
Nitish Kumar begins his 10th term as Bihar Chief Minister at a high-profile oath ceremony in Patna.
नीतीश कुमार की वापसी और रिकॉर्ड की जंग
📍पटना🗓️ 20 नवम्बर 2025✍️Asif Khan
नीतीश कुमार ने दसवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर बिहार की राजनीति में फिर एक नया अध्याय खोला। सवाल अब यह है कि क्या वे देश में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड तोड़ पाएंगे और क्या उनका यह कार्यकाल राजनीतिक स्थिरता, शासन की निरंतरता और जनता के भरोसे को नया मोड़ देगा।
बिहार की सियासत में फिर उभरे नीतीश, क्या बनेगा नया इतिहास
नीतीश कुमार का दसवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना सिर्फ एक राजनीतिक इवेंट नहीं था, बल्कि बिहार की सियासी ज़मीन पर चल रही उस लंबी जद्दोजहद का ताज़ा पड़ाव था, जिसने दो दशकों से राज्य की राजनीति को एक खास दिशा में मोड़ा है। गांधी मैदान में मौजूद भारी भीड़, एनडीए के बड़े नेता, प्रधानमंत्री की मौजूदगी और पूरे राज्य में फैला सियासी तापमान—सभी मिलकर यह एहसास करा रहे थे कि यह कोई साधारण पल नहीं है। मगर असली बहस कहीं और है। सवाल यह नहीं कि शपथ किस भव्यता से हुई, सवाल यह है कि इस दसवें कार्यकाल का असल मतलब क्या है।
यहीं से बात आगे बढ़ती है—क्या नीतीश कुमार वाक़ई उस मुकाम की तरफ बढ़ रहे हैं जहाँ वे भारत के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नेता बन सकते हैं? पवन चामलिंग का लगभग पच्चीस साल का रिकॉर्ड किसी भी सियासी शख्सियत के लिए आसान चुनौती नहीं, मगर बिहार की राजनीति की बुनावट कुछ ऐसी है कि यहाँ लंबी पारी खेलने वाले नेताओं के लिए हमेशा एक जगह निकल ही आती है।
यहाँ एक और बात समझनी होगी। बिहार की सियासत सिर्फ सत्ता के जोड़-तोड़ का खेल नहीं, बल्कि identity, governance और survival instincts का लगातार चलता रहने वाला इम्तिहान है। नीतीश कुमार ने 2005 से अब तक बार-बार खुद को इस खेल में फिर से फिट किया, अपनी narrative को बदला, alliances को बदला, priorities को बदला और कई बार आलोचना झेलते हुए भी political relevance को बरकरार रखा। यही वजह है कि आज उनका दसवां कार्यकाल किसी चमत्कार से कम नहीं दिखता।
लेकिन आइए, assumptions को चैलेंज करते हैं।
क्या सिर्फ लंबे समय तक सत्ता में बने रहना एक उपलब्धि है?
क्या यह continuity जनता को वो राहत देती है जिसकी उसे ज़रूरत है?
या यह सिर्फ एक सिस्टम की inertia है, जो पुरानी आदतों की वजह से बदलता नहीं?
यहाँ सच्चाई थोड़ी complex है। बिहार का socio-political landscape ऐसा है जहाँ अचानक बदलाव की उम्मीद कम ही रहती है। लोग stability चाहते हैं, मगर साथ ही governance की quality पर भी उनकी नज़र रहती है। यही वजह है कि जब एनडीए भारी बहुमत के साथ लौटा, तो संदेश साफ था—लोग chaos से दूर और predictable leadership की तरफ झुकाव रखते हैं। नीतीश कुमार इसी predictable leadership का चेहरा बन गए हैं, चाहे उनके alliances कितनी बार बदले हों।
मगर यहाँ एक counterpoint ज़रूरी है।
Predictability हमेशा positivity का पैमाना नहीं होती।
एक लंबी पारी governance की मजबूती दिखाती है, मगर कभी-कभी stagnation का संकेत भी बन जाती है।
यही वह जगह है जहाँ इस कार्यकाल की सबसे बड़ी परीक्षा छिपी है—क्या नीतीश अपने पिछले कार्यकालों की narrative को तोड़कर कोई नई दिशा देंगे? या वे उसी तार पर चलते रहेंगे जो बिहार को incremental progress देता है, लेकिन कोई big leap नहीं?
