
मुस्लिम धर्मगुरुओं के साथ RSS प्रमुख मोहन भागवत की बैठक
RSS का मुस्लिमों से संवाद: एक दिखावा या असली बदलाव?
हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयास में RSS की नई चाल?
RSS प्रमुख मोहन भागवत ने मुस्लिम धर्मगुरुओं से मिलकर सामाजिक दूरी कम करने की कोशिश की। क्या यह पहल जमीनी बदलाव ला पाएगी?
New Delhi (Shah Times ) । भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में सामाजिक समरसता और आपसी सौहार्द की पहलें हमेशा स्वागत योग्य रही हैं। खासकर जब पहल उस संगठन के शीर्ष नेतृत्व द्वारा हो जो लंबे समय तक एक खास वैचारिक धारा के साथ जोड़ा गया हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत की मुस्लिम धर्मगुरुओं और बुद्धिजीवियों से मुलाकात, इसी दिशा में एक बड़ा कदम मानी जा रही है। लेकिन सवाल उठता है – क्या ये प्रयास महज प्रतीकात्मक हैं या इससे वाकई ज़मीनी बदलाव की उम्मीद की जा सकती है?
भागवत की पहल: प्रतीकात्मकता से व्यवहारिकता की ओर?
RSS प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली में हरियाणा भवन में मुस्लिम धर्मगुरुओं के साथ बैठक कर एक बार फिर यह संकेत दिया कि वह दोनों समुदायों के बीच की दूरी को मिटाना चाहते हैं। इससे पहले 2022 में वह मस्जिद और मदरसा का दौरा कर चुके हैं। साथ ही उन्होंने अखिल भारतीय इमाम संगठन के प्रमुख उमर अहमद इलियासी से भी कई बार मुलाकात की।
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इन प्रयासों को जहां एक ओर समाज में संवाद की कमी को दूर करने वाली पहल के रूप में देखा जा रहा है, वहीं कई मुस्लिम नेता और संगठन इसे राजनीतिक मकसद से प्रेरित कदम भी मानते हैं।
सामाजिक संवाद का महत्व
भारत की बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक संरचना में संवाद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब दो बड़े समुदायों के बीच संदेह, भय या गलतफहमियां हों, तो उनके नेताओं के बीच सीधा संवाद पुल का काम करता है। मोहन भागवत की यह पहल इसी दिशा में एक सकारात्मक प्रयास मानी जा सकती है।
उन्होंने स्पष्ट कहा कि “हम सबके पूर्वज एक हैं, और हमने पुरानी बातें भूल कर खुद को अलग-अलग मानना शुरू कर दिया है।” यह बात सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है।
आलोचना और समर्थन: दो ध्रुवीय प्रतिक्रियाएं
जब भी कोई बड़ा कदम उठाया जाता है, समाज में उसके प्रति मिश्रित प्रतिक्रियाएं आती हैं। मोहन भागवत की मुस्लिम समुदाय के साथ मुलाकातों को भी एक वर्ग ने खुले दिल से स्वागत किया तो वहीं कई राजनीतिक मुस्लिम नेताओं ने इसकी नीयत और टाइमिंग पर सवाल उठाए।
जैसे कि जब पूर्व राज्यपाल नजीब जंग, पत्रकार शाहिद सिद्दीकी, ले. जन. (रि.) ज़मीरउद्दीन शाह जैसे मुस्लिम शख्सियतों ने संघ प्रमुख से मुलाकात की, तो कुछ मुस्लिम राजनेताओं ने इसे ‘धोखा’ करार दिया।
संघ की बदली रणनीति?
