
Donald Trump and Vladimir Putin in Alaska summit discussing Ukraine war
Russia-America Summit : जंग ख़त्म करने की कोशिश या नई डील का खेल❓
Russia-America Summit : जंग रोकने के बदले भूमि सौंपने की पेशकश!
Russia-America Summit : पुतिन की डिमांड्स, ट्रम्प की डिप्लोमेसी और ज़ेलेंस्की का इंकार – क्या जंग का हल निकलेगा या और बढ़ेगा संकट?
अलास्का के एंकोरेज मिलिट्री बेस पर अमरीकी सदर डोनाल्ड ट्रम्प और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मुलाक़ात ने पूरी दुनिया की नज़रें अपनी तरफ खींच लीं। इस शिखर सम्मेलन में दोनों लीडर्स ने यूक्रेन जंग और उसके हल के लिए कई अहम मुद्दों पर बात की। चर्चा का सबसे बड़ा और कंट्रोवर्शियल पॉइंट था – Potential Land Exchange यानी कुछ इलाकों के बदले जंग ख़त्म करने का ऑफर।
इस मुलाक़ात ने एक बार फिर सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या बड़े मुल्क अपनी पॉलिटिकल स्ट्रेटेजी में छोटे मुल्कों की सरज़मीन और अवाम की कुर्बानियों को सिर्फ मोल-भाव का हिस्सा बना रहे हैं।
रूस की मांगें और पुतिन की पोज़िशन
पुतिन ने ट्रम्प के सामने साफ़ तौर पर अपनी कंडीशन्स रखीं। रूस का दावा है कि अगर यूक्रेन डोनेट्स्क और लुहान्स्क इलाकों पर उसके कंट्रोल को मान ले, साथ ही नाटो से दूर रहे और डिमिलिटराइज़ेशन की शर्तें पूरी करे, तो मॉस्को जंग रोकने को तैयार है।
नाटो में शामिल न होना – रूस बार-बार कहता रहा है कि नाटो की मौजूदगी उसके बॉर्डर पर उसकी नेशनल सिक्योरिटी के लिए खतरा है।
डोनेट्स्क और लुहान्स्क पर कंट्रोल – यह इलाक़ा पहले से ही रूस-समर्थित फोर्सेस के क़ब्ज़े में है, मगर 25-30% ज़मीन अब भी कीव के कंट्रोल में है।
क्राइमिया की इंटरनेशनल मान्यता – रूस चाहता है कि पूरी दुनिया क्राइमिया को उसका हिस्सा मान ले।
विसैन्यीकरण और नाज़ी-फ्री यूक्रेन – पुतिन इस नैरेटिव को बार-बार दोहराते हैं ताकि जंग को डिफेंसिव ऐक्शन साबित कर सकें।
असल में, ये सारी डिमांड्स सिर्फ़ एक मुल्क की पॉलिटिकल वर्चस्व की हसरत को दिखाती हैं।
ट्रम्प की स्ट्रैटेजी – डिप्लोमेसी या डील मेकिंग?
डोनाल्ड ट्रम्प की पॉलिटिक्स हमेशा से डील-मेकिंग वाली रही है। उन्होंने इस मीटिंग को “कंस्ट्रक्टिव और पॉज़िटिव” बताया। ट्रम्प का कहना है कि अगर जंग को रोकना है तो दोनों साइड्स को कॉम्प्रोमाइज़ करना होगा।
लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि क्या अमेरिका वाक़ई यूक्रेन की टेरिटोरियल इंटीग्रिटी को सेक्रिफाइस करने को तैयार है? अमरीका और वेस्टर्न यूरोप अब तक यही कहते आए हैं कि “यूक्रेन की सीमाओं को बलपूर्वक नहीं बदला जा सकता”। मगर अलास्का समिट से यह भी झलकता है कि वॉशिंगटन पूरी तरह कीव के साथ खड़ा नहीं है।
यूक्रेन की सख़्त पोज़िशन
यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की बार-बार कह चुके हैं – “नो टेरिटोरियल कंसेशंस”। यानी न रूस को कोई इलाक़ा दिया जाएगा और न उसकी शर्तें मानी जाएंगी।
