
Police and bystanders gather outside RA Acting Studio in Powai, Mumbai, after a tense hostage situation involving several children.
आरए स्टूडियो में बच्चों की कैद — रोहित आर्य की आख़िरी मांग या सिस्टम की नाकामी?”
मुंबई के पॉवई इलाके में आरए एक्टिंग स्टूडियो में 17 बच्चों और दो वयस्कों को बंधक बनाए जाने की सनसनीखेज़ घटना ने पूरे देश को हिला दिया। आरोपी ने कहा कि उसका इरादा आतंक या पैसे से जुड़ा नहीं था, बल्कि “बात-चीत” और “जवाब” की तलाश थी। पुलिस ने फौरन कार्रवाई कर सभी को सुरक्षित रिहा कराया, मगर पीछे रह गई कई मुश्किल सवालों की गूंज।
📍मुंबई
🗓️ 30 अक्टूबर 2025
✍️ Israr Khan
मुंबई के पॉवई इलाके की एक सामान्य दोपहर अचानक खौफ़ में बदल गई, जब आरए एक्टिंग स्टूडियो से बच्चों की चीखें सुनाई दीं। ऊपर की मंज़िल की खिड़कियों से झांकती नम आंखें, नीचे जुटी चिंतित भीड़, और चारों ओर पुलिस के सायरन — जैसे किसी फ़िल्म का सीन हकीकत बन गया हो।
कुछ ही मिनटों में पुलिस पहुंची और स्टूडियो की घेराबंदी की गई। अंदर बंद थे 17 बच्चे और दो अन्य लोग। उन्हें बंधक बनाए हुए था एक युवक — नाम रोहित आर्य।
रोहित आर्य ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो जारी किया था, जिसमें उसने कहा, “मैं आतंकवादी नहीं हूं, कोई फिरौती नहीं चाहता। बस बात करनी है, कुछ सवाल पूछने हैं।” उसकी आवाज़ में बेचैनी थी, पर शब्दों में किसी गहरी मायूसी की गंध थी। उसने कहा कि “गलत कदम उठाया गया तो सब जल जाएगा।”
ये शब्द सिर्फ धमकी नहीं थे — ये एक ऐसे इंसान की पुकार थी जो अपने भीतर टूट चुका था। उसने कहा कि वह “सुसाइड करने की बजाय बातचीत का रास्ता” चुन रहा है। लेकिन क्या किसी को डराकर संवाद पाया जा सकता है?
रोहित आर्य कौन था?
घटना के बाद जो तस्वीर उभर कर आई, वो चौंकाने वाली थी। रोहित आर्य कोई साधारण अपराधी नहीं, बल्कि खुद को एक “सोशल-इनिशिएटिव” एक्टिविस्ट और प्रोजेक्ट डेवलपर बताता था। उसका दावा था कि उसने सरकारी शिक्षा योजनाओं में करोड़ों का निवेश किया, लेकिन उसे न तो मान्यता मिली, न भुगतान।
उसका कहना था कि उसकी “सुंदर स्कूल परियोजना” को सरकार ने अपनाया, मगर वादे पूरे नहीं किए।
वो कहता था — “सरकार ने मुझसे झूठ बोला, मेरे सपने को कुचल दिया।”
पिछले साल उसने शिक्षा मंत्री के खिलाफ भूख-हड़ताल भी की थी। तब उसने कहा था कि “मेरा मकसद आत्महत्या नहीं, जागरूकता है।” शायद उस समय भी उसकी आवाज़ को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया।
घटना का नाटकीय पल
गुरुवार की दोपहर वह अपने “प्लान” के साथ पॉवई के आरए स्टूडियो पहुँचा। उसने बच्चों को “ऑडिशन” के बहाने बुलाया और कमरे में बंद कर लिया। बाहर से दरवाज़ा बंद हुआ, अंदर सन्नाटा फैल गया। कुछ ही देर में बच्चों की पुकार गूँज उठी।
नीचे जुटे अभिभावकों की आंखों में डर और बेचैनी थी। पुलिस तुरंत पहुंची।
रेस्क्यू टीम ने चारों ओर से स्टूडियो को घेर लिया। कुछ घंटों तक चली बातचीत के बाद स्थिति बिगड़ी — रोहित ने आग लगाने की धमकी दी। पुलिस को मजबूरन जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी। गोली चली, रोहित गिर पड़ा। अस्पताल में उसकी मौत हो गई।
बच्चों को एक-एक कर बाहर निकाला गया। उनके चेहरे पर डर, आंखों में राहत — और हवा में सन्नाटा।
मासूमियत और मानसिकता के बीच
इस घटना ने सिर्फ मुंबई नहीं, पूरे देश को सोचने पर मजबूर किया।
क्या रोहित आर्य मानसिक रूप से अस्थिर था? या फिर वाकई उसने अन्याय सहा था और सिस्टम ने उसे सुना नहीं?
