
Rahul Gandhi vs Election Commission: Political war erupts over alleged irregularities in voter list – Shah Times
इंडिया गठबंधन का बड़ा दांव: क्या मुख्य चुनाव आयुक्त पर महाभियोग संभव है?
क्या CEC ज्ञानेश कुमार के खिलाफ विपक्ष का महाभियोग प्रस्ताव सफल होगा?
राहुल गांधी और चुनाव आयोग में टकराव बढ़ा। इंडिया गठबंधन मुख्य चुनाव आयुक्त पर महाभियोग की तैयारी में। क्या लोकतंत्र में नया मोड़ आएगा?
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में चुनाव आयोग की भूमिका हमेशा से ही केंद्रीय और निर्णायक रही है। परन्तु जब इस संस्था की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं, तो न सिर्फ़ चुनाव की विश्वसनीयता पर बल्कि पूरे लोकतांत्रिक ढाँचे पर गंभीर असर पड़ता है। हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी और मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) ज्ञानेश कुमार के बीच जो टकराव उभर कर सामने आया है, उसने इसी सवाल को नया आयाम दिया है।
राहुल गांधी का दावा है कि लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान महाराष्ट्र, कर्नाटक और हरियाणा में बड़े पैमाने पर “वोट चोरी” हुई। दूसरी तरफ़ CEC ने इन आरोपों को बेबुनियाद बताते हुए कहा कि यह संविधान का अपमान है। अब विपक्ष इंडिया गठबंधन महाभियोग प्रस्ताव की तैयारी कर रहा है। सवाल यह है कि क्या यह कदम सिर्फ़ राजनीतिक रणनीति है या लोकतांत्रिक संस्थाओं की पारदर्शिता और स्वतंत्रता पर एक गंभीर विमर्श की शुरुआत?
राहुल गांधी का इल्ज़ाम और विपक्ष का तेवर
राहुल गांधी ने साफ़ शब्दों में इल्ज़ाम लगाया कि निर्वाचन आयोग ruling BJP के पक्ष में काम कर रहा है और मतदाता सूची में हेराफेरी करवा रहा है। उन्होंने विशेष रूप से बेंगलुरु सेंट्रल के महादेवपुरा क्षेत्र का ज़िक्र किया जहाँ उनके अनुसार 1 लाख से ज़्यादा वोटों की चोरी हुई।
विपक्ष के लिए यह मुद्दा सिर्फ़ चुनाव परिणाम तक सीमित नहीं है बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पवित्रता से जुड़ा है। इंडिया गठबंधन के कई दल अब खुलकर कह रहे हैं कि चुनाव आयोग की credibility पर जनता का भरोसा डगमगा रहा है।
यह मसला “इंतिख़ाबी अमानत” और “क़ौमी एहतिसाब” का है। यानी चुनाव एक अमानत हैं जो पूरे मुल्क की आवाम के भरोसे पर खड़ी होती है। अगर उसमें शक-शुब्हा पैदा हो तो जम्हूरियत की बुनियाद हिलने लगती है।
चुनाव आयोग का जवाब और CEC का रुख़
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने राहुल गांधी के आरोपों को पूरी तरह खारिज किया। उनका कहना है कि “मतदाता सूची संशोधन का मक़सद सिर्फ़ खामियों को दूर करना है, न कि किसी पार्टी को फ़ायदा पहुँचाना।”
दिल्ली में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने राहुल गांधी को चुनौती देते हुए कहा कि या तो वे शपथपत्र देकर आरोप साबित करें वरना पूरे देश से माफ़ी माँगें।
यह बयान इस पूरे विवाद को और तीखा बना देता है, क्योंकि यहाँ सवाल सिर्फ़ तथ्यों का नहीं बल्कि संवैधानिक संस्थाओं की साख का है।
महाभियोग की प्रक्रिया और संवैधानिक प्रावधान
अब विपक्ष जिस राह पर बढ़ रहा है — यानी CEC के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव — वह बेहद पेचीदा और कठिन है।
संविधान का अनुच्छेद 324(5): CEC को हटाने की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के जज की तरह ही है।
अनुच्छेद 124(4) और न्यायाधीश जांच अधिनियम 1968 लागू होते हैं।
प्रस्ताव तभी लाया जा सकता है जब लोकसभा के कम से कम 100 या राज्यसभा के 50 सदस्य हस्ताक्षर करें।
इसके बाद स्पीकर/चेयरमैन तीन-सदस्यीय जांच समिति गठित करते हैं जिसमें सुप्रीम कोर्ट का जज, हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश और एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता शामिल होता है।
समिति की जांच में अगर “सिद्ध दुर्व्यवहार” या “अक्षमता” साबित होती है तभी प्रस्ताव संसद में रखा जाएगा।
दोनों सदनों में विशेष बहुमत से प्रस्ताव पास होना चाहिए।
अंततः राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद ही CEC को पद से हटाया जा सकता है।
“The process is not political but quasi-judicial in nature, making it extremely rare and difficult to implement.”
