
Opposition protests in Parliament over SIR issue, Kiren Rijiju cites rules – Shah Times
सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित, संसद में SIR पर रोक
SIR पर संसद में चर्चा क्यों नहीं हो सकती? किरण रिजिजू का संवैधानिक तर्क
केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि SIR पर संसद में चर्चा नहीं हो सकती क्योंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। जानिए पूरी राजनीतिक पृष्ठभूमि।
SIR पर संसद में चर्चा से इनकार: नियम, राजनीतिक टकराव और लोकतांत्रिक मर्यादा पर सवाल
लोकतांत्रिक मंच पर उठता एक संवेदनशील सवाल
भारतीय संसद का मौजूदा मानसून सत्र एक बार फिर तीखे राजनीतिक विरोध और गरमागरम बहसों के कारण सुर्खियों में है। इस बार विवाद का केंद्र है SIR यानी “Special Intensive Revision”—मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया। बिहार में चल रही इस प्रक्रिया पर विपक्ष को आपत्ति है, जिसे लेकर संसद के दोनों सदनों में तीखा विरोध दर्ज किया गया। इस बीच केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू का यह बयान कि “SIR पर चर्चा संसद में नहीं हो सकती” ने पूरे घटनाक्रम को नई दिशा दे दी है।
क्या है SIR और विपक्ष क्यों कर रहा है विरोध?
SIR यानी विशेष गहन पुनरीक्षण चुनाव आयोग द्वारा समय-समय पर मतदाता सूची को अपडेट करने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया आम तौर पर निष्पक्ष और तकनीकी मानी जाती है, लेकिन बिहार में चल रही SIR प्रक्रिया को लेकर विपक्षी दलों को यह आशंका है कि इसके माध्यम से कुछ वर्गों को मतदाता सूची से जानबूझकर बाहर किया जा सकता है।
विपक्ष की मुख्य आपत्तियां हैं:
पारदर्शिता की कमी
जनसंख्या के चयनात्मक बहिष्कार की आशंका
केंद्र सरकार की भूमिका पर संदेह
इन्हीं मुद्दों को लेकर कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने संसद में जोरदार विरोध किया और सदनों की कार्यवाही को बार-बार बाधित किया।
केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू का बयान: नियमों का हवाला
बुधवार को लोकसभा में किरण रिजिजू ने स्पष्ट रूप से कहा कि SIR प्रक्रिया पर संसद में चर्चा नहीं हो सकती क्योंकि यह मामला वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। संसद के नियमों के अनुसार, न्यायालय में लंबित मामलों पर चर्चा की अनुमति नहीं होती।
उन्होंने यह भी जोड़ा कि:
चुनाव आयोग एक स्वायत्त संस्था है और उसके कार्यों पर सीधी संसदीय बहस संभव नहीं।
संवैधानिक प्रावधानों और सदन की मर्यादा के अनुसार, ऐसे विषयों पर चर्चा को अनुमति देना नियम विरुद्ध होगा।
यहां एक बड़ा सवाल उठता है—क्या संवैधानिक नियमों की आड़ में सरकार विपक्ष की आवाज दबा रही है, या फिर विपक्ष संसद की गरिमा को आंदोलन का मंच बनाकर लोकतंत्र की मूल भावना को नुकसान पहुंचा रहा है?
लोकसभा में लगातार हंगामा: कामकाज बाधित
बुधवार को जैसे ही लोकसभा की कार्यवाही दोपहर 2 बजे दोबारा शुरू हुई, विपक्ष ने SIR के मुद्दे पर हंगामा शुरू कर दिया। सदन में नारेबाजी और शोरगुल के बीच कार्यवाही बार-बार स्थगित होती रही। विपक्ष की मांग थी कि चुनाव आयोग की संशोधित सूची पर विस्तृत चर्चा हो।
रिजिजू ने संसद में यह भी कहा—
“क्या आप सदन के नियम तोड़ना चाहते हैं? क्या आप देश के संविधान को चुनौती देना चाहते हैं?”
