
Political showdown over Operation Sindoor: Modi’s diplomacy vs Rahul Gandhi’s criticism | Shah Times
ऑपरेशन सिंदूर पर कांग्रेस-भाजपा की जंग और मोदी सरकार की असली रणनीति।
राहुल गांधी द्वारा ‘सरेंडर नीति’ का आरोप लगाना क्या भारतीय सेना और विदेश नीति की गरिमा को ठेस पहुँचाता है? ऑपरेशन सिंदूर पर कांग्रेस और भाजपा के आरोप-प्रत्यारोप के बीच नरेंद्र मोदी की रणनीतिक भूमिका का विश्लेषण।
“नाम नरेंद्र, काम सरेंडर” – यह वाक्य कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कटाक्ष करते हुए कहा, लेकिन यह वाक्य आज़ाद भारत की नीति, सेना और नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाता है या राजनीतिक छवि चमकाने का प्रयास है? इस लेख में हम ऑपरेशन सिंदूर से जुड़ी सच्चाइयों, कांग्रेस के आरोपों और भाजपा की प्रतिक्रियाओं के माध्यम से नरेंद्र मोदी और भाजपा की नीति की वास्तविकता को परखने का प्रयास करेंगे।
🛡️ ऑपरेशन सिंदूर: सर्जिकल रणनीति या झुकाव?
‘ऑपरेशन सिंदूर’ भारतीय सेना की एक सटीक और साहसिक कार्रवाई थी, जिसमें पाकिस्तान समर्थित आतंकी ठिकानों को नष्ट किया गया। यह मिशन भारत की आक्रामक कूटनीति और सैन्य संतुलन का प्रतीक था। कांग्रेस का आरोप है कि इस दौरान अमेरिका के दबाव में आकर मोदी सरकार ने सैन्य कार्रवाई रोक दी। लेकिन सवाल यह है कि – क्या किसी भी देश की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति पूरी तरह से अकेले चल सकती है?
यथार्थ यह है कि मोदी सरकार ने हमेशा ‘रणनीतिक संतुलन’ बनाए रखा है – एक ओर पाकिस्तान को स्पष्ट संदेश दिया गया और दूसरी ओर अमेरिका जैसे साझेदार राष्ट्रों के साथ कूटनीतिक संतुलन भी बना रहा। इसे “डिप्लोमैटिक डिटरेंस” कहा जा सकता है।
🗣️ कांग्रेस के आरोप: सीमाओं के पार?
राहुल गांधी द्वारा बार-बार नरेंद्र मोदी को ‘सरेंडर पीएम’ कहना, न केवल राजनीतिक आरोप है, बल्कि यह भारतीय सेना के स्वाभिमान और संप्रभुता पर भी सीधा हमला है। भाजपा प्रवक्ता डॉ. सुधांशु त्रिवेदी ने ठीक ही कहा कि जब भारत की सेना ऑपरेशन सिंदूर के तहत बहादुरी दिखा रही थी, तब यह कहना कि भारत ने “सरेंडर” कर दिया, असल में पाकिस्तानी भाषा बोलने जैसा है।
प्रश्न उठता है:
क्या भारत की सेना की बहादुरी और आत्मबलिदान पर राहुल गांधी द्वारा संदेह करना एक जिम्मेदार विपक्षी नेता का काम है? या फिर यह अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि को धूमिल करने का प्रयास है?
🇮🇳 भाजपा का पक्ष: आत्मसम्मान की रक्षा
भाजपा का कहना है कि राहुल गांधी का बयान विपक्षी राजनीति का निम्नतम स्तर है। ऐतिहासिक रूप से देखें तो 1948 में पीओके का सरेन्डर, 1962 में अक्साई चिन, 1971 में जीत के बाद पीओके की वापसी – ये सभी कांग्रेस शासनकाल में हुए। आज अगर मोदी सरकार कूटनीति और सैन्य कार्रवाई के संतुलन पर काम कर रही है, तो उसे ‘सरेंडर’ कहना एक राजनीतिक प्रोपेगेंडा से अधिक कुछ नहीं।
🌏 वैश्विक संदर्भ: क्या भारत अकेला खड़ा है?
कांग्रेस का आरोप है कि संकट की घड़ी में कोई भी देश भारत के साथ खड़ा नहीं था। लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि मोदी सरकार ने QUAD, G20, BRICS जैसे मंचों पर भारत की भूमिका को इतना प्रभावशाली बना दिया है कि भारत अब ‘आश्रित’ नहीं बल्कि सामरिक भागीदार है।
📌 निष्कर्ष: राजनीति अलग, सेना अलग
राजनीतिक बहस अपने स्थान पर हो सकती है, लेकिन सेना के पराक्रम को किसी भी राजनीति से जोड़ना राष्ट्र के आत्मसम्मान के खिलाफ है। नरेंद्र मोदी की सरकार ने हमेशा सेना को खुली छूट दी है और विदेश नीति को “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना से जोड़ते हुए भारत को वैश्विक मंचों पर मजबूत किया है।
राहुल गांधी जैसे नेताओं को चाहिए कि वे सरकार की नीतियों पर प्रश्न पूछें, लेकिन देश की सेना के पराक्रम और रणनीति पर संदेह न करें। क्योंकि ‘भारत मां के मृगेंद्र’ कभी सरेंडर नहीं करते – वे रणनीति के साथ चलते हैं।
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