विपक्ष की रणनीति बनाम हक़ीक़त
राजनीतिक नज़रिए से देखा जाए तो विपक्ष का यह कदम दोहरी रणनीति का हिस्सा है:
सियासी दबाव (Political Pressure): CEC पर लगातार हमले करके बीजेपी को घेरना और जनता के बीच यह narrative बनाना कि चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं है।
क़ानूनी जंग (Legal Battle): महाभियोग प्रस्ताव लाकर संवैधानिक स्तर पर मुद्दे को उठाना, भले ही उसके पास होने की संभावना बेहद कम क्यों न हो।
हक़ीक़त यह है कि संसद में बीजेपी और उसके सहयोगियों के पास पर्याप्त संख्या बल है। ऐसे में महाभियोग प्रस्ताव के पास होने की संभावना लगभग नामुमकिन है। मगर विपक्ष को शायद इसी की तलाश है — यानी जनता के बीच यह संदेश कि “हमने कोशिश की, मगर सत्ता ने रोक दिया।”
भारतीय लोकतंत्र पर असर
यह विवाद सिर्फ़ एक व्यक्ति (CEC) या एक नेता (राहुल गांधी) का नहीं है। यह मसला उस भरोसे का है जिस पर भारत का लोकतंत्र टिका है।
अगर मतदाता सूची और चुनाव प्रक्रिया पर जनता का यक़ीन कमज़ोर पड़ता है तो लोकतंत्र की बुनियाद हिल जाएगी।
अगर विपक्ष हर हार को “वोट चोरी” बताने लगे तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर लगातार सवाल खड़े होंगे।
अगर चुनाव आयोग वास्तव में पारदर्शी नहीं है, तो यह लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है।
“लोकतंत्र का तक़ाज़ा है कि चुनाव न सिर्फ़ साफ़-सुथरे हों बल्कि साफ़-सुथरे नज़र भी आएं।”
संतुलित नज़रिया
इस पूरे मसले पर संतुलित नज़रिया यही कहता है कि:
राहुल गांधी और विपक्ष को अपने दावों के ठोस सबूत जनता के सामने रखने होंगे। सिर्फ़ इल्ज़ाम लगाने से बात नहीं बनेगी।
चुनाव आयोग को भी अपनी पारदर्शिता और निष्पक्षता को साबित करने के लिए proactive कदम उठाने होंगे।
संसद और न्यायपालिका को यह देखना होगा कि कहीं राजनीतिक टकराव संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को नुकसान न पहुँचा दे।
भारतीय लोकतंत्र की असली ताक़त उसकी संस्थाओं की मजबूती में है। चुनाव आयोग उन्हीं संस्थाओं में सबसे अहम है। जब उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं, तो लोकतंत्र का संतुलन डगमगाता है।
राहुल गांधी बनाम CEC का यह टकराव आने वाले समय में भारतीय राजनीति का बड़ा मुद्दा बन सकता है। लेकिन असली सवाल यही रहेगा कि क्या हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं को राजनीति से ऊपर रख पाएंगे?
क्योंकि अंततः लोकतंत्र सिर्फ़ चुनाव जीतने-हारने का नाम नहीं है, बल्कि जनता के भरोसे और संस्थाओं की ईमानदारी का आईना है।