

सुलखान सिंह
पूर्व डीजीपी उत्तर प्रदेश
आज प्रातः मानस पाठ के समय विचार आया कि ऋषि (Rishi), मुनि (Muni), साधु (Sadhu), संत (Saint) आदि शब्दों के अर्थ एवं प्रयोग में व्याप्त अज्ञान और अराजकता की धुंध को कुछ साफ करने का प्रयास किया जाये।
वैसे तो इन सभी विषयों पर मैं समय समय पर प्रसंगवश लिखता रहा हूं परंतु आज इन शब्दों को अत्यंत संक्षिप्त एवं फोकस्ड रूप में एक जगह स्पष्ट करने का प्रयास करूंगा। एक बात शुरुआत में ही स्पष्ट करना चाहूंगा कि ये विशेषण, मानवमात्र के लिए हैं केवल भारतीयों अथवा हिंदुओं के लिए नहीं।
ऋषि:- शास्त्रों ऋषि शब्द उस महात्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है जिसने व्यापक रूप से “ज्ञान का सृजन” किया गया। मात्र विद्वान के लिए ऋषि शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। इस प्रकार आप आर्यभट्ट, पतंजलि, घेरण्ड, मत्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ, श्रीनिवास रामानुजन, न्यूटन, फैराडे, पाइथागोरस, आइंस्टीन इत्यादि महात्मागण, जिन्होंने मौलिक ज्ञान का सृजन किया है, ऋषि कहलाने के पात्र हैं।
मुनि:- वे महात्मा जो गहन चिंतन मनन करते हुए लोककल्याणकारी सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं, “मुनि” कहलाने के अधिकारी हैं। देखा जा सकता है कि सभी ऋषि तो मुनि भी होते हैं परन्तु सभी मुनि, ऋषि नहीं होते। महात्मा तुलसीदास, सूरदास, कालिदास, अरविंद घोष, के. कामराज, गांधी, प्लैटो, अरस्तू, मंसूर अल हज्जाज, मौलाना रूमी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, डा. अम्बेडकर, सुकरात, वेदव्यास, अत्रि इत्यादि मुनि कहे जाने के पात्र हैं।
साधु:- साधना में लगे हुए महापुरुष को ‘साधु’ कहा गया है। यह आवश्यक नहीं है कि वह सिद्ध हो। जिस व्यक्ति ने सम्यक् रूप से निश्चित मार्ग पर साधनालीन है, उसे निर्विवाद रूप से साधु माना जाना चाहिए।
संत:- संत पुरुष के अगणित लक्षण रामचरितमानस में दिये गये हैं। सबके सार स्वरूप कहा जा सकता है कि “जो व्यक्ति स्वाभाविक रूप से भला है और सीधे -सरल स्वभाव का है, वह संत हैं”। स्वाभाविक सरलता, संत व्यक्ति का अनिवार्य गुण है।
‘चातुर्वर्ण्य’ के बारे में तो बहुत ही भ्रम एवं भ्रांतियां हैं; कुछ वास्तविक और स्वाभाविक तो कुछ दुष्टता एवं शरारतपूर्ण। मेरा दृढ़ निश्चय है कि संदेह के निवारण में सत्-शास्त्र (सच्छास्त्र) ही पथ-प्रदर्शक हैं। मैं चार वर्ण की व्याख्या के संबंध में ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ को अद्यावधिक सत्प्रमाण मानता हूं। गीता में वर्ण वर्गीकरण का निर्धारक तत्व ‘स्वभावज कर्म’ को बताया गया है। इस विषय पर अगली पोस्ट।
चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
ऋषि, मुनि, साधु और संत शब्द के मायने स्पष्ट किये है। आज चातुर्वर्ण्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के वर्गीकरण को स्पष्ट कर रहा हूं।
सर्वप्रथम यह समझना जरूरी है कि, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र क्या हैं। यह चातुर्वर्ण्य एक व्यवहार -मानवशास्त्रीय वर्गीकरण (behavioural anthropological classification) है। यह कोई व्यवस्था नहीं है। यह धर्म और क्षेत्र निरपेक्ष है। अर्थात् मनुष्य चाहे ईसाई हो, मुसलमान हो अथवा शैव या वैष्णव हो, वह भारत खंड का निवासी हो या यूरोप अथवा अमेरिका अफ्रीका आदि कहीं का निवासी हो, वह इन्हीं किसी न किसी ‘वर्ण’ में वर्गीकृत होगा।
यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि चातुर्वर्ण जातियां नहीं हैं। भारत में जातियां काम/व्यवसाय के अनुसार बनीं थीं और जाति परिवर्तन करना संभव था। मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि उसकी सन्तान उससे बेहतर कार्य/व्यवसाय करे। कालांतर में कुछ समाज विरोधी लोगों ने प्रयास करके अपने कार्य/व्यवसाय में दूसरे लोगों का आना कठिन और फिर असंभव बना दिया। इसी से जन्मना जातियाँ बन गईं। खैर, हम वर्ण की बात करेंगे।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 13 में गुण और कर्म के अनुसार वर्ण विभाग की बात कही गई है- “चातुर्वर्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥”
अध्याय 18 में श्लोक 18.41 से 18.44 तक चारो वर्णों के स्वभावज कर्मों का उल्लेख किया गया है। देखें-
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप। कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।18.41
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।18.42।।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।18.43।।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्। परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।18.44।।
इस परिभाषा के अनुसार, चारो वर्णों के स्वभावज कर्मों को मोटे तौर पर निम्नवत वर्गीकृत किया जा सकता है-
- ब्राह्मण- मन पर नियंत्रण, इन्द्रियों का दमन, तप, आन्तरिक और बाह्य शुचिता, शान्ति,
स्वभाव से सीधा/सरल, ज्ञान-विज्ञान में उत्कृष्टता। - क्षत्रिय – शौर्य, युद्ध से न भागना, दान और सभी की रक्षा करना।
- वैश्य – कृषि, पशुपालन, व्यापार।
- शूद्र – नौकरी पेशा।
इससे स्पष्ट होना चाहिये कि चातुर्वर्ण्य का वंश से कोई लेना देना नहीं है। यह वर्गीकरण व्यक्तिपरक है; वंशानुगत, सामूहिक, सामाजिक अथवा क्षेत्रीय नहीं है। भारत के इतिहास में कई राजा, नवाब और बादशाह (स्वभावज क्षत्रिय) ऐसे हुये हैं जिनके कुछ पुत्र बहुत विद्वान और ज्ञानी हुये। यद्यपि ये स्वभावतः ब्राह्मण थे, लेकिन पिता ने पुत्रमोह के कारण उसे राजपाट दे दिया। नतीजा घातक रहा। इसी प्रकार विद्वान ऋषि/मुनियों के पुत्र शूरवीर और महान योद्धा हुये (परशुराम, रावण), जिन्हें स्वभावज क्षत्रिय ही कहा जाना चाहिए था। किंतु इन्हें ब्राह्मण वर्गीकृत किया गया और परिणाम घातक रहे।
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वर्ण निर्धारण, देश, समाज अथवा धर्म से निरपेक्ष है। अतः –
आज के समय में, बहुत बड़े विद्वानों (ऋषि/मुनि) जैसे महान साहित्यकार, वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर, दार्शनिक अथवा अन्य विशेषज्ञों को “ब्राह्मण वर्ण” के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है। महान ईसाई वैज्ञानिक श्री आइजक न्यूटन, महान दार्शनिक प्लैटो अरस्तू, महान संत मंसूर अली हज्जाज, भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम आदि ब्राह्मण ही थे।
महान योद्धा सिकंदर, चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक, मोहम्मद गोरी, तैमूर, अकबर, औरंगजेब, नेपोलियन, क्लाइव, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के असंख्य हिंदू -मुस्लिम योद्धा, जनरल मानेकशॉ आदि महान योद्धा क्षत्रिय वर्ण में ही वर्गीकृत होंगे।
सभी भारतीय, ईसाई, अरबी, फारसी या अमेरिकी व्यापारी, वैश्य ही माने जायेंगे। और –
सभी जातियों, धर्म, देशों के सेवा सेक्टर/नौकरीपेशा/सरकारी सेवक आदि, शूद्र ही हैं एवं तदनुसार ही शूद्र वर्गीकृत किये जायेंगे। अब प्रसंगवश, इसी तारतम्य में मानस की एक बहुचर्चित चौपाई की भी व्याख्या करना उचित रहेगा। यह चौपाई है –
“पूजिय बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।
– ।।रामचरितमानस/अरण्य काण्ड/दो० 33।।