जनता का temperament देखते हैं तो साफ दिखता है कि लोग अब symbolism से ज़्यादा delivery चाहते हैं। युवाओं के पास examples हैं—दूसरे राज्यों में investment, jobs, infrastructure और governance models जैसे terms अब बिहार में रोज़ की चर्चा हैं। सोशल मीडिया का influence यह तय कर चुका है कि हर नागरिक comparison mode में रहता है। ऐसे में दसवां कार्यकाल किसी पुराने फॉर्मूले से नहीं चल सकता।
यहाँ एक और अहम बात—नीतीश कुमार की राजनीतिक शैली।
उनकी politics में एक खास fluidity है, एक तरह की flexibility जो उन्हें किसी भी equation में फिट कर देती है। Supporters इसे political wisdom कहते हैं, critics इसे political opportunism। मगर दोनों ही खेमे इस truth को मानते हैं कि नीतीश की adaptability ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है।
अब सवाल यह है कि क्या यह adaptability उन्हें पवन चामलिंग जैसा रिकॉर्ड दिलाएगी?
थियोरी कहती है—हाँ, संभव है।
Reality कहती है—यह बिहार की political stability और NDA की internal chemistry पर निर्भर करेगा।
इस editorial debate का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि नीतीश कुमार खुद कभी भी रिकॉर्ड को लेकर बात नहीं करते। शायद इसलिए कि records ambitions से नहीं, circumstances से बनते हैं। और बिहार की राजनीतिक circumstances जितनी तेज़ी से बदलती हैं, उतनी ही unpredictability भी पैदा करती हैं।
अब यह माना जा रहा है कि NDA का current mandate उन्हें एक breathing space देता है। मगर यह space टिकाऊ तभी होगी जब governance की ground perception सुधरे—law and order बेहतर दिखे, infra projects fast-track हों, और job creation को narrative नहीं, बल्कि actual priority दी जाए।
यह editorial यहीं तक नहीं रुकता।
पार्ट 2 में हम आगे बढ़ेंगे—
• बिहार की power equations
• Nitish vs National Politics
• NDA dynamics
• युवाओं के सवाल
• और क्या यह कार्यकाल बिहार के लिए turning point बन सकता है
बिहार की सत्ता का यह नया चरण सिर्फ एक राजनीतिक ritual नहीं, बल्कि एक बड़ी टेस्टिंग ग्राउंड है। जब कोई नेता दसवीं बार शपथ लेता है, तो यह सत्ता की continuity का इशारा तो देता है, लेकिन इसके साथ ही कुछ मुश्किल सवाल भी सामने रखता है—क्या leadership में वही freshness बची है? क्या governance की direction पहले जैसी focus वाली रहेगी? और क्या जनता के लिए कोई नई उम्मीदों का दरवाज़ा खुलेगा?
