
बसपा का आंतरिक संघर्ष: समसुद्दीन राइन का निष्कासन और मायावती की रणनीति
📍लखनऊ 🗓️23 अक्टूबर 2025👇Asif Khan
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने अपने यूपी अध्यक्ष विश्वनाथ पाल के माध्यम से समसुद्दीन राइन पर अनुशासनहीनता और गुटबाजी के आरोप लगाते हुए उन्हें पार्टी से निष्कासित किया है। यह कदम आगामी विधानसभा चुनावों से पहले पार्टी के भीतर एकता स्थापित करने की कोशिश माना जा रहा है। इस लेख में हम विश्लेषण करेंगे कि यह फैसला क्यों लिया गया, इसके राजनीतिक मायने क्या हैं, और इसके असर की गहराई क्या हो सकती है।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने हाल ही में एक बड़ा राजनीतिक कदम उठाया है। लखनऊ-कानपुर मंडल प्रभारी समसुद्दीन राइन को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। कारण बताए गए हैं — अनुशासनहीनता और गुटबाजी की शिकायतें।
यह कदम अचानक नहीं है। पत्र में यह कहा गया है कि उन्हें पहले भी चेतावनी दी गई थी, लेकिन सुधार नहीं हुआ। इस तरह का निष्कासन यह बताता है कि मायावती नेतृत्व अब “तैयार नहीं है” ऐसे नेताओं के लिए जो पार्टी की रणनीति या लाइन से अलग चलें।
लेकिन सवाल उठता है कि यह सिर्फ अनुशासन का मामला है, या इसमें एक सन्देश भी छिपा है — कि आने वाले चुनावों में बसपा अकेले मैदान में उतरेगी और उसे अंदरूनी विरोध या अलग सोच की जगह नहीं देगी।
राजनीतिक पृष्ठभूमि
बसपा का इतिहास गठबंधन-रणनीति के साथ जुड़ा रहा है। लेकिन पिछले अनुभवों ने मायावती को ऐसा सोचने पर मजबूर किया है कि गठबंधन में उसका फायदा नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने साफ कर दिया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी अकेले लड़ेगी।
इस निष्कासन को उसी लॉजिक से देखा जाना चाहिए। यदि कोई नेता मंडल-स्तर पर अलग सोच दिखाए, या स्थानीय रूप से अधिक प्रभाव रखता हो, तो वह गठबंधन की और राष्ट्रीय विचारधारा की दिशा से अलिप्त महसूस हो सकता है। समसुद्दीन राइन की निष्कासन की घटना इस संदर्भ में बताती है कि मायावती अपनी पार्टी को केंद्रीकृत नियंत्रण देना चाहती हैं।
असर और चुनौती
यह कदम पार्टी के लिए दो तरह से असर कर सकता है:
एकता और नियंत्रण मजबूत करना
निष्कासन से सन्देश गया है कि बसपा के भीतर किसी भी तरह की फूट-फूट की राजनीति बर्दाश्त नहीं की जाएगी। इस कदम से स्थानीय इकाइयां यह समझ सकती हैं कि उन्हें पार्टी हाई-लाइन के अनुरूप काम करना होगा, और अलग रहते हुए कोई बड़ी गतिविधि नहीं कर पायेंगे।
भविष्य की चुनौती
दूसरी ओर, इस तरह का कठोर फैसला बेस या Grassroots स्तर पर नाराज़गी पैदा कर सकता है। अगर स्थानीय कार्यकर्ता को लगता है कि उनकी आवाज़ दब रही है, या खासकर मुस्लिम प्रमाणित इलाके में किसी नेता की निष्कासन का असर समुदाय पर पड़ेगा, तो विरोध की चिंगारी भी हो सकती है।
उदाहरण के लिए किसी मंडल का प्रभारी स्थानीय सामाजिक-सांस्कृतिक संतुलन बनाए रखता हो — उसकी निष्कासन से स्थानीय समर्थक असमंजस में पड़ सकते हैं।
मायावती का यह फैसला राजनीतिक दृष्टि से समझने योग्य है: चुनाव आने वाला है, समय कम है, और पार्टी को अंदरूनी झटकों से बचाना है। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि बसपा अब “लचीली रणनीति” से हटकर “कड़ी नियंत्रण रणनीति” की ओर बढ़ रही है।
यदि यह कदम सफल रहा, तो पार्टी का संदेश साफ रहेगा कि नेतृत्व के निर्णयों में कोई ढील नहीं होगी। लेकिन यदि स्थानीय खांचे में असहमति या हताशा बढ़ी, तो यह कदम वोट बैंक पर असर डाल सकता है।
आगे यह देखने की बात होगी कि अन्य मंडलों या स्थानीय इकाइयों की प्रतिक्रिया क्या होगी, और समसुद्दीन राइन के हटने के बाद उस जिले या मंडल में कौन अपनी पकड़ बनाएगा।