ज़ेलेंस्की के लिए यह सिर्फ़ ज़मीन का मामला नहीं बल्कि नेशनल इज़्ज़त, सॉवरनिटी और अवाम की कुर्बानी का सवाल है। अगर उन्होंने किसी भी तरह का इलाक़ा छोड़ने का समझौता किया तो यह उनकी पॉलिटिकल और पब्लिक सपोर्ट दोनों को तोड़ देगा।
आलमी तस्सुरात और पॉलिटिकल बैलेंस
दुनिया इस वार्ता को एक “मेजर डिप्लोमैटिक मूव” की तरह देख रही है। मगर साथ ही इंटरनेशनल एक्सपर्ट्स मानते हैं कि यह मीटिंग रूस के फायदे में झुकी हुई नज़र आती है।
यूरोपियन यूनियन – ईयू ने दोहराया है कि यूक्रेन की बॉर्डर्स को फोर्स से बदलना इंटरनेशनल लॉ की खिलाफ़वर्ज़ी है।
नाटो – एलायंस अब भी कीव को सपोर्ट कर रहा है, मगर वॉर फैटीग यानी जंग से थकान साफ़ नज़र आ रही है।
चीन और ग्लोबल साउथ – ये मुल्क रूस-अमेरिका बातचीत को एक नए पॉवर बैलेंस की शुरुआत की तरह देख रहे हैं।
पुतिन की बॉडी लैंग्वेज और बयान
पुतिन ने अलास्का वार्ता को “बेहद उपयोगी और क्लियर” बताया। उनका कहना था कि “लंबे समय से इस लेवल पर इतनी डीटेल और शांतिपूर्ण बातचीत नहीं हुई।”
असल में पुतिन इस डायलॉग को अपने नैरेटिव के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं – यानी रूस लड़ाई नहीं चाहता, बल्कि डायलॉग चाहता है। मगर साथ ही उनकी मिलिट्री यूक्रेन के ईस्टर्न फ्रंट पर आक्रामक है।
सियासी मायने – किसकी जीत, किसकी हार?
अगर इस डायलॉग को गहराई से देखें तो इसमें तीन बड़े सियासी पॉइंट उभरते हैं:
रूस का आत्मविश्वास – पुतिन जानते हैं कि ग्राउंड पर रूस की मिलिट्री पोज़िशन मज़बूत है।
अमेरिका की पॉलिसी कंफ्यूज़न – ट्रम्प एडमिनिस्ट्रेशन यह तय नहीं कर पा रहा कि पूरी तरह यूक्रेन के साथ जाए या किसी डील से जंग ख़त्म करने की कोशिश करे।
यूक्रेन की मजबूरी – कीव के पास पीछे हटने का कोई ऑप्शन नहीं है, वरना उसकी पूरी पॉलिटिकल और नेशनल आइडेंटिटी हिल जाएगी।
नज़रिया
यह वार्ता दिखाती है कि बड़े मुल्कों की जंग में असल कुर्बानी छोटे मुल्क और उनकी अवाम की होती है। रूस अपनी स्ट्रेटेजिक माँगों को सामने रखकर ताक़त का खेल खेल रहा है। अमेरिका अपनी पॉलिटिकल कंसीडरेशन में कभी हार्ड लाइन लेता है, कभी लचीला रवैया। और यूक्रेन, जो असल में इस जंग का मैदान है, उसे हर तरफ से प्रेशर झेलना पड़ रहा है।
यहाँ असल सवाल सिर्फ़ यह नहीं कि डोनेट्स्क या लुहान्स्क किसके पास रहेगा, बल्कि यह है कि क्या दुनिया अब भी पावर पॉलिटिक्स को अवाम की जानों से ज़्यादा अहमियत देती रहेगी।
नतीजा
अलास्का समिट ने कोई फाइनल रिज़ॉल्यूशन नहीं दिया, लेकिन यह ज़रूर साफ़ किया कि जंग को रोकने की कोशिशें जारी रहेंगी। पुतिन और ट्रम्प दोनों ने बातचीत को पॉज़िटिव बताया, मगर ग्राउंड पर हालात अब भी वैसा ही ख़तरनाक हैं।
दुनिया के लिए यह एक सबक है कि अगर सुपरपावर्स सिर्फ़ अपने स्ट्रेटेजिक इंटरेस्ट्स देखेंगे तो शांति कभी क़ायम नहीं हो पाएगी। असली हल तभी मिलेगा जब जंग को इंसानी नज़र से देखा जाएगा – न कि सरहदों और इलाक़ों के मोल-भाव की तरह।