आइए पहले power equations को समझते हैं।
एनडीए की इस बार की जीत किसी एक फैक्टर से नहीं बनी। हिंदू-मुस्लिम social equation से लेकर caste arithmetic तक, सब कुछ तयशुदा pattern में नहीं था। बिहार का voter अब पहले से ज़्यादा unpredictable है। वह loyalty से ज़्यादा delivery में भरोसा करता है। यह बात समझना बेहद अहम है, क्योंकि एक लंबे समय तक सत्ता में रहने वाला नेता तभी टिकता है जब वह society की बदलती सोच को recognize करे और governance को उसी हिसाब से shape दे।
नीतीश कुमार का राजनीतिक सफर दो चीज़ों पर टिका है—administrative credibility और political adjustment। यह दोनों qualities उन्हें बार-बार वापसी का मौका दिलाती हैं। मगर adjustment politics का एक flip-side भी है। जब कोई नेता बार-बार alliances बदलता है, तो trust factor पर सवाल भी उठते हैं। बिहार की गली-मोहल्लों में इस बार भी discussion यही थी—नीतीश किसके साथ हैं, क्यों हैं और कितने दिनों के लिए हैं? यह सवाल उनकी leadership के साथ हमेशा चलता रहेगा, क्योंकि यह उनकी politics की built-in khasiyat है।
अब बात करते हैं national politics से उनके रिश्ते की।
कई बार माना गया कि नीतीश कुमार national stage पर एक बड़ा role निभा सकते थे, मगर timing और equations कभी favor में नहीं आईं। कभी विपक्षी unity बिखर गई, कभी NDA equations बदल गए, कभी अंदरूनी chemistry match नहीं हुई। यह भी सच है कि बिहार की जमीनी राजनीति ने उन्हें national ambitions को पूरी तरह शांत रखने नहीं दिया। यह editorial यही सवाल उठाता है—क्या उनका दसवां कार्यकाल national role की संभावना को फिर कहीं खुला छोड़ता है, या अब वे पूरी तरह state-centric leader के रूप में इतिहास लिखना चाहते हैं?
इस बिंदु पर एक counterpoint ज़रूरी है।
National politics में उतारने के लिए जिस aggression, clarity और long-term plan की ज़रूरत होती है, वह नीतीश कुमार की शैली में बहुत subtle तरीके से मौजूद है, मगर कभी overt नहीं दिखती। उनकी politics low-decibel है, consensus-driven है और conflict से बचने की कोशिश करती है। आज के भारत में national politics high-decibel, personality-driven और aggressive model पर चलता है। यह mismatch शायद उनके दायरे को सीमित रखता है।
अब NDA dynamics की बात कर लेते हैं।
इस बार की शपथ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी symbolic होने से ज़्यादा strategic थी। यह साफ संकेत है कि केंद्र और राज्य के equations इस बार काफी smooth और coordinated रहेंगे। केंद्र की मजबूत पकड़ और बिहार सरकार की dependency एक तरह का balance बनाती है, लेकिन इस balance में risk भी है। अगर dependency बहुत बढ़ी, तो state leadership की autonomy कमज़ोर दिख सकती है। अगर balance steady रहा, तो governance की delivery तेज़ होगी। यह दोनों possibilities genuine हैं और दोनों के अपने political implications हैं।
युवाओं की बात किए बिना यह editorial पूरा नहीं हो सकता।
आज बिहार का सबसे बड़ा सवाल infrastructure नहीं है, electricity नहीं है, roads नहीं हैं—यह सब बेहतर हुए हैं। सबसे बड़ा सवाल है नौकरी। बेरोज़गारी वह fire है जो किसी भी सरकार की credibility को challenge कर सकती है। कोई भी लंबी पारी तभी meaningful होती है जब youth को लगता है कि उनके लिए opportunities बन रही हैं। यही वह area है जहाँ नीतीश कुमार को सबसे बड़ी परीक्षा देनी पड़ेगी।
अगला सवाल—क्या यह कार्यकाल बिहार के लिए turning point बन सकता है?
Possibility है। बिहार के पास demographic edge है, skilled human resource है, academic culture है, और central support भी अब पहले से ज़्यादा उपलब्ध है। मगर बिहार की सबसे बड़ी challenge किसी एक policy में नहीं, बल्कि governance के execution model में है। Policies बनी भी हों, ground delivery कमजोर पड़ जाती है। यही वह जगह है जहाँ राजनीतिक leadership को अपने administrative strengths को फिर से sharp करना होगा।
अब मैं editorial के इस हिस्से को एक intellectual lens से देखता हूँ।
Leadership की longevity तभी meaningful बनती है जब leader खुद को परिस्थितियों से आगे रख पाए। अगर leadership सिर्फ reactions में चलती है, तो लंबी पारी खोखली दिखती है। अगर leadership state को future-ready बनाती है, तो लंबी पारी historical बन जाती है।
नीतीश कुमार किस दिशा में जा रहे हैं—यह अभी तय नहीं है।
दसवीं बार शपथ लेना कोई साधारण बात नहीं। मगर इससे भी बड़ा सवाल है कि अगले पाँच साल किस narrative में गुजरेंगे—status quo, या transformation?
