
A visual representation of the Gaza Peace Plan and the new diplomatic consensus of Muslim countries
मुस्लिम राष्ट्रों का साझा मोर्चा और अमेरिकी रणनीति
हमास, इज़रायल और ट्रंप योजना: विकल्प और संकट ?
📍Middle East🗓️ 30 सितम्बर 2025✍️आसिफ़ ख़ान
गाज़ा शांति योजना पर आठ मुस्लिम देशों की सहमति मध्य पूर्व की राजनीति में ऐतिहासिक मोड़ है। लेकिन इस सहमति के भीतर गंभीर विरोधाभास और रणनीतिक दुविधाएं मौजूद हैं। यह विश्लेषण बताता है कि यह योजना वास्तविक शांति का मार्ग है या केवल संघर्ष प्रबंधन का औज़ार।
गाज़ा की तबाही, हमास का प्रतिरोध और इज़रायल की कठोर नीति पिछले कई वर्षों से मध्य पूर्व की राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है। अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा पेश की गई 20-सूत्रीय गाज़ा शांति योजना ने इस जटिल मसले को एक नया मोड़ दे दिया है। इस पहल को सऊदी अरब, जॉर्डन, मिस्र, क़तर, तुर्की, पाकिस्तान, इंडोनेशिया और यूएई जैसे आठ मुस्लिम देशों का सामूहिक समर्थन मिला। पहली नज़र में यह एक ऐतिहासिक सहमति लगती है। लेकिन गहराई में जाएँ तो कई विरोधाभास और दुविधाएँ साफ़ नज़र आती हैं।
सामरिक अवलोकन: नई सहमति का ढाँचा
यह योजना गाज़ा को “आतंक-मुक्त क्षेत्र” बनाने और मानवीय पुनर्निर्माण सुनिश्चित करने का दावा करती है। साथ ही इज़रायल की सुरक्षा चिंताओं को केंद्र में रखते हुए हमास से निरस्त्रीकरण की मांग करती है।
अरब मुल्कों का त्वरित समर्थन इस बात को दिखाता है कि क्षेत्रीय नेतृत्व अब “Status Quo” को और सहन करने की स्थिति में नहीं है। क़तर और तुर्की जैसे देश जो पहले इज़रायल के ख़िलाफ़ मज़बूत आवाज़ उठाते थे, अब इस पहल के हिस्सेदार बने हैं।
लेकिन सवाल यह है कि क्या यह genuine peace framework है या केवल “conflict management tool”?
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ट्रंप योजना की मुख्य धाराएँ
ट्रंप की योजना के तीन बड़े हिस्से हैं:
सुरक्षा – गाज़ा का de-radicalization और international peace board की तैनाती।
बंधक और कैदियों की अदला-बदली – इज़रायल के बंधकों की रिहाई और 2000 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी कैदियों की रिहाई।
आर्थिक पैकेज – 50 अरब डॉलर का “Peace to Prosperity” फंड, जिसका मक़सद रोज़गार, पुनर्निर्माण और विकास है।
योजना सुनने में आकर्षक है, लेकिन इसमें कई hidden layers भी हैं।
अरब देशों की शर्तें
आठों मुस्लिम देशों ने स्पष्ट कर दिया कि उनका समर्थन बिना शर्त नहीं है। उनके संयुक्त बयान में कहा गया कि—
फ़िलिस्तीनी लोगों का कोई विस्थापन नहीं होगा।
गाज़ा से इज़रायली सेना की पूर्ण वापसी होगी।
मानवीय मदद पर कोई रोक नहीं लगेगी।
दो-राज्य समाधान ही अंतिम रास्ता है।
यहाँ सबसे बड़ा अंतर यही है कि अरब मुल्क sovereignty की गारंटी चाहते हैं, जबकि इज़रायल केवल सुरक्षा की गारंटी चाहता है।
नेतन्याहू का रुख
इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने साफ़ किया कि इज़रायल निकट भविष्य में गाज़ा से पूरी तरह नहीं हटेगा। उनका कहना है कि सुरक्षा कारणों से इज़रायली फ़ौजें क्षेत्र में बनी रहेंगी।
यह बयान अरब देशों की शर्तों से सीधा टकराता है। यानी एक तरफ़ support दिख रहा है, दूसरी तरफ़ ground reality अलग है।
हमास की दुविधा
हमास के सामने सबसे कठिन फैसला यही है कि वह इस प्रस्ताव को माने या न माने।
अगर मान लेता है तो निरस्त्रीकरण उसकी राजनीतिक पहचान पर चोट होगी।
अगर नहीं मानता तो अमेरिका और इज़रायल के साथ-साथ आठ मुस्लिम मुल्क भी उसके ख़िलाफ़ खड़े होंगे।
क़तर और मिस्र के ज़रिए हमास को संदेश मिला है कि अगर वह “responsible partner” नज़र नहीं आया, तो गाज़ा में उसका राजनीतिक आधार और भी कमजोर हो जाएगा।
क्षेत्रीय राजनीति का गणित
हर देश का इस योजना को समर्थन करने का अपना national interest है।
यूएई अब्राहम समझौते को बचाना चाहता है।
सऊदी अरब Vision 2030 के लिए स्थिरता चाहता है।
पाकिस्तान आर्थिक दबाव के कारण अमेरिका और खाड़ी देशों का सहयोग चाहता है।
क़तर और तुर्की मध्यस्थ की भूमिका से अपनी relevance बनाए रखना चाहते हैं।
मिस्र शरणार्थियों के बोझ से बचना चाहता है।
यानी यह consensus शांति से ज़्यादा, हर देश के “strategic interests” का जोड़ है।
मानवीय संकट की परछाई
गाज़ा में अब तक हज़ारों जानें जा चुकी हैं, लाखों लोग विस्थापित हुए हैं। लोग कहते हैं— “सियासत अपनी जगह, लेकिन इंसानियत कहाँ है?”। यही वो दबाव है जिसने अरब देशों को मजबूर किया कि वे एक साझा मोर्चा बनाकर आगे आएँ।
योजना की वास्तविकता
विश्लेषकों की राय में यह शांति योजना दरअसल एक ceasefire management tool है। इसका immediate मक़सद है:
युद्ध रोकना
मानवीय मदद पहुँचाना
reconstruction शुरू करना
लेकिन “दो-राज्य समाधान” जैसे बड़े मुद्दे अब भी open-ended हैं।
नज़रिया
ट्रंप की गाज़ा शांति योजना ने मध्य पूर्व की भू-राजनीति में हलचल मचा दी है। पहली बार इतने मुस्लिम देश एक साथ इकट्ठे हुए, लेकिन असली सवाल अभी भी अनसुलझे हैं।
क्या हमास निरस्त्रीकरण मान लेगा?
क्या इज़रायल गाज़ा से वाक़ई हटेगा?
क्या अरब देशों की एकता टिक पाएगी?
Bottom line यही है—यह योजना स्थायी शांति की गारंटी नहीं, बल्कि एक “fragile pause” है। अगर इज़रायल और हमास दोनों अपनी शर्तों से पीछे न हटे, तो यह सहमति जल्द ही paper agreement बनकर रह जाएगी।




