
BSP chief Mayawati's new political plan during the Muslim Brotherhood meeting in Lucknow
बसपा की रणनीति बदली, सपा को बड़ी चुनौती
दलित-मुस्लिम एकता से बदलेगी यूपी सियासत
📍 लखनऊ 🗓️ 28 अक्टूबर 2025✍️ आसिफ़ ख़ान
बहुजन समाज पार्टी (BSP) की चीफ़ मायावती ने 2027 विधानसभा चुनाव के लिए नई सियासी चाल चली है। मुस्लिम समाज पर फोकस बढ़ाते हुए उन्होंने ‘भाईचारा कमेटियां’ बनाना शुरू कर दिया है, ताकि दलित-मुस्लिम गठजोड़ के ज़रिए समाजवादी पार्टी के वोट बैंक में सेंध लगाई जा सके।
मुस्लिम भाईचारा कमेटियों से बसपा एक्टिव
उत्तर प्रदेश की सियासत एक बार फिर करवट ले रही है। सियासी हवा में अब बसपा सुप्रीमो मायावती का नाम ज़ोरों पर है। वो फिर से मैदान में उतर चुकी हैं—इस बार एक नई सोच और नई रणनीति के साथ।
मायावती जानती हैं कि यूपी की राजनीति का दिल दलितों और मुसलमानों की एकजुटता में छिपा है। यही वजह है कि उन्होंने अब अपना पूरा फोकस मुस्लिम वोट बैंक पर कर दिया है।
भाईचारा कमेटियों का गठन
लखनऊ में बुधवार को होने वाली विशेष मंडल स्तरीय बैठक को लेकर पार्टी में हलचल तेज़ है। बताया गया है कि यह बैठक ‘मुस्लिम समाज भाईचारा संगठन’ की होगी, जहां मायावती खुद मुख्य अतिथि होंगी।
पार्टी ने हर ज़िले में भाईचारा कमेटियां गठित करने का निर्देश दिया है — हर कमेटी में एक सदस्य दलित समुदाय से और दूसरा मुस्लिम समुदाय से होगा।
इसका मक़सद साफ़ है: दलित-मुस्लिम एकता को मज़बूत करना और एक नया सामाजिक गठबंधन बनाना, जो सपा के पारंपरिक आधार को चुनौती दे सके।
दलित वोट बैंक अब भी मज़बूत
कांशीराम की पुण्यतिथि पर लखनऊ में हुई रैली में जो भीड़ उमड़ी, उसने यह साफ़ कर दिया कि दलित वोट बैंक अब भी बसपा के साथ है। मायावती ने इस ऊर्जा को महसूस किया और अब उसी में मुस्लिम समाज की भागीदारी जोड़ने का मन बनाया।
उनकी रणनीति है — “मूल वोट बैंक को मज़बूत रखो और नया वोट बैंक जोड़ो।”
राजनीतिक तौर पर यह रणनीति ‘दो पायों पर खड़ी कुर्सी’ की तरह है, जो सत्ता के समीकरणों को हिला सकती है।
सपा के लिए नई टेंशन
2024 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाता लगभग एकतरफ़ा तौर पर समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ खड़ा था। यही सपा की ताक़त थी। लेकिन अब मायावती की यह नई चाल उसी वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश है।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यदि बसपा दलित-मुस्लिम गठजोड़ को ज़मीन पर उतार पाती है, तो 2027 में सपा का कोर वोट बैंक बिखर सकता है।
बीएसपी की रणनीति में बड़ा बदलाव
मायावती का यह कदम सिर्फ़ वोट बैंक की राजनीति नहीं, बल्कि एक “सामाजिक पुनर्संतुलन” की कवायद है।
पहले बसपा ने ‘बहुजन’ शब्द से दलितों, ओबीसी और मुसलमानों को एक मंच पर लाने की कोशिश की थी।
लेकिन इस बार फोकस साफ़ है — “दलित और मुसलमान”।
ओबीसी को लेकर पार्टी इस समय साइलेंट मोड में है।
राजनीतिक नज़रिए से देखें तो यह बदलाव कांशीराम युग की वापसी जैसा है, जब बसपा ने ‘तिलक, तराज़ू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ जैसे नारे से दलितों की आवाज़ बुलंद की थी।
अब वही आक्रामकता नए अंदाज़ में दिख रही है — “दलित-मुस्लिम भाईचारा, बसपा का सहारा।”
मुस्लिम समाज के बीच मायावती की पहुँच
पार्टी सूत्रों के अनुसार, बसपा ने मुस्लिम भाईचारा कमेटियों का काम सबसे पहले लखनऊ, सीतापुर, बहराइच और अमरोहा मंडलों में शुरू किया है।
हर कमेटी में स्थानीय मौलाना, सामाजिक कार्यकर्ता और बसपा के वरिष्ठ पदाधिकारी शामिल होंगे।
इसका उद्देश्य है — मुस्लिम समाज को भरोसा दिलाना कि बसपा अब उनकी राजनीतिक आवाज़ बन सकती है।
इस कार्यक्रम में मायावती खुद SIR (Special Intensive Revision) यानी मतदाता सूची पुनरीक्षण प्रक्रिया पर बात करेंगी ताकि मुस्लिम समुदाय के अधिक से अधिक मतदाता वोटर लिस्ट में जुड़ें।
मायावती की सियासी गणित
मायावती समझती हैं कि यूपी में दलित 21% और मुसलमान करीब 19% आबादी रखते हैं।
अगर ये दोनों समुदाय एक साथ वोट करें, तो कोई भी पार्टी बसपा को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती।
यही समीकरण उनके पूरे गेम प्लान का आधार है।
वो इस बार न तो किसी गठबंधन में दिखना चाहती हैं, न किसी पार्टी के सहारे — बल्कि स्वतंत्र ताक़त के रूप में उभरने की कोशिश कर रही हैं।
विपक्ष के लिए संकेत
सपा और कांग्रेस के लिए यह संकेत साफ़ है कि 2027 में मुकाबला सिर्फ़ भाजपा से नहीं, बल्कि पुनर्जीवित बसपा से भी होगा।
राजनीतिक पंडितों के अनुसार, यदि बसपा अपने पुराने दलित वोटर को साथ रख पाई और मुस्लिम मतदाताओं का 25% भी जोड़ पाई, तो वह फिर से “किंगमेकर” बन सकती है।
क्या मायावती का दांव चलेगा?
यह सवाल बड़ा है।
मुस्लिम समुदाय अभी भी भाजपा विरोधी मतदाताओं के तौर पर सपा के साथ एकजुट दिखता है।
लेकिन हाल के महीनों में सपा के अंदर मुस्लिम प्रतिनिधित्व को लेकर कुछ असंतोष भी देखा गया है।
मायावती इस गैप को समझ चुकी हैं और अब उसी को भरने में जुटी हैं।
उनकी राजनीति अब बयानबाज़ी से ज़्यादा संगठन पर आधारित है — यानी कम बोलो, ज़्यादा करो।
बसपा का भविष्य
अगर यह रणनीति ज़मीन पर उतरती है तो मायावती न सिर्फ़ सपा बल्कि कांग्रेस और भाजपा के लिए भी सिरदर्द बन जाएंगी।
क्योंकि दलित-मुस्लिम एकता का मतलब होगा सामाजिक न्याय का नया स्वरूप, जो मायावती की पुरानी राजनीति को फिर से जीवन दे सकता है।
राजनीति की भाषा में कहें तो यह मायावती का “रीलोडेड बहुजन मिशन” है —
जहां धर्म और जाति को नहीं, बल्कि साझा राजनीतिक हितों को जोड़ा जा रहा है।






