
जब साहस ने तानाशाही से टकराया — नोबेल सम्मान मारिया मचाडो के नाम
लोकतंत्र की नई परिभाषा — वेनेजुएला से उठी उम्मीद की किरण
📍 ओस्लो, नॉर्वे
🗓️ 10 अक्टूबर 2025
✍️ आसिफ़ ख़ान
नोबेल शांति पुरस्कार 2025 वेनेजुएला की विपक्षी नेता मारिया कोरीना मचाडो को मिला है — लोकतंत्र की बहाली और शांतिपूर्ण संघर्ष के लिए।
यह सम्मान सिर्फ़ उनके लिए नहीं, बल्कि उन लाखों लोगों की आवाज़ के लिए है जो तानाशाही के साए में भी न्याय की उम्मीद नहीं छोड़ते।
उनकी जीत ने न सिर्फ़ वेनेजुएला की राजनीति में नई रोशनी भरी, बल्कि डोनाल्ड ट्रंप की उम्मीदों पर भी पर्दा डाल दिया।
मारिया कोरीना मचाडो: वेनेजुएला की ‘आवाज़’ जिसने तानाशाही को चुनौती देकर नोबेल शांति पुरस्कार जीता
मारिया कोरीना मचाडो का नाम अब केवल वेनेजुएला की सियासत तक सीमित नहीं रहा। वह उन शख्सियतों में शामिल हो चुकी हैं जिन्होंने ख़ामोशी के माहौल में सच बोलने की हिम्मत दिखाई। नॉर्वेजियन नोबेल कमेटी का यह फैसला दुनिया को यह याद दिलाता है कि असली ताक़त सत्ता में नहीं, सच कहने की हिम्मत में होती है।
मचाडो ने पिछले साल से छिपकर ज़िंदगी बिताई, गिरफ्तारी और हत्या की धमकियों के बावजूद देश नहीं छोड़ा।
उनका यह निर्णय किसी सियासी स्टेटमेंट से बढ़कर — एक नैतिक प्रतिरोध का प्रतीक है।
कमेटी ने सही कहा — “लोकतंत्र उन लोगों पर टिका है जो ख़ामोश रहने से इंकार करते हैं।”
यहां एक दिलचस्प तुलना उभरती है। डोनाल्ड ट्रंप, जो खुद को ‘पीसमेकर’ बताकर नोबेल की उम्मीद कर रहे थे, अब इस घोषणा के बाद आलोचना के घेरे में हैं। कई देशों के नेताओं ने ट्रंप का समर्थन किया था — पाकिस्तान से लेकर अज़रबैजान तक। मगर, नोबेल कमेटी ने स्पष्ट किया कि पुरस्कार किसी राजनीतिक सौदेबाज़ी का इनाम नहीं होता, बल्कि आत्मबल और सिद्धांतों की विजय का प्रतीक होता है।
मचाडो का संघर्ष उस दौर की याद दिलाता है जब भारत में आपातकाल के दौरान भी कुछ लोगों ने सच बोलने की हिम्मत दिखाई थी।
जैसे जयप्रकाश नारायण ने सत्ता के भय के बावजूद लोकतंत्र की लौ जलाए रखी, वैसे ही मचाडो ने वेनेजुएला में ‘आज़ादी की लौ’ को बुझने नहीं दिया।
उनकी राजनीति कोई चुनावी अभियान नहीं — बल्कि एक सामाजिक पुनर्जागरण की प्रक्रिया है।
उन्होंने चुनाव रद्द होने के बाद दूसरे विपक्षी उम्मीदवार एडमुंडो गोंज़ालेज़ का समर्थन किया।
यह कदम बताता है कि उनके लिए लोकतंत्र व्यक्ति नहीं, व्यवस्था की जीत है।
कमेटी का बयान —
“वेनेज़ुएला अब एक निर्दयी तानाशाही राज्य में बदल चुका है… जहाँ सत्ता कुछ लोगों की मुट्ठी में है और जनता भूख, डर और असमानता में जी रही है।”
यह वाक्य न केवल वेनेजुएला बल्कि दुनिया के उन देशों के लिए भी चेतावनी है जहाँ लोकतंत्र केवल कागज़ पर बचा है।
आज लगभग 80 लाख लोग देश छोड़ चुके हैं।
मगर इस पलायन के बीच मचाडो जैसी आवाज़ें उम्मीद की तरह गूंज रही हैं।
वो बताती हैं कि जब राजनीति बिक जाए, तो नैतिकता ही अंतिम शरण होती है।
डोनाल्ड ट्रंप का हारना कोई व्यक्तिगत पराजय नहीं, बल्कि पश्चिमी अहंकार की राजनीतिक हार है।
नोबेल कमेटी ने एक तरह से यह संदेश दिया है कि “लोकतंत्र किसी सुपरपावर की देन नहीं, बल्कि लोगों की सामूहिक चेतना का परिणाम है।”
🌏 वैकल्पिक दृष्टिकोण
कुछ आलोचक कह रहे हैं कि नोबेल कमेटी का निर्णय “राजनीतिक” है —
क्योंकि मचाडो स्पष्ट रूप से अमेरिका समर्थक हैं।
लेकिन सवाल यह नहीं कि वे किसके पक्ष में हैं, सवाल यह है कि उन्होंने किसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई —
तानाशाही, भ्रष्टाचार और राज्य प्रायोजित हिंसा के खिलाफ़।
यहां बहस यह भी हो सकती है कि क्या नोबेल पुरस्कार वास्तव में बदलाव ला सकता है?
शायद नहीं।
लेकिन यह एक वैचारिक प्रकाशस्तंभ है जो बताता है कि दुनिया अभी पूरी तरह अंधेरे में नहीं डूबी।
✨ नज़रिया
मारिया कोरीना मचाडो की जीत किसी देश की नहीं, बल्कि मानवता की जीत है।
उन्होंने दिखाया कि जब सत्ता बंदूक़ से डराती है, तब सच्चाई शब्दों से जवाब देती है।
उनका नाम इतिहास में सिर्फ़ एक नेता के रूप में नहीं, बल्कि एक प्रतीक के रूप में लिखा जाएगा —
“लोकतंत्र के लिए हिम्मत का दूसरा नाम — मचाडो।”






