
खौफ़ बनाम हिम्मत: मेहताब और पुलिस की आमने-सामने की भिड़ंत
गोलियों की गूँज में साबित हुई पुलिस की जांबाज़ी
ज़ख़्मी होकर भी डटे रहे सिपाही, एनकाउंटर में दिखी बहादुरी
📍 मुजफ्फरनगर, 3 अक्टूबर 2025
✍️ शाह टाइम्स संवाददाता
मुजफ्फरनगर के परसोली जंगल में पुलिस मुठभेड़ में इनामी अपराधी मेहताब मारा गया। पुलिस इसे कामयाबी बता रही है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या एनकाउंटर ही अपराध पर काबू का सही रास्ता है?
अपराध और पुलिस की जंग का इतिहास इस मुल्क में नया नहीं है। हर दौर में ऐसे किस्से सामने आते रहे हैं जहाँ कुख्यात अपराधी गोलियों की बौछार में ढेर हो गए। ताज़ा वाक़या मुजफ्फरनगर के परसोली जंगल का है, जहाँ एक लाख का इनामी बदमाश मेहताब पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। पुलिस ने इसे बड़ी कामयाबी बताया, लेकिन इस एनकाउंटर ने फिर वही बहस खड़ी कर दी—क्या कानून के रास्ते से बाहर जाकर गोली से न्याय करना लोकतंत्र के लिए सही है, या यह व्यवस्था की नाकामी का सबूत?
अपराध का बढ़ता साया
उत्तर प्रदेश में अपराध का ग्राफ़ हमेशा से सुर्ख़ियों में रहा है। लूट, डकैती, रंगदारी और क़त्ल—इन सबके बीच पुलिस का दबाव भी बराबर चलता रहा। मेहताब का नाम भी इन्हीं अंधेरे चेहरों में शामिल था। उसके ख़िलाफ़ 18 से ज़्यादा संगीन मुक़दमे दर्ज थे। वह सर्राफ़ा व्यापारियों को लूटता, गांव-कस्बों में खौफ़ फैलाता और गैंगस्टर की तरह ज़िंदगी गुज़ारता।
लेकिन असल सवाल यह है कि ऐसे लोग इस मुक़ाम तक पहुँचते कैसे हैं? क्या सिर्फ़ पुलिस का डर ही उन्हें रोक सकता है या समाज में ऐसे हालात हैं जो उन्हें अपराध की तरफ़ धकेलते हैं?
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मुजफ्फरनगर में कानून,सुरक्षा और प्रशासनिक जिम्मेदारी का अद्भुत समन्वय
पुलिस का नज़रिया
पुलिस के लिए यह एक तरह की battlefield situation थी। मुखबिर की सूचना पर टीम ने जंगल को घेरा, सरेंडर की चेतावनी दी, लेकिन जवाब में मेहताब ने ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी। मजबूरी में पुलिस को भी गोली चलानी पड़ी। नतीजा, मेहताब ज़ख़्मी होकर ढेर हो गया।
पुलिस अधिकारियों का कहना है कि ऐसे एनकाउंटर्स से बाकी अपराधियों में डर बैठता है और इलाक़े का माहौल कुछ समय के लिए शांत हो जाता है। यह बात कुछ हद तक सही भी लगती है। हाल ही में ठीक पाँच दिन पहले पुलिस ने नईम कुरैशी जैसे एक और इनामी बदमाश को मार गिराया था।
समाज की नज़र से
लोगों के लिए यह एक तरह की relief story बन जाती है। जिन सर्राफ़ा व्यापारियों को हाल ही में मेहताब ने लूटा था, उनके लिए यह राहत की खबर है। गली-मोहल्लों में लोग कहते हैं कि “ठीक हुआ, अब चैन से सो पाएंगे।” मगर यही समाज अगले ही पल पूछता है कि अगर पुलिस पहले से अलर्ट होती, तो शायद इतनी बड़ी वारदातें होती ही नहीं।
यहाँ से असली बहस शुरू होती है—क्या एनकाउंटर justice है या सिर्फ़ revenge?
