
Shashi Tharoor's praise for Modi sparks new debate in Delhi politics
शशि थरूर की मोदी सराहना से उठे नए सियासी सवाल
कांग्रेस में हलचल, शशि थरूर की तारीफ़ ने बदला नैरेटिव
📍नई दिल्ली🗓️18 नवम्बर 2025✍️असिफ़ खान
पीएम मोदी के हालिया भाषण पर शशि थरूर की खुली तारीफ़ ने पॉलिटिकल गलियारों में नई हलचल पैदा कर दी है। कांग्रेस नेता होते हुए भी उनका यह रुख सवाल उठाता है कि वह किस दिशा में सोच रहे हैं। क्या यह उनकी आज़ाद सोच का इज़हार है, या कांग्रेस की स्थापित लाइन से अलग होकर कोई नया रास्ता खोलने की कोशिश? यह विश्लेषण इस बदलते मिज़ाज़ को गहराई से समझने की कोशिश करता है।
शशि थरूर की मोदी-तारीफ़: क्या दिल्ली की सियासत में नई रूहानी हलचल?
नई दिल्ली की फिजा में पिछले कुछ दिनों से एक अजीब-सी हलचल है। सियासत अक्सर आवाज़ों के शोर से बनती है, मगर कभी-कभी एक अकेला जुमला पूरी दिल्ली की दिशा बदल देता है। इस बार वह जुमला शशि थरूर की तरफ़ से आया — और उसका निशाना नहीं, बल्कि तारीफ़ का केन्द्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे। यही वह पल है जिसने पॉलिटिक्स के जानकारों को रोक लिया, सोचना पड़ा कि आख़िर यह मिज़ाज क्यों बदल रहा है।
पीएम मोदी ने रामनाथ गोयनका व्याख्यान में मैकाले की मानसिकता से आज़ादी का आह्वान किया। यह बात नई नहीं, मगर जिस अंदाज़ में उन्होंने इसे 2035 तक के बड़े विज़न के तौर पर रखा, उसने बहस को फिर गर्म कर दिया। और उसी वक्त सामने की कतार में बैठे शशि थरूर वह भाषण ध्यान से सुनते रहे, जैसे कोई गिरह खुलने का इंतज़ार हो।
भाषण पूरा हुआ, और थरूर ने सोशल मीडिया पर लिखा कि मोदी देश को ग़ुलामी की मानसिकता से निकालने की कोशिश कर रहे हैं। इस एक लाइन ने राजनीति के तहख़ाने में हलचल मचा दी। ऐसा पहली बार नहीं हुआ; थरूर कई बार मोदी की विदेश नीति, वैक्सीन कूटनीति, ग्लोबल अप्रोच और भारतीय विरासत पर उनके स्टैंड की तारीफ़ कर चुके हैं। मगर इस बार संदर्भ अलग था — यह सीधा सियासी नैरेटिव का सवाल था।
https://twitter.com/ShashiTharoor/status/1990652328224174334?s=19
यहां से कहानी दिलचस्प होती है।
कांग्रेस के लिए यह तारीफ़ आसान नहीं। पार्टी लंबे समय से मोदी के राजनीतिक मॉडल पर तीखी आलोचना करती रही है। थरूर का यह रुख सीधे-सीधे पार्टी लाइन के उलट जाता है। और इसी वजह से कांग्रेस में बेचैनी दिखी। कुछ नेताओं ने निजी बातचीत में कहा कि ऐसी लाइन पार्टी को कमजोर करती है। कुछ ने खामोशी अपनाई, क्योंकि थरूर को खुले शब्दों में चुनौती देना आसान नहