
VVPAT papers found on road in Samastipur during Bihar elections 2025.
बिहार चुनाव में वीवीपैट विवाद: पारदर्शिता पर उठे सवाल और आयोग की जवाबदेही
📍बिहार 🗓 08 नवंबर 2025
✍️ असिफ ख़ान
समस्तीपुर में सड़क किनारे मिली वीवीपैट पर्चियों ने बिहार चुनाव 2025 की पारदर्शिता पर नया विवाद खड़ा कर दिया है। जहाँ राजद ने चुनाव आयोग की साख पर प्रश्न उठाए, वहीं आयोग ने स्पष्ट किया कि ये पर्चियां मॉक पोल की थीं। यह घटना केवल एक प्रशासनिक लापरवाही भर नहीं, बल्कि लोकतंत्र के प्रति जन-भरोसे की कसौटी भी है।
समस्तीपुर के सरायरंजन विधानसभा क्षेत्र में केएसआर कॉलेज के पास सड़क किनारे भारी संख्या में VVPAT से निकली पर्चियां मिलना ना सिर्फ़ एक तकनीकी त्रुटि का मामला है बल्कि हमारे लोकतंत्र के विश्वास की परीक्षा भी है। जिस राज्य में चुनाव हमेशा भावनाओं और आरोप-प्रत्यारोप के बीच लड़े जाते हैं, वहाँ ऐसा कोई भी दृश्य जनमानस में सवाल खड़े कर देता है।
राजद ने तुरंत X पर पोस्ट कर चुनाव आयोग पर तीखा प्रहार किया — “क्या चोर आयोग इसका जवाब देगा?” यह वाक्य भले राजनीतिक भावना से भरा हो, पर यह जन संवेदना का प्रतिबिंब भी है। आख़िर क्यों लोग हर बार EVM या VVPAT को संदेह की नज़र से देखने लगते हैं?
चुनाव आयोग का कहना है कि ये पर्चियां मॉक पोल की थीं, जिन्हें निस्तारित करने में सहायक रिटर्निंग ऑफ़िसर से लापरवाही हुई। आयोग ने उसे निलंबित किया और FIR के निर्देश दिए। यह तेज़ प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है क्योंकि यह संदेश देती है कि किसी भी चुनावी कर्मी की लापरवाही सहनीय नहीं। लेकिन क्या सिर्फ़ एक निलंबन से भरोसा वापस आ सकता है?
बिहार की राजनीति में “भरोसा” हमेशा एक कमज़ोर कड़ी रहा है। वोटर की आँखों में अब केवल पार्टी नहीं, प्रक्रिया पर भी शक घर कर गया है। जब लोग देखते हैं कि कूड़े में चुनाव से जुड़ी पर्चियां पड़ी हैं, तो उनका विश्वास हिलना स्वाभाविक है। “मॉक पोल” जैसी तकनीकी शब्दावली आम जन के लिए कई बार भ्रम का कारण बन जाती है।
डॉक्टर ज्ञानेश कुमार, मुख्य चुनाव आयुक्त, ने कहा कि मतदान की अखंडता पर कोई असर नहीं पड़ा। तकनीकी दृष्टि से यह सही है, क्योंकि मॉक पोल के दौरान डाले गए वोट किसी वास्तविक वोटिंग में शामिल नहीं होते। लेकिन सवाल तकनीक का नहीं, धारणा का है — “क्या लोगों को यह समझाया गया कि ये पर्चियां वास्तविक वोट से नहीं जुड़ी थीं?”
लोकतंत्र में दृश्य ही वास्तविकता बन जाता है। अगर सड़क पर VVPAT पर्चियां पड़ी हैं, तो लोग यह नहीं सोचते कि यह मॉक पोल था या नहीं; वे यह सोचते हैं कि “हमारे वोट सुरक्षित नहीं हैं।” यहीं से समस्या शुरू होती है।
इस मामले में प्रशासन की तेज़ कार्रवाई सराहनीय है। डीएम रोशन कुशवाहा और एसपी अरविंद प्रताप सिंह ख़ुद मौके पर पहुंचे, जाँच की, रिपोर्ट माँगी। इससे कम से कम यह संदेश तो गया कि राज्य प्रशासन मामले को गंभीरता से ले रहा है।
फिर भी, यह घटना हमें याद दिलाती है कि भारत में चुनावी विश्वास कितना नाज़ुक है। 1999 से EVM का उपयोग शुरू हुआ था, और आज तक हर कुछ वर्षों में यह बहस फिर से उठ जाती है — क्या EVM सुरक्षित हैं? क्या VVPAT विश्वसनीय हैं? क्या आयोग स्वतंत्र है? सवाल हर बार वही रहते हैं, जवाब हर बार वही मिलते हैं।
राजनीतिक दलों को भी इस मामले में संतुलन बनाना होगा। लोकतंत्र में सवाल उठाना ज़रूरी है, लेकिन हर त्रुटि को षड्यंत्र बना देना भी ख़तरनाक है। “सवाल और संदेह के बीच की रेखा बहुत पतली है।” राजद का आरोप जनसुनवाई का एक स्वर है, पर आयोग की व्याख्या को भी उतनी ही गंभीरता से सुना जाना चाहिए।
अगर हम वास्तव में लोकतंत्र को मज़बूत करना चाहते हैं, तो हमें तकनीक के साथ संचार को भी सुधारना होगा। लोगों को समझाया जाए कि मॉक पोल क्यों होता है, कैसे VVPAT पर्चियां डेमो का हिस्सा होती हैं। जब ज्ञान बढ़ेगा, भ्रम घटेगा।
जन विश्वास किसी भी चुनाव की रीढ़ है। समस्तीपुर की घटना ने भले एक कर्मी की लापरवाही को बे नकाब किया हो, पर इस ने एक बड़ी बहस को भी जगा दिया है — क्या हमारा लोकतंत्र सिर्फ़ वोटिंग मशीन तक सीमित रह गया है या अब भी वोटर की भावना उसका आधार है?
लोग कह रहे हैं कि “एक छोटी घटना से इतना शोर क्यों?” पर भारत में चुनाव सिर्फ़ मतदान नहीं, एक उत्सव है। और उत्सव में एक दाग भी सबका ध्यान खींच लेता है।
चुनाव आयोग को इस घटना को सिर्फ़ एक लापरवाही के रूप में न देखकर एक सीख के रूप में लेना चाहिए। हर राज्य में मॉक पोल पर्चियों के निस्तारण के लिए स्पष्ट प्रोटोकॉल बनाना ज़रूरी है। पारदर्शिता की प्रक्रिया तभी संपूर्ण होगी जब उसका संचार भी स्पष्ट होगा।
समस्तीपुर के लोग अब जवाब चाहते हैं — सिर्फ़ कानूनी नहीं, नैतिक भी। चुनाव आयोग को यह दिखाना होगा कि वह केवल नियम का पालनकर्ता नहीं, लोकतंत्र का रक्षक भी है।
और आख़िर में, यह याद रखना ज़रूरी है कि हर बार जब कोई EVM या VVPAT पर सवाल उठता है, तो वह सिर्फ़ मशीन पर नहीं बल्कि व्यवस्था पर सवाल होता है। यह हम सब की ज़िम्मेदारी है कि लोकतंत्र के इस भरोसे को किसी भी हाल में कमज़ोर न होने दें।