आरएसएस लंबे समय तक ‘हिंदू राष्ट्र’ के विचार से जुड़ा रहा है, जो मुस्लिम समुदाय में भय और असुरक्षा की भावना को जन्म देता रहा। लेकिन पिछले तीन वर्षों में संघ का रुख अपेक्षाकृत बदलता नजर आया है। भागवत के साथ संघ पदाधिकारी इंद्रेश कुमार और कृष्ण गोपाल भी संवाद में सक्रिय हैं। साथ ही मुस्लिम राष्ट्रीय मंच जैसे संगठन इस समावेशी रणनीति के सहायक बन रहे हैं।
2023 में संघ और बीजेपी ने मिलकर मुस्लिम आउटरीच प्रोग्राम शुरू किया। इसके तहत 14 राज्यों के 64 जिलों में मुस्लिम समुदाय को बीजेपी से जोड़ने की रणनीति बनी। इसे राजनीति और सामाजिक संवाद का मिला-जुला प्रयास कहा जा सकता है।
क्या यह पहल राजनीतिक है?
कई आलोचकों का मानना है कि यह पूरी कवायद केवल 2024 और 2029 के आम चुनावों को ध्यान में रखकर की जा रही है। मुस्लिम मतदाता परंपरागत रूप से भाजपा से दूरी बनाए रखते हैं। ऐसे में सामाजिक मेल-मिलाप की पहल के माध्यम से बीजेपी अपने राजनीतिक दायरे को विस्तार देना चाहती है।
हालांकि, यह भी सच है कि अगर यह प्रयास केवल वोट बैंक तक सीमित हो, तो इसका असर अल्पकालिक होगा। लेकिन अगर यह संवाद नियमित, सघन और सच्ची नीयत से हो, तो दूरगामी परिणाम संभव हैं।
मुस्लिम समाज की प्रतिक्रिया
आम मुस्लिम नागरिकों में इस पहल को लेकर संशय और उत्सुकता दोनों है। वे देख रहे हैं कि यह पहल उनके अधिकारों, सुरक्षा और प्रतिनिधित्व को कितना सशक्त करती है। अगर संवाद के साथ-साथ जमीनी स्तर पर हिंसा, भेदभाव और नफरत की घटनाओं में कमी आती है, तो मुस्लिम समाज निश्चित ही इसे समर्थन देगा।
विफलता की आशंकाएं भी
अगर यह पहल केवल कुछ खास व्यक्तियों तक सीमित रही और आमजन तक नहीं पहुंची तो इसका सामाजिक प्रभाव कमजोर रहेगा।
अगर इसमें पारदर्शिता और नियमितता न हो, तो यह प्रयास जल्द ही निष्प्रभावी हो सकता है।
अगर समानांतर रूप से ‘हेट स्पीच’ और सांप्रदायिक तनाव को नियंत्रित नहीं किया गया, तो संवाद व्यर्थ होगा।
क्या हो सकते हैं सकारात्मक परिणाम?
आपसी विश्वास में वृद्धि: दोनों समुदायों के बीच भरोसे का माहौल बन सकता है।
कट्टरपंथ को चुनौती: संवाद से नफरत और हिंसा की विचारधारा को कमजोर किया जा सकता है।
सामाजिक विकास में भागीदारी: मुस्लिम समाज को भी मुख्यधारा में भागीदारी का मौका मिल सकता है।
राजनीतिक समावेशिता: अल्पसंख्यकों को लेकर बीजेपी की छवि बदली जा सकती है।
नतीजा
मोहन भागवत की पहल को केवल एक ‘इवेंट’ समझना नासमझी होगी। यह एक लंबी प्रक्रिया का हिस्सा है, जो तभी सफल हो सकती है जब दोनों समुदायों में इच्छाशक्ति, ईमानदारी और नियमित संवाद हो। संवाद की शुरुआत हो चुकी है, अब देखना यह होगा कि यह कितनी दूर तक और कितनी गहराई से जाता है।
अगर यह पहल प्रतीकात्मकता से आगे जाकर जमीनी बदलाव लाने में सफल होती है, तो भारत जैसे लोकतंत्र में यह एक ऐतिहासिक सामाजिक पहल मानी जाएगी।