इंसाफ़ और कानून का तक़ाज़ा
किसी भी मुल्क की न्याय व्यवस्था का आधार यही होता है कि अदालत तय करे कौन गुनहगार है और कौन बेगुनाह। जब पुलिस सड़क पर ही फैसला कर देती है, तो यह प्रक्रिया कमजोर पड़ जाती है। उर्दू की एक मशहूर लाइन है:
“क़ानून के साए में ही इंसाफ़ की रोशनी मिलती है, वरना अंधेरों में सब बराबर नज़र आते हैं।”
एनकाउंटर अगर सचमुच आत्मरक्षा में हुआ हो तो यह मजबूरी मानी जा सकती है। लेकिन जब यह एक pattern बन जाए, तो लोकतांत्रिक ढाँचा सवालों में घिर जाता है।
राजनीति की परतें
एनकाउंटर की बहस सिर्फ़ पुलिस और अपराध तक सीमित नहीं रहती। राजनीति इसमें अपनी सियासत ढूँढ लेती है। हुकूमत ऐसे मामलों को “कानून-व्यवस्था की सख़्ती” बताती है, विपक्ष इसे “फर्ज़ी मुठभेड़” कहकर हमला करता है। नतीजा यह कि असली मुद्दा—यानी अपराध रोकना—पीछे छूट जाता है।
एसएसपी और एएसपी मौके पर
सूचना मिलते ही मुजफ्फरनगर एसएसपी संजय वर्मा और एसपी देहात आदित्य बंसल टीम के साथ घटनास्थल पर पहुँचे और पूरे मुठभेड़ क्षेत्र की गहन जांच की। पुलिस के अनुसार, मेहताब न केवल हालिया सर्राफा व्यापारी से हुई लूट में शामिल था बल्कि वह कई आपराधिक गिरोहों से लगातार संपर्क में था। इसी वजह से वह इलाके में लंबे समय से दहशत का कारण बना हुआ था।
लोकल लेवल पर असर
मुजफ्फरनगर और शामली जैसे ज़िलों का हालिया इतिहास बताता है कि हर बड़े एनकाउंटर के बाद कुछ वक़्त के लिए अपराधी दबक जाते हैं। लेकिन फिर वही कहानी दोहराई जाती है। यह एक vicious cycle है।
लोगों का पुलिस पर भरोसा तभी पुख़्ता होगा जब वह अदालतों में मुक़दमे मज़बूती से लड़कर अपराधियों को सज़ा दिलाए। वरना “Encounter Specialist” की इमेज सिर्फ़ डर पैदा करेगी, स्थायी हल नहीं।
ज़ख़्मी पुलिसकर्मी और रिस्क
इस मुठभेड़ में दरोगा ललित कसाना और सिपाही अलीम घायल हुए। यह याद दिलाता है कि एनकाउंटर किसी फिल्मी सीन की तरह नहीं होता। असली गोलियाँ चलती हैं, असली ज़िंदगियाँ दाँव पर होती हैं। पुलिसकर्मी भी रिस्क उठाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि रिस्क उठाने के साथ ही उन्हें क़ानून का पालन करना पड़ता है।
न्याय, डर और उम्मीद
लोग चाहते हैं कि अपराध खत्म हो। कोई नहीं चाहता कि उसके शहर, उसके गांव में बदमाश खौफ़ का साया बनकर घूमे। पुलिस चाहती है कि वह अपने बल पर इसे रोके। लेकिन सवाल यही है कि क्या गोली से मिला डर ही न्याय कहलाएगा?
कानून का असली मक़सद सिर्फ़ डराना नहीं बल्कि सुधारना भी होता है। अगर अदालतों में केस तेज़ी से निपटें, गवाह सुरक्षित हों और दोषियों को जल्दी सज़ा मिले, तो शायद एनकाउंटर जैसी नौबत ही न आए।
नज़रिया
मेहताब का खौफ़ अब खत्म हो चुका है। लेकिन हर एनकाउंटर के बाद वही सवाल फिर से सामने आ जाता है—क्या यह रास्ता लोकतंत्र को मज़बूत करेगा या और कमजोर?
Encounter is not just a police action, it’s a mirror of our justice system.