
Shakumbhari Devi Temple Saharanpur with devotees in Shivalik hills.
करोड़ों आस्थाओं का केंद्र: मां शाकुम्भरी सिद्धपीठ
सहारनपुर का पौराणिक धाम: मां शाकुम्भरी सिद्धपीठ
सहारनपुर की शिवालिक पहाड़ियों में स्थित मां शाकुम्भरी सिद्धपीठ केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि पौराणिक इतिहास और लोक आस्था का जीवंत प्रतीक है। हर साल लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं और देवी के चरणों में अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं।
Saharanpur, (Shah Times)। सहारनपुर जिले के उत्तर भाग में, शिवालिक की हरियाली और गहन वनों के बीच बसा है मां शाकुम्भरी सिद्धपीठ। यह स्थान केवल एक मंदिर नहीं बल्कि लाखों दिलों की धड़कन और करोड़ों आस्थाओं का जीवित प्रतीक है। कहते हैं कि मां शाकुम्भरी देवी अश्विन मास की शुक्ल चतुर्दशी को स्वयं अपने मंदिर में आती हैं। यही कारण है कि इस दिन यहां विशाल मेला आयोजित होता है, जिसमें देश–विदेश से भक्त पहुंचते हैं।
पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ
मां शाकुम्भरी का उल्लेख महाभारत, देवी भागवत, मार्कण्डेय पुराण और कई अन्य प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। महाभारत के वनपर्व में वर्णित है कि मां शाकुम्भरी ने एक हज़ार वर्षों तक केवल शाक (सब्ज़ियों) का आहार किया। यही कारण है कि उन्हें शाकुम्भरी कहा गया।
इतिहासकार बताते हैं कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य भी अपने प्रवास काल में यहां दर्शन करने आए थे। सहारनपुर गज़ेटियर 1921 में इसका विस्तृत उल्लेख मिलता है। डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार की रचना आचार्य चाणक्य में भी शाकुम्भरी मंदिर का जिक्र आता है।
लोक आस्था और धार्मिक विश्वास
भक्त मानते हैं कि मां शाकुम्भरी केवल मंदिर तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनके आशीर्वाद से पूरा क्षेत्र पवित्र हो गया है। यहां आने वाले श्रद्धालु सोने और चांदी के छत्र चढ़ाते हैं। मंदिर के गर्भगृह में देवी शाकुम्भरी के साथ बालगणपति, भ्रामरी देवी, शताक्षी देवी की मूर्तियां भी हैं। प्रांगण में शिव, हनुमान, काली और भैरव की प्रतिमाएं आस्था को और गहरा करती हैं।
पास ही प्राकृतिक जलधारा बहती है। इसी धारा के पार विशाल “वीर क्षेत्र” मैदान है। आसपास माता छिन्नमस्ता का मंदिर और भूरादेव का प्राचीन स्थल भी है, जिसे देवी का पहरेदार कहा जाता है।
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तीर्थ यात्रा की परंपरा
पुराने समय में यह क्षेत्र इतना घना जंगल था कि यात्री रात्रि में यहां रुकने से डरते थे। वे बेहट नगर में ठहरते और दिन में टोली बनाकर मंदिर पहुंचते। यात्रा का क्रम भी निर्धारित था — पहले भूरादेव के दर्शन, फिर मां शाकुम्भरी का आशीर्वाद। अगर कोई भूरादेव के दर्शन न करे तो यात्रा अधूरी मानी जाती थी।
सांस्कृतिक और सामाजिक पहलू
यहां केवल पूजा–अर्चना ही नहीं होती बल्कि सामूहिक भक्ति का एक बड़ा रूप देखने को मिलता है। मेला लगने पर यहां भजन, कीर्तन, यज्ञ, और विशाल भंडारे आयोजित होते हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी इसका बड़ा असर होता है। आसपास के गांवों के लोग दुकानों, धर्मशालाओं और सेवाओं के जरिए अपनी जीविका चलाते हैं।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य
आज के समय में शाकुम्भरी धाम तक पहुंचना आसान हो गया है। सहारनपुर से सीधी बसें चलती हैं। निजी वाहन भी मंदिर द्वार तक जाते हैं। मंदिर परिसर में धर्मशालाएं, आश्रम, भोजनालय और रैन बसेरे बने हुए हैं। सहस्र चण्डी यज्ञ नियमित रूप से आयोजित किए जाते हैं।
लेकिन समस्याएं भी कम नहीं हैं। बरसात में भूरादेव से मंदिर तक का मार्ग जलमग्न हो जाता है। कई बार श्रद्धालु और वाहन नदी में बह जाते हैं। प्रशासन और सरकार ने पुल और सड़क निर्माण के वादे किए, लेकिन आज तक पूरा काम नहीं हुआ। यही वजह है कि विकास की दृष्टि से यह धाम अभी भी इंतजार में है।
वैश्विक पहचान
आज मां शाकुम्भरी सिद्धपीठ केवल सहारनपुर या उत्तर भारत तक सीमित नहीं रहा। यहां आने वाले श्रद्धालु अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड और खाड़ी देशों से भी आते हैं। सोशल मीडिया पर इस मंदिर की तस्वीरें और वीडियो दुनिया भर में देखे जाते हैं।
निष्कर्ष
मां शाकुम्भरी सिद्धपीठ केवल एक धार्मिक स्थल नहीं बल्कि इतिहास, आस्था और संस्कृति का अद्वितीय संगम है। यहां की यात्रा भक्त को केवल दर्शन नहीं देती, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुभव कराती है। यह धाम बताता है कि भक्ति और विश्वास समय की सीमाओं को पार कर जाते हैं।
