
Uttarakhand Chief Minister Pushkar Singh Dhami said that this decision is a historic step towards making the education system in the state equal and modern.
उत्तराखंड शिक्षा सुधार: मदरसा बोर्ड अब इतिहास
राज्यपाल की मंजूरी से शिक्षा में नया अध्याय
📍देहरादून, 06 अक्टूबर 2025 ✍️ एस. आलम अंसारी
उत्तराखंड में शिक्षा के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक फ़ैसला लिया गया है। राज्यपाल ने अल्पसंख्यक शिक्षा विधेयक को मंजूरी दे दी है, जिसके बाद मदरसा बोर्ड अब इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। इस क़दम ने न सिर्फ़ राज्य की शिक्षा प्रणाली में हलचल पैदा की है बल्कि पूरे मुल्क में बहस छेड़ दी है कि आख़िरकार अल्पसंख्यक शिक्षा का भविष्य किस दिशा में आगे बढ़ेगा। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इसे “समान शिक्षा और समान अवसर” की ओर बढ़ता हुआ कदम बताया।
धामी सरकार का बड़ा कदम: समान शिक्षा व्यवस्था की ओर
उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में जहाँ आबादी अलग-अलग तबक़ों में बँटी हुई है, वहाँ शिक्षा हमेशा से एक चुनौती रही है। एक तरफ़ सरकारी स्कूल और इंटर कॉलेज हैं, दूसरी तरफ़ प्राइवेट और मिशनरी संस्थान, और तीसरी तरफ़ मदरसे। अब तक मदरसा बोर्ड इन संस्थानों को अलग पहचान देता रहा। लेकिन सवाल यह उठता रहा कि क्या यह तालीम बच्चों को उस दौर से जोड़ पा रही है जो उन्हें रोज़गार और बेहतर समाज की तरफ़ ले जाए?
सरकार ने कहा कि अलग बोर्ड की वजह से बच्चे मुख्यधारा से कट रहे थे। जॉब मार्केट में जब कंपटीशन बढ़ता है तो बच्चे बराबरी के मौक़े से महरूम रह जाते हैं। इसीलिए अब सभी अल्पसंख्यक संस्थानों को उत्तराखंड बोर्ड से संबद्ध होना ज़रूरी कर दिया गया है।
विधेयक का सार
इस विधेयक के लागू होते ही प्रदेश में चल रहे सभी मदरसों को उत्तराखंड अल्पसंख्यक शिक्षा प्राधिकरण से मान्यता लेनी होगी। साथ ही उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा परिषद से संबद्धता ज़रूरी होगी। यानी अब पाठ्यक्रम वही होगा जो राज्य के दूसरे स्कूलों में लागू है।
सरकार का ऐलान है कि जुलाई 2026 से हर अल्पसंख्यक स्कूल में राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और नई शिक्षा नीति के तहत तालीम दी जाएगी। इसका मतलब यह कि साइंस, मैथ्स, सोशल साइंस, कंप्यूटर और दूसरी आधुनिक विषयों के साथ-साथ धार्मिक और सांस्कृतिक अध्ययन भी रहेंगे लेकिन उनकी संरचना नई व्यवस्था के अनुरूप होगी।
राजनीतिक दृष्टिकोण
यह फ़ैसला केवल शैक्षिक नहीं बल्कि राजनीतिक भी है। एक तरफ़ सत्तारूढ़ पार्टी इसे “सबके लिए समान अवसर” के रूप में पेश कर रही है, तो दूसरी तरफ़ विपक्ष इसे “अल्पसंख्यकों की पहचान पर चोट” बता रहा है।
समर्थक तर्क देते हैं कि बच्चों को आधुनिक दौर के मुताबिक़ तैयार करना ज़रूरी है। जब टेक्नोलॉजी, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और ग्लोबल इकॉनमी में नौकरियों का दौर है, तो पुराने ढर्रे की तालीम बच्चों को पिछाड़ देगी।
मगर आलोचक कहते हैं कि यह क़दम अल्पसंख्यक समाज की सांस्कृतिक धरोहर और तालीमी पहचान को ख़तरे में डाल सकता है। उनका मानना है कि धार्मिक तालीम और आधुनिक तालीम को साथ लेकर चलना चाहिए, न कि एक को दूसरे पर हावी कर दिया जाए।
सामाजिक असर
यह फ़ैसला सबसे पहले उन बच्चों और उनके वालिदैन को प्रभावित करेगा जो अब तक मदरसों में पढ़ते आए हैं। बहुत से परिवारों को डर है कि उनकी परंपरागत तालीम खो जाएगी। वहीं, कई माता-पिता राहत की साँस भी ले रहे हैं कि अब उनके बच्चे भी वही डिग्री हासिल करेंगे जो दूसरे बच्चों के पास होगी।
