
Protest unrest in Leh, Ladakh after violence, captured with mountain backdrop | Shah Times
सोनम वांगचुक बनाम सत्ता: आंदोलन या साज़िश?
लेह की गलियों से उठी आवाज़, दिल्ली तक क्यों गूँज रही है?
📍 लेह, लद्दाख |26 सितम्बर 2025| Asif Khan
लेह में हिंसा ने लद्दाख की सियासत को झकझोर दिया है। चार लोगों की मौत, स्कूल-कॉलेज बंद और केंद्र से भेजा गया दूत—ये सिर्फ घटनाएँ नहीं, बल्कि लोकतंत्र के सामने खड़े बड़े सवाल हैं। सोनम वांगचुक को बलि का बकरा बनाया जा रहा है या सचमुच उनकी भूमिका संदिग्ध है? लद्दाख का संघर्ष सिर्फ राज्य का दर्जा पाने का नहीं बल्कि भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की असल परीक्षा है।
लद्दाख की धरती हमेशा से कठिन रही है—बर्फीली चोटियाँ, सर्द हवाएँ और दूर-दराज़ बस्तियाँ। मगर आज की सबसे ठंडी चीज़ वहाँ की हवा नहीं, बल्कि लोगों के दिलों में भरा गुस्सा और बेचैनी है। लेह में हाल की हिंसा ने यह साफ कर दिया कि यहाँ का मुद्दा सिर्फ़ भूगोल का नहीं, बल्कि लोकतंत्र और हक़ूक़ की लड़ाई का है।
आंदोलन से हिंसा तक
बुधवार को जब राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची की माँग को लेकर प्रदर्शन शुरू हुआ, किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह खून-खराबे में बदल जाएगा। चार लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे, नब्बे से ज़्यादा घायल हो गए। कर्फ़्यू ने शहर को जकड़ लिया, स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए। माहौल ऐसा बन गया मानो शहर साँस रोककर बैठा हो।
सरकार का नज़रिया और सोनम वांगचुक की दास्तान
केंद्र सरकार ने सीधा आरोप सोनम वांगचुक पर लगाया। कहा गया कि उनके बयानों ने भीड़ को भड़काया। मगर वांगचुक ने इसे सियासी चाल बताया—“मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है, ताकि असली मुद्दे दब जाएँ।”
सोचिए, वही वांगचुक जिन्होंने शिक्षा सुधार से लेकर “आइस स्तूप” जैसी तकनीक तक दी, जिनके कारण लद्दाख का नाम विश्व पटल पर चमका, आज उन्हीं पर हिंसा का आरोप है। यह विडंबना है या सियासत का कठोर चेहरा?
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लद्दाख की उम्मीदें और टूटा भरोसा
2019 में जब लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था, लोग ख़ुश थे। लगा था कि अब अपनी पहचान और अपने अधिकार मज़बूत होंगे। मगर छह साल बाद वही जनता कह रही है—”हमसे ज़मीन छीनी जा रही है, नौकरियाँ छीनी जा रही हैं, और फ़ैसले दिल्ली से थोपी जा रही हैं।”
यहाँ सवाल सिर्फ़ लद्दाख का नहीं, बल्कि उस वादे का भी है जो लोकतंत्र जनता से करता है। अगर जनता का भरोसा ही टूट जाए, तो सत्ता की वैधता कहाँ बचेगी?
विपक्ष की आवाज़
कांग्रेस के जयराम रमेश ने कहा—”लद्दाखियों की पुकार सरकार की अंतरात्मा को हिला देनी चाहिए।”
अरविंद केजरीवाल ने इसे और आगे बढ़ाया—”भारत ने अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ादी इसलिए नहीं ली थी कि जनता भाजपा की ग़ुलामी में रहे।”
ये बयान सिर्फ़ राजनीतिक वार नहीं, बल्कि जनता के ग़ुस्से का आईना हैं। विपक्ष भले राजनीति कर रहा हो, मगर यह सच भी है कि लद्दाख आज अधिकार से ज़्यादा बेबसी का प्रतीक बन गया है।
लोकतंत्र की असली परीक्षा
लद्दाख की लड़ाई सिर्फ़ राज्य का दर्जा पाने की लड़ाई नहीं है। यह सवाल है—क्या जनता अब भी सत्ता को झुका सकती है? क्या लोकतंत्र अब भी जीवित है?
लोग कहते हैं—”अगर आज लद्दाख की आवाज़ को दबाया गया, तो कल यही आवाज़ पूरे देश की होगी।” यह चेतावनी हल्की नहीं है। लोकतंत्र तभी ज़िंदा रहेगा जब हर नागरिक अपने हक़ की लड़ाई लड़ सके, चाहे वो लद्दाख हो या लखनऊ।
सोनम वांगचुक: व्यक्ति या प्रतीक?
सरकार उन्हें अपराधी बता रही है, मगर जनता उन्हें हीरो मान रही है। शायद यही वजह है कि उनकी भूख हड़ताल तोड़ने पर भी लोग कह रहे हैं—”यह हमारी हार नहीं, बल्कि सत्ता की डर की निशानी है।”
उन पर विदेशी फंडिंग, सीबीआई जाँच और राजद्रोह तक के आरोप लगाए जा रहे हैं। मगर सवाल यह है कि क्या यह सब असली मुद्दों को दबाने की कोशिश नहीं?
दिल्ली की चुप्पी और जनता का सब्र
केंद्र ने एक दूत भेजा है, बातचीत शुरू करने का वादा किया है। लेकिन इतिहास गवाह है कि बातचीत अक्सर रिपोर्टों और फाइलों में खो जाती है। जनता को ठोस नतीजे चाहिए, न कि वादे।
आज लेह की गलियों में जो बेचैनी है, वो सिर्फ़ आज का दर्द नहीं, बल्कि छह साल की निराशा का नतीजा है।
नतीजा
लद्दाख का आंदोलन हमें आईना दिखा रहा है—लोकतंत्र तभी मज़बूत होगा जब जनता की आवाज़ को सुना जाए, न कि दबाया जाए। हिंसा किसी भी आंदोलन का हल नहीं, मगर जनता को मजबूर करना भी लोकतंत्र का अपमान है।
सवाल यह नहीं कि सोनम वांगचुक दोषी हैं या निर्दोष। असली सवाल यह है कि क्या भारत अपने ही नागरिकों को उनका संवैधानिक हक़ देगा या फिर उन्हें “कानून-व्यवस्था की समस्या” कहकर किनारे कर देगा।
लद्दाख का संघर्ष हमें याद दिलाता है—लोकतंत्र सिर्फ़ वोट से नहीं, बल्कि आवाज़ सुनने से चलता है।