शायद दोनों ही सच हों।
वो टूटे सपनों और प्रशासनिक लापरवाही के बीच फँसा एक व्यक्ति था। लेकिन उसने जो रास्ता चुना — बच्चों को बंधक बनाना — वह किसी भी तरह न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता।
कानून और मानवता, दोनों इस कृत्य को माफ़ नहीं कर सकते।
मगर सवाल यह भी है कि किसी नागरिक को इतना निराश कैसे कर दिया जाता है कि वह संवाद की जगह हिंसा को चुन ले?
क्या हमारे सिस्टम में “सुनने की संस्कृति” मर चुकी है?
पुलिस की भूमिका
मुंबई पुलिस की फुर्ती और संतुलन ने इस संभावित त्रासदी को टाल दिया। मिनटों में टीम पहुँची, स्थिति को संभाला और बिना किसी बच्चे को नुकसान पहुंचाए सभी को सुरक्षित बाहर निकाला।
रेस्क्यू ऑपरेशन की योजना-बद्ध प्रक्रिया दिखाती है कि पुलिस में ट्रेनिंग और निर्णय क्षमता दोनों मौजूद हैं।
लेकिन यह भी उतना ही ज़रूरी है कि ऐसी घटनाओं की जड़ तक पहुँचा जाए।
क्योंकि अगर मानसिक या सामाजिक निराशा का इलाज नहीं किया गया, तो ऐसे “संवाद की कोशिशें” फिर किसी बच्चे की ज़िंदगी दांव पर लगा सकती हैं।
सिस्टम की चुप्पी और समाज की प्रतिक्रिया
घटना के बाद सोशल मीडिया पर बयानों की बाढ़ आ गई —
किसी ने कहा “यह सिस्टम की विफलता है”, किसी ने लिखा “सरकार को जिम्मेदार ठहराओ”, और कुछ ने इसे “मानसिक बीमारी” बताया।
पर सच्चाई शायद बीच में कहीं है — जहाँ इंसान अपनी हद पार करता है, और सिस्टम अपनी सीमा दिखाता है।
ये घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आवाज़ को दबाने से सिर्फ सन्नाटा नहीं, विस्फोट भी पैदा होता है।
अगर संवाद होता, तो शायद आज न कोई बंधक होता, न कोई मौत।
पत्नी की चीख और सवाल
जब रोहित को घायल हालत में एंबुलेंस में डाला जा रहा था, उसकी पत्नी बेतहाशा रो रही थी। उसने कहा — “वो बुरा आदमी नहीं था, बस थक गया था।”
यह बयान जितना भावनात्मक है, उतना ही डरावना भी।
क्योंकि जब कोई ‘थका हुआ’ व्यक्ति बंधक बना देता है, तो यह सिर्फ कानून का नहीं, पूरे समाज के संतुलन का सवाल बन जाता है।
भविष्य की दिशा
अब ज़रूरत है कि सरकार और समाज दोनों आत्ममंथन करें —
क्या grievance redressal system वाकई काम कर रहा है?
क्या आम आदमी को अपनी शिकायत सुनी जाने की उम्मीद है?
और क्या हमारे बच्चे सुरक्षित हैं जब कोई मानसिक रूप से अस्थिर व्यक्ति किसी भी क्लास या ऑडिशन सेंटर तक पहुँच सकता है?
मुंबई जैसे महानगर में ऐसी घटना, जहाँ हर कोने में CCTV है, सुरक्षा-गश्त है — बताती है कि सुरक्षा केवल तकनीक से नहीं, भरोसे से बनती है।
नतीजा
रोहित आर्य मर गया, मगर पीछे कई ज़िंदा सवाल छोड़ गया।
क्या न्याय सिर्फ कोर्ट में मिलता है या सुनवाई की शुरुआत समाज से होती है?
क्या सरकारें अपनी नीतियों में “मानव संवाद” की जगह बनाएंगी?
और सबसे अहम — क्या बच्चों के डर को हम सिर्फ एक “घटना” मानकर भूल जाएंगे?
यह बंधक कांड केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि उस समाज का आईना है जहाँ सुनने से ज़्यादा जल्दी जज करने की आदत पड़ चुकी है।
अगर यह सबक हमें नहीं बदलेगा, तो अगला संवाद भी शायद धमाके से शुरू होगा।