किसी गाँव के किसान का बेटा जो अब तक सिर्फ़ दीनी तालीम तक सीमित था, अब डॉक्टर या इंजीनियर बनने का सपना भी देख सकता है। दूसरी तरफ़ वह बच्चा जिसकी पढ़ाई सिर्फ़ मज़हबी दायरे तक रहती थी, अब उसे समाजशास्त्र, साइंस और कम्प्यूटर की किताबें भी पढ़नी होंगी।
प्रशासनिक चुनौती
इस फ़ैसले को लागू करना आसान नहीं होगा। सबसे बड़ी चुनौती है — इंफ़्रास्ट्रक्चर। बहुत से मदरसे अब तक सीमित संसाधनों पर चलते आए हैं। न लैब, न लाइब्रेरी, न आधुनिक टीचर्स। सरकार को इन सब कमियों को दूर करना होगा।
दूसरी चुनौती है — टीचर ट्रेनिंग। अब तक मदरसे में पढ़ाने वाले उलेमा और मौलवी नए पाठ्यक्रम को कैसे अपनाएँगे? क्या सरकार उन्हें ट्रेनिंग देगी? अगर नहीं, तो नए टीचर्स की भर्ती करनी होगी।
आर्थिक पक्ष
सरकार का कहना है कि अल्पसंख्यक संस्थानों को बराबरी पर लाने के लिए ग्रांट्स और फ़ंडिंग भी दी जाएगी। लेकिन सवाल है कि क्या वाक़ई छोटे कस्बों और पहाड़ी इलाक़ों तक यह मदद पहुँचेगी? अगर यह व्यवस्था सिर्फ़ काग़ज़ों तक सीमित रह गई तो बच्चों का भविष्य वही रहेगा जहाँ आज है।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
उत्तराखंड इस फ़ैसले के साथ देश का पहला राज्य बन गया है जिसने मदरसा बोर्ड को समाप्त कर दिया। यह एक मॉडल के तौर पर देखा जा रहा है। अब नज़रें दूसरे राज्यों पर हैं कि क्या वे भी इसी रास्ते पर चलेंगे।
अगर यह प्रयोग सफल रहा तो मुल्क भर में शिक्षा के नक़्शे पर बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है। लेकिन अगर यह व्यवस्था असफल रही तो इससे समाज में और गहरी खाई पैदा हो सकती है।
धार्मिक और सांस्कृतिक विमर्श
समाज का एक बड़ा हिस्सा कह रहा है कि धार्मिक तालीम और आधुनिक तालीम में कोई टकराव नहीं है। दोनों का तालमेल संभव है। सवाल यह है कि सरकार इसे किस तरह से इम्प्लीमेंट करती है।
अगर धार्मिक विषयों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया तो अल्पसंख्यक तबक़ा इसे अपने अस्तित्व पर हमला मानेगा। लेकिन अगर दोनों को संतुलित तरीक़े से शामिल किया गया तो यह एक प्रगतिशील प्रयोग साबित हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय नज़र
दुनिया के बहुत से देशों में धार्मिक शिक्षा को मुख्यधारा के साथ जोड़कर पढ़ाया जाता है। ब्रिटेन में भी मदरसे हैं लेकिन बच्चे वहाँ इंग्लिश, मैथ्स और साइंस भी पढ़ते हैं। तुर्की में धार्मिक शिक्षा को नेशनल करिकुलम का हिस्सा बनाया गया है। यानी यह कोई असंभव काम नहीं है, बस नीयत और प्रबंधन पर निर्भर करता है।
निचोड़
उत्तराखंड सरकार का यह फ़ैसला न सिर्फ़ शिक्षा सुधार है बल्कि एक सामाजिक प्रयोग भी है। इसमें शक नहीं कि यह बच्चों को आधुनिक और समान अवसर देगा। लेकिन यह भी सच है कि इस प्रक्रिया में कई भावनात्मक और सांस्कृतिक चुनौतियाँ सामने आएँगी।
सरकार के लिए सबसे अहम होगा कि इस फ़ैसले को लागू करते वक़्त बच्चों, वालिदैन, और शिक्षकों सभी को विश्वास में लिया जाए। शिक्षा का मक़सद किसी पहचान को मिटाना नहीं बल्कि हर बच्चे को आगे बढ़ने का मौक़ा देना होना चाहिए।
अगर यह प्रयोग कामयाब हुआ तो उत्तराखंड वाक़ई नए भारत की शिक्षा दिशा तय करेगा। और अगर इसमें संतुलन न बना तो यह विवाद का एक और मुद्दा बन जाएगा।
नज़रिया
शिक्षा किसी भी समाज की रीढ़ होती है। एक ऐसा समाज जो अपने बच्चों को आधुनिक और बराबरी की तालीम नहीं देता, वह हमेशा पिछड़ जाता है। उत्तराखंड का यह फ़ैसला इतिहास रचेगा या विवाद पैदा करेगा, यह आने वाला समय बताएगा। लेकिन इतना तय है कि बहस अब शुरू हो चुकी है और इसका असर मुल्क की तालीमी सियासत पर ज़रूर पड़ेगा।




