की तस्वीर आती है। वही शख़्स अब भूख हड़ताल पर बैठा है। उनकी मांगें व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक हैं। यही कारण है कि उन्हें “लद्दाख की आवाज़” कहा जा रहा है। उनका यह बयान—“हम नहीं चाहते कि भारत की छवि को धक्का लगे”—सरकार को सीधी चुनौती और जनता को शांति का पैग़ाम, दोनों एक साथ है।
केंद्र की रणनीति
गृह मंत्रालय ने 6 अक्टूबर को LAB प्रतिनिधियों से बातचीत तय की है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ़ बातचीत ही पर्याप्त होगी? लद्दाख की जनता अब ठोस समाधान चाहती है। उन्हें डर है कि बिना संवैधानिक गारंटी, उनके संसाधन और संस्कृति धीरे-धीरे ख़त्म हो जाएंगे।
राजनीतिक पृष्ठभूमि
2019 के बाद लद्दाख का अलग UT बनना केंद्र की बड़ी उपलब्धि बताया गया था। लेकिन आज वही इलाक़ा सियासी चुनौती बन गया है। बीजेपी ने चुनावी मंचों पर छठी अनुसूची का वादा किया था, मगर वह आज तक अधूरा है। इस अधूरेपन ने ही जनता के भरोसे को चोट पहुँचाई है।
भावनाओं का विस्फोट
जब भूख हड़ताल से लेकर सड़क पर हिंसक प्रदर्शन तक लोग उतर आएं, तो यह सिर्फ़ नाराज़गी नहीं बल्कि गहरे असंतोष की निशानी होती है। लोग कह रहे हैं कि “हमारी पहचान और ज़मीन बचाना ज़रूरी है।” इस आवाज़ को अब नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं।
आगे का रास्ता
अगर सरकार सचमुच इस संकट को हल करना चाहती है, तो उसे वादाख़िलाफ़ी छोड़कर ठोस क़दम उठाने होंगे। संवैधानिक अधिकारों की गारंटी, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सांस्कृतिक सुरक्षा—ये वो बातें हैं जिनके बिना शांति की उम्मीद करना मुश्किल है।