मेरा यह अनुभव रहा है कि बड़े विद्वान, जो प्रायः अपने कार्य में बहुत तल्लीन/मग्न रहते हैं, प्रायः शील-गुण (शिष्टाचार) में कमजोर रह जाते हैं। आज की भाषा में इन्हें लोग ‘सनकी’ कहते हैं। फिर भी हम ऐसे लोगों की इज्ज़त करते हैं, उन्हें सम्मान देते हैं और उनकी अक्सर बेढगी/सनकपूर्ण हरकतों को नजरअंदाज करते हैं। इसी को तुलसीदास जी ने ‘पूजिय’ कहा है। ‘पूजिय’ का अर्थ यहाँ धूप-दीप की पूजा से नहीं था। ऐसे लोग ‘पूजने’ से पथभ्रष्ट नहीं होते, बिगड़ते नहीं या यूं कहें कि इनका दिमाग खराब नहीं होता, प्रशंसा/सम्मान इनके सिर पर चढ़कर नहीं बोलता। ऐसे समर्पित विद्वानों/त्रषियों/मुनियों की इस सनक (शील गुण हीनता) के बावजूद, उनका सम्मान करना चाहिए और सभी सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए। इन्हीं के कारण व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का विकास होता है।
विप्र विद्वान मात्र नहीं होता। जो ज्ञानार्जन करने के उपरांत ज्ञान का सृजन करता है वह विप्र है। इसलिये मानस में ऋषि/मुनियों को विप्र कहा है। ज्ञानार्जन करके विद्वान तो क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य कोई भी हो सकता है। विद्वता वर्ण निर्धारण का मानक नहीं है; वर्ण निर्धारण का मानक है “स्वभावज कर्म”।
जिस व्यक्ति में स्वभावतः सेवा करने/सेवाजीवी होने का गुण हो, वह शूद्र ही है। शूद्र बड़ा विद्वान भी हो सकता है परन्तु परिचर्यात्मक स्वभावज रुझान होने के कारण शूद्र ही कहा जायेगा। आज जितने भी नौकरी पेशा लोग हैं वे वास्तव में शूद्र ही हैं भले ही उनका जन्म किसी जाति के माता-पिता से हुआ हो।
दुर्भाग्यवश वर्तमान अर्थव्यवस्था में जीविका के साधन इतने कम और विकल्प इतने सीमित हैं कि व्यक्ति अपनी स्वभावज रुचि के अनुसार सम्मानजनक आय वाला रोजगार नहीं पा सकता। आज की स्थिति यह है कि “स्वभावज गुणानुरूप कर्म न करने से वर्णसंकरता” पैदा हो गई है-
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।
— ।।भगवद्गीता/अध्याय 3 श्लोक 24।।
वैसे हर समाज में थोड़ी बहुत वर्णसंकरता प्राकृतिक रूप से रहती ही है।
अतः किसी व्यक्ति का वर्ण निर्धारण करने में “प्रभावी स्वाभाविक कर्म रुचि” ही विचार में ली जानी चाहिए। ऐसा न करने के कारण, वर्णों को समझने में भ्रम और दुविधा होती है।
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“शूद्र न गुनगुन ज्ञान प्रबीना।।” अर्थात् गुणसमूह और ज्ञान में प्रवीण/निपुण होने पर भी “शूद्र” की पूजा नहीं करनी चाहिए। इसका साफ आशय यह है कि सेवावृत्ति वाले व्यक्ति (सेवक) की पूजा नहीं करनी चाहिए। यह उस समय की मान्यता थी और मित्रों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि वर्तमान में भी यह व्यवस्था लागू है। केन्द्रीय सेवाओं के आचरण नियमावली का नियम 14 निम्नवत है –
- Public demonstrations in honour of Government servants:- No Government servant shall, except with the previous sanction of the Government, receive any complimentary or valedictory address or accept any testimonial or attend any meeting or entertainment held in his honour; or in the honour of any other Government servant:
इसके अलावा भवनों इत्यादि के उद्घाटन इत्यादि पर भी रोक है। इसका आधार यही है कि सेवावृत्ति वाले व्यक्ति (शूद्र), पूजा मान के अधिकारी नहीं हैं। यह व्यवस्था पूरे विश्व में है। अगर नौकरों की मान पूजा की जाये तो उनका दिमाग खराब हो जाता है। सेवकों को शिष्टाचार और संरक्षण दिया जाना चाहिए परंतु मान-पूजा नहीं।
दिक्कत यह है कि इस समय जो लोग अपने को शूद्र कह रहे हैं, असल में वे शूद्र नहीं हैं- कोई क्षत्रिय है, कोई वैश्य, कोई शूद्र और कोई ब्राह्मण। इन्हें अपने वर्ण का पता गीता में दी गई परिभाषा के अनुसार खुद लगाना चाहिए।
तो मेरे भाइयो, रामचरितमानस (Ramcharitmanas) में ग़लत नहीं लिखा है, बल्कि आप अपने को ग़लत समझ रहे हैं।