इस editorial का निष्कर्ष अभी नहीं दिया जा रहा, क्योंकि पूरा anchor पार्ट 3 में रखूँगा, जहाँ analysis की अंतिम गांठें खुलेंगी और यह मूल्यांकन किया जाएगा कि क्या नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन के उस मुकाम पर पहुँच रहे हैं जहाँ वे भारतीय राजनीति में एक rare category—long-term stable chief ministers—के club में standing strengthen कर सकते हैं।
बात अब उस मुकाम पर आ चुकी है जहाँ हमें यह जांचना है कि नीतीश कुमार की यह दसवीं इनिंग क्या खोई हुई ऊर्जा की पुनरावृत्ति है या किसी नए राजनीतिक अध्याय का शुरुआती पन्ना। सत्ता में स्थिरता ज़रूर उनका सबसे बड़ा political capital है, लेकिन हर स्थिरता तभी टिकाऊ बनती है जब उसके पीछे कोई नया सोच-विचार, कोई ताज़ा narrative और कोई future-oriented vision मौजूद हो। यही वह बिंदु है जहाँ बिहार की राजनीति को आज सबसे ज्यादा clarity चाहिए।
पहले यह समझना ज़रूरी है कि बिहार की political psychology कैसे बदल रही है। आज का voter सिर्फ promises नहीं सुनता। वह result चाहता है, और वह भी measurable result। उसका comparison अब आसपास के राज्यों से नहीं, पूरे देश से चलता है। आज UP में कौन सा मॉडल काम कर रहा है, बंगाल में किस तरह की welfare structure run हो रही है, गुजरात में कौन से reforms तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं — बिहार का voter यह सब समझता है। ऐसे माहौल में किसी भी नेता की लंबी पारी तभी meaningful लगती है जब वह लगातार delivery को sharpen करे, न कि सिर्फ सत्ता के continuity पर निर्भर रहे।
यहाँ एक ईमानदार सवाल उठता है —
क्या नीतीश कुमार अपनी governance style को फिर से redefine करने में सक्षम होंगे?
उनका administrative record यह दिखाता है कि वे detail-oriented governance में माहिर हैं। Law-and-order की बहाली, सड़कें, बिजली, शिक्षा में सुधार — यह सब पहली तीन innings में बिहार को एक नई पहचान देने में कामयाब रहा। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनकी leadership reactive होती गई, proactive नहीं। यह gap बिहार की युवा आबादी को बार-बार चुभता है, क्योंकि youth की ज़िंदगी जवाबों से नहीं, अवसरों से चलती है।
उर्दू में कहते हैं, “नेतृत्व की असली परख तब होती है जब वह वक्त से आगे चलकर मंज़िलें तय कराए, ना कि हालात उसको घसीटकर ले जाएँ।”
यही वह कसौटी है जिस पर नीतीश कुमार को अपना दसवां अध्याय लिखना है।
अब हम बिहार के socio-economic realities पर नज़र डालते हैं।
राज्य में population pressure सबसे बड़ी structural challenge है।
Education में enrollment तो बढ़ा है, पर employability अभी भी कम है।
Migration एक तरह का silent verdict है — लोग घर छोड़कर काम की तलाश में दूसरे राज्यों को चुनते हैं। Migration गलत नहीं, लेकिन अगर यह मजबूरी बन जाए तो governance को introspect करना पड़ता है।
यही वह जगह है जहाँ Bihar को एक new-generation economic vision की ज़रूरत है।
कृषि सुधार, MSME growth, local clusters, healthcare overhaul, digital-skilling — यह सब Bihar की अगली छलांग के लिए अनिवार्य है।
अब सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार इन क्षेत्रों में कोई breakthrough दे सकते हैं?
Possibility है — लेकिन इसके लिए दो बदलाव ज़रूरी होंगे:
पहला: decision-making में speed.
दूसरा: central-government coordination का active use.
केंद्र और राज्य के बीच इस समय political synchronicity पहले से बेहतर है। यह advantage Bihar के लिए बहुत productive बन सकता है, अगर इसे कई key sectors में systematically invest किया जाए — जैसे connectivity corridors, industrial parks, medical hubs, dairy expansion, और tourism circuits। Bihar की सभ्यता, इतिहास, spiritual geography — यह सब tourism को एक global scale दे सकते हैं। मगर tourism सिर्फ heritage से नहीं चलता; उसे infrastructure, marketing, safety, और hospitality training की भी ज़रूरत होती है।
अब political stability पर आलोचनात्मक नज़र डालते हैं।
नीतीश कुमार को अक्सर opportunist कहा जाता है क्योंकि उन्होंने alliances कई बार बदले।
यह criticism पूरी तरह गलत भी नहीं, क्योंकि political switching किसी भी leader की credibility को dilute करता है। मगर इसका दूसरा पहलू भी है — उन्होंने हर alliance में governance को priority दी, और हर equation में अपनी administrative centrality बरकरार रखी। यह rare skill है। भारत की राजनीति में ऐसे leader कम हैं जो बार-बार political rearrangement के बावजूद state governance पर पकड़ बनाए रखें।
अब सवाल यह नहीं कि उन्होंने किसे छोड़ा या किसके साथ आए।
सवाल यह है कि यह बार किसलिए आए?
क्या सिर्फ सत्ता का extension, या कोई नया एजेंडा?
Editorial analysis का निष्कर्ष तभी meaningful है जब हम tough सवाल पूछें —
और शायद सबसे tough सवाल यही है:
क्या नीतीश कुमार इस बार अपनी leadership के अंतिम बड़े signature की तरफ बढ़ रहे हैं?
उनके पास समय कम है, लेकिन अनुभव बहुत है।
उनके पास political maturity गहरी है, लेकिन जन अपेक्षाएँ उससे भी ज़्यादा तीखी।
उनके पास governance का ढांचा मजबूत है, लेकिन execution की धार blunt हो चुकी है।
यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ एक बड़ा leader खुद को दोबारा reinvent कर सकता है — या status quo में खो सकता है।
यहाँ एक गहरी उर्दू लाइन स्थिति को perfectly capture करती है:
“लम्बी हुकूमतें अक्सर अपनी तामीर से नहीं, बल्कि अपनी ताज़गी की कमी से ढहती हैं।”
इसलिए सवाल यह नहीं कि नीतीश कुमार कितने साल CM रह चुके हैं।
सवाल यह है कि वे अगला एक साल कैसा दिखाएँगे।
अगर उन्होंने governance को हाई-गियर में डाला, youth-centric vision दिया, economic restructuring शुरू किया और political clarity रखी — तो वे न सिर्फ बिहार के सबसे लंबे serving CM, बल्कि देश के सबसे durable administrators की सूची में भी एक historical entry ले सकते हैं।
इसके उलट, अगर यह कार्यकाल routine और predictable चला, तो यह इनिंग लंबी तो होगी, पर यादगार नहीं।
अब आखिरी intellectual counterpoint:
क्या longevity खुद में achievement है?
या achievement तभी है जब longevity में continuity के साथ transformation भी जोड़ दिया जाए?
Leadership का scale इतिहास तय करता है, संख्या नहीं।
नीतीश कुमार इतिहास के किस पन्ने पर खड़े होंगे — यह फैसला अब उन्हीं के हाथ में है।
उनकी दसवीं शपथ उन्हें सिर्फ सत्ता में नहीं बैठाती;
उन्हें एक बहुत बड़े सवाल के केंद्र में खड़ा करती है।
क्या वे रिकॉर्ड बनाएँगे?
हाँ, संभव है।
लेकिन क्या वे Bihar को एक नए दौर में ले जाएँगे?
यही असली टेस्ट है।
और यही वह सवाल है जो बिहार की जनता, भारत की राजनीति, और इतिहास की आँखें —
सभी आने वाले सालों में नीतीश कुमार से पूछेंगी।




