
लेह-लद्दाख में हुई हिंसा : क्या युवा गुमराह हुए है?
सोनम वांगचुक, सरकार और हिंसा की गुत्थी
लेह-लद्दाख में हुई हिंसा सिर्फ़ एक साधारण विरोध नहीं था। सरकार का मानना है कि यह योजनाबद्ध साज़िश थी, जबकि आंदोलनकारी इसे जनभावनाओं की अभिव्यक्ति बता रहे हैं।
लेह की ठंडी वादियों में अचानक उठी आग और धुआं पूरे देश के लिए चिंता का सबब बन गया।
चार लोगों की मौत, अस्सी से ज़्यादा घायल और सड़कों पर फैला आक्रोश… सवाल यह है कि इतना बड़ा विस्फोट अचानक कैसे हुआ?
केंद्र सरकार का दावा है कि यह हिंसा किसी स्वाभाविक ग़ुस्से का नतीजा नहीं थी, बल्कि पहले से तैयार की गई एक योजना थी। वहीं दूसरी तरफ़ आंदोलनकारी और पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक इसे जनता की असली आवाज़ बता रहे हैं।
आंदोलन की शुरुआत
10 सितंबर को वांगचुक ने भूख हड़ताल का ऐलान किया। उनकी चार बड़ी मांगें थीं –
लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा
छठी अनुसूची में शामिल कर संवैधानिक सुरक्षा
लेह और कारगिल को अलग-अलग लोकसभा सीटें
सरकारी नौकरियों में स्थानीयों को प्राथमिकता
सरकार कहती है कि इन मुद्दों पर बातचीत पहले से चल रही थी। 6 अक्टूबर को हाई पावर कमेटी की बैठक तय थी। लेकिन इससे पहले ही 24 सितंबर को हिंसा भड़क गई।
सरकार का पक्ष
गृह मंत्रालय का बयान साफ है –
सरकार संवाद की प्रक्रिया में थी, आरक्षण और भाषा से जुड़ी कई मांगें पहले ही पूरी हो चुकी थीं।
लेकिन भीड़ को ‘अरब स्प्रिंग’ और नेपाल के Gen-Z आंदोलनों का हवाला देकर भड़काया गया।
सरकार का यह भी आरोप है कि हिंसा की घड़ी में सोनम वांगचुक ने उपवास तोड़ा, लेकिन हालात शांत कराने के लिए कोई सक्रिय प्रयास नहीं किया।
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आंदोलनकारियों का पक्ष
वांगचुक और उनके समर्थक कहते हैं कि केंद्र सरकार गंभीर नहीं है। छठी अनुसूची का मुद्दा वर्षों से लंबित है।
लद्दाख के 97% से ज़्यादा लोग अनुसूचित जनजाति हैं। वे चाहते हैं कि उनकी संस्कृति और संसाधनों की सुरक्षा संवैधानिक गारंटी के तहत हो।
उनका आरोप है कि जब तक केंद्र दबाव महसूस न करे, तब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाता।
सियासत की एंट्री
हिंसा के बाद बीजेपी और कांग्रेस आमने-सामने आ गए।
बीजेपी ने कांग्रेस नेताओं पर भीड़ को हवा देने का आरोप लगाया। सोशल मीडिया पर तस्वीरें और वीडियो शेयर किए गए।
कांग्रेस की तरफ़ से अभी तक साफ जवाब नहीं आया।
Gen-Z फैक्टर
लद्दाख की कुल आबादी 3 लाख है, जिसमें लगभग 70 हज़ार युवा Gen-Z हैं।
कहा जा रहा है कि हिंसा में यही युवा सबसे आगे थे। सोशल मीडिया पर चल रहे कैंपेन और वीडियो संदेशों ने इस पीढ़ी को और भड़काया।
ये वही ट्रेंड है, जो दुनिया के कई हिस्सों में देखा गया – डिजिटल एक्टिविज़्म से स्ट्रीट प्रोटेस्ट तक का सफर।
छठी अनुसूची की बहस
भारत के संविधान की छठी अनुसूची उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए है, जहाँ जनजातीय परिषदों को ख़ास अधिकार दिए गए हैं।
यानी स्थानीय लोग ज़मीन-जंगल से जुड़े नियम खुद बना सकते हैं।
अब यही अधिकार लद्दाख मांग रहा है। सवाल यह है कि क्या इतनी संवेदनशील बॉर्डर वाली जगह को इतनी स्वायत्तता दी जा सकती है?
साज़िश या ग़ुस्सा?
सरकार कह रही है कि यह हिंसा योजनाबद्ध थी। विपक्ष और आंदोलनकारी इसे जनता की आवाज़ बता रहे हैं।
सच्चाई शायद दोनों के बीच है। ग़ुस्सा तो ज़रूर था, लेकिन उसे दिशा देने में राजनीति और निजी महत्वाकांक्षाओं ने भी भूमिका निभाई।
आगे का रास्ता
लद्दाख भारत की सामरिक दृष्टि से सबसे संवेदनशील जगह है।
चीन से लगती LAC और सीमित संसाधनों के बीच यहाँ अस्थिरता भारत के लिए बड़ा ख़तरा हो सकती है।
इसलिए ज़रूरी है कि सरकार और आंदोलनकारी दोनों बातचीत की मेज़ पर आएं।
जनता की मांगों को अनसुना करना भी ख़तरनाक है और युवाओं को हिंसा की राह पर धकेलना भी।
यह घटना हमें यही सिखाती है – संवाद ही समाधान है। अगर राजनीति, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं और भावनाओं का शोषण बीच में न आए, तो लद्दाख शांत भी रह सकता है और मज़बूत भी।