
Legendary playback singer Mukesh, remembered on his death anniversary
मुकेश की पुण्यतिथि: सुरों और इंसानियत की अनोखी दास्तान
दिल से दिल तक: मुकेश की आवाज़ क्यों आज भी जिंदा है
मुकेश की पुण्यतिथि पर याद: तीन दशक तक 200 से अधिक फिल्मों में गाए नग़्मे, फ़िल्मफेयर व राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित, संगीत और इंसानियत का बेमिसाल सफ़र।
Mumbai, (Shah Times) । मुंबई की सरज़मीन ने भारतीय सिनेमा को कई महान कलाकार दिए, मगर “दर्द भरे नग़्मों के बेताज बादशाह” कहे जाने वाले मुकेश का मुक़ाम हमेशा अलग रहा। उनकी आवाज़ में वह नर्मी थी जो सीधे दिल को छू जाती थी। मुकेश सिर्फ़ गायक ही नहीं बल्कि इंसानियत की मिसाल भी थे। आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उनके कलात्मक सफ़र, संवेदनशील इंसानियत और भारतीय संगीत में उनकी स्थायी विरासत को याद करते हैं।
मुकेश: एक संवेदनशील कलाकार
मुकेश के गाए नग़्मों में दर्द और मोहब्बत की दास्तान मिलती है। मगर यह सिर्फ़ उनके सुरों में नहीं, बल्कि उनकी ज़िंदगी में भी झलकता था। एक मशहूर वाक़या है जब एक बीमार लड़की ने इच्छा जताई कि अगर मुकेश उसे गाकर सुनाएँ तो वह ठीक हो जाएगी। लोगों ने कहा कि मुकेश इतने बड़े गायक हैं, वह समय कहाँ देंगे और इतना खर्च कैसे होगा। लेकिन जब यह बात मुकेश तक पहुँची तो वे तुरंत अस्पताल पहुँचे, लड़की को गाना सुनाया और उसके चेहरे की मुस्कान देखकर बोले—”इस बच्ची को जितनी खुशी मिली है, उससे कहीं ज़्यादा ख़ुशी मुझे मिली है।”
यह वाक़या बताता है कि मुकेश सिर्फ़ आवाज़ ही नहीं बल्कि एक संवेदनशील दिल वाले इंसान थे।
शुरुआती जीवन और प्रेरणा
मुकेश चंद माथुर का जन्म 22 जुलाई 1923 को दिल्ली में हुआ। पिता लाला जोरावर चंद माथुर इंजीनियर थे और चाहते थे कि बेटा उसी राह पर चले। मगर मुकेश के दिल में गायक-अभिनेता बनने का ख़्वाब पल रहा था। वह अपने दौर के दिग्गज कुंदनलाल सहगल के दीवाने थे।
दसवीं तक पढ़ाई करने के बाद उन्होंने दिल्ली लोक निर्माण विभाग में नौकरी कर ली। लेकिन तक़दीर ने रास्ता बदला। एक शादी में गीत गाते हुए उनकी आवाज़ मशहूर अभिनेता मोतीलाल तक पहुँची। मोतीलाल ने मुकेश को मुंबई बुलाया और संगीत की तालीम दिलाई।
फिल्मी सफ़र की शुरुआत
साल 1941 में मुकेश को पहली बार निर्दोष फिल्म में गाने और अभिनय का मौक़ा मिला। लेकिन शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं। असली पहचान तब मिली जब 1945 में फिल्म पहली नज़र में अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में “दिल जलता है तो जलने दो” गाया।
यह गीत सहगल के अंदाज़ में गाया गया था। सहगल ने सुनकर कहा—”मुझे याद नहीं कि मैंने ये गीत कब गाया।” यह उनकी आवाज़ की ताक़त का सबूत था। सहगल ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
आज का शाह टाइम्स ई-पेपर डाउनलोड करें और पढ़ें
अपना अंदाज़ और असली पहचान
हालांकि मुकेश लंबे समय तक सहगल की शैली से प्रभावित रहे, लेकिन 1948 में नौशाद के संगीत निर्देशन में बनी फिल्म अंदाज़ से उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई। इसके बाद उनका सफ़र कभी नहीं रुका।
1958 में फिल्म यहूदी का गीत “ये मेरा दीवानापन है” उनकी आवाज़ में गूंजा और लाखों दिलों की धड़कन बन गया। इसके बाद राज कपूर के साथ उनकी जोड़ी ने बॉलीवुड संगीत को नए मुक़ाम पर पहुँचा दिया।
मुकेश और राज कपूर: दोस्ती और सुरों का संगम
राज कपूर और मुकेश का रिश्ता महज़ गायक और अभिनेता का नहीं बल्कि गहरी दोस्ती का था। राज कपूर की फ़िल्मों में मुकेश की आवाज़ हीरो की आत्मा बन जाती थी।
“आवारा हूँ”, “जीना यहाँ मरना यहाँ”, “कभी कभी मेरे दिल में”, और “सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं” जैसे गीत आज भी उसी ताजगी से गाए जाते हैं।
जब 1976 में अमेरिका में कंसर्ट के दौरान दिल का दौरा पड़ने से मुकेश का निधन हुआ तो राज कपूर ने कहा—
“मुकेश के जाने से मेरी आवाज़ और आत्मा दोनों चली गईं।”
सम्मान और पुरस्कार
मुकेश ने अपने तीन दशक लंबे करियर में 200 से अधिक फिल्मों के लिए गाया।
चार बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार जीता।
1974 में फिल्म रजनीगंधा के गीत “कई बार यूँही देखा है” के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
उनकी आवाज़ को दर्शकों ने इतना अपनाया कि उन्हें सिर्फ़ गायक नहीं बल्कि “दिलों की आवाज़” कहा गया।
विश्लेषण: मुकेश की गायकी की ख़ासियत
भावनाओं की गहराई
मुकेश की आवाज़ में बनावटीपन नहीं था। वह सीधे दिल की गहराइयों से गाते थे। यही वजह है कि श्रोता उनके गीतों में अपना दर्द और मोहब्बत महसूस करते थे।
मोहब्बत और दर्द का संगम
जहाँ रफ़ी साहब खुशियों और रफ़्तार के गायक थे, वहीं मुकेश दर्द और संवेदनशीलता के प्रतीक बने। उनकी गायकी इंसानियत की दास्तान सुनाती थी।
इंसानियत का चेहरा
गायकी से अलग, इंसान के रूप में भी मुकेश ने कई लोगों की मदद की। वह शोहरत और पैसे से ऊपर उठकर इंसानियत को अहमियत देते थे।
आलोचनात्मक दृष्टि
कुछ आलोचकों का कहना है कि मुकेश की आवाज़ का दायरा सीमित था। वह ऊँचे सुरों में उतनी सहजता से नहीं गा पाते थे जितना मोहम्मद रफ़ी या किशोर कुमार। मगर यही उनकी विशेषता भी बनी—उन्होंने कभी अपनी सीमा से बाहर जाकर बनावटी गायकी नहीं की।
निष्कर्ष
मुकेश सिर्फ़ एक गायक नहीं थे, वह मोहब्बत, दर्द और इंसानियत की आवाज़ थे। उनकी गायकी आज भी करोड़ों दिलों में जीवित है।
उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करना सिर्फ़ संगीत की परंपरा को सलाम करना नहीं बल्कि उस इंसानियत को सलाम करना है जिसने शोहरत के बीच भी इंसान बने रहना चुना।