यह बयान विपक्ष पर सीधा हमला था, और उसके जवाब में विपक्ष के सांसदों ने नारेबाजी और जोरदार विरोध जारी रखा, जिससे सदन की कार्यवाही पूरे दिन के लिए स्थगित कर दी गई।
राज्यसभा में टकराव: संसदीय मर्यादा खतरे में
राज्यसभा की कार्यवाही भी विपक्ष के विरोध से अछूती नहीं रही। दोपहर दो बजे जैसे ही सत्र शुरू हुआ, टीएमसी और अन्य विपक्षी दलों के सांसद वेल में आकर नारेबाजी करने लगे। इसी बीच टीएमसी सांसद ममता बाला ठाकुर सभापति की ओर बढ़ने लगीं, जिसके बाद महिला मार्शलों को बुलाना पड़ा।
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यह दृश्य भारतीय संसद की गरिमा को चुनौती देता है। जहां एक ओर विपक्ष अपनी बात रख रहा है, वहीं उसका तरीका संसदीय परंपराओं के विरुद्ध प्रतीत होता है।
सत्ता बनाम विपक्ष: नियमों की व्याख्या में अंतर
राज्यसभा में नेता विपक्ष ने सदन के संचालन में पक्षपात का आरोप लगाया। उनका कहना था कि—
“नियम एक जैसे होने चाहिए। यदि एक पक्ष को बोलने की अनुमति है, तो दूसरे पक्ष को भी समान अधिकार मिलना चाहिए।”
इसके जवाब में नेता सदन जेपी नड्डा ने कहा—
“जो लोग सदन में लगातार व्यवधान उत्पन्न कर रहे हैं, उन्हें प्वाइंट ऑफ ऑर्डर की बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।”
नड्डा का यह बयान यह दर्शाता है कि सत्ता पक्ष यह मान रहा है कि विपक्ष का विरोध विधान और संसदीय नियमों के विरुद्ध है, जबकि विपक्ष इसे लोकतांत्रिक अधिकार मान रहा है।
हंगामे के बीच बिल पास: लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर प्रश्न
विपक्ष के हंगामे के बीच भी राज्यसभा में कार्यवाही जारी रही और “समुद्र में माल वहन विधेयक 2025” को ध्वनि मत से पारित कर दिया गया। यह घटना दर्शाती है कि हंगामे के बावजूद विधायी प्रक्रिया चल रही है, लेकिन इसमें गंभीर बहस और विमर्श की अनुपस्थिति लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है।
विपक्ष के कई सांसद, जिन्हें इस विधेयक पर बोलना था, अपनी सीट पर जाकर केवल SIR की चर्चा की मांग करते रहे। इससे न केवल सदन की कार्यशीलता प्रभावित हुई, बल्कि बिल की गुणवत्ता और जनहित पर भी प्रश्नचिह्न लग गया।
संसदीय मर्यादा बनाम राजनीतिक रणनीति: कौन सही?
इस पूरे घटनाक्रम में दो ध्रुव साफ नजर आते हैं—
विपक्ष—जो SIR जैसे संवेदनशील मुद्दे पर चर्चा चाहता है और इसे लोकतांत्रिक अधिकार मानता है।
सत्तापक्ष—जो संवैधानिक नियमों और न्यायिक प्रक्रिया की दुहाई देते हुए चर्चा से इनकार कर रहा है।
यह स्थिति संसद को राजनीतिक संघर्ष का अखाड़ा बना रही है, जबकि उसे एक नीतिगत विमर्श का मंच होना चाहिए।
निष्कर्ष: क्या लोकतांत्रिक संवाद की जगह खत्म हो रही है?
SIR पर संसद में बहस हो या न हो, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने एक बड़ा प्रश्न खड़ा कर दिया है—क्या संसद अब केवल सत्ता और विपक्ष के बीच संघर्ष का केंद्र बनकर रह जाएगी, या फिर यह जनता के मुद्दों पर नीतिगत चर्चा का मंच बनेगी?
सत्तापक्ष को चाहिए कि वह संवाद के लिए रास्ता खोले, और अगर नियम चर्चा की अनुमति नहीं देते, तो जनता को स्पष्ट रूप से यह बताएं कि मामला सुप्रीम कोर्ट में क्या है, और क्या यह चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है।
विपक्ष को भी चाहिए कि वह संसदीय मर्यादाओं का पालन करते हुए नियमों के भीतर अपनी बात रखे, ताकि लोकतंत्र की मूल भावना—विचार और विमर्श—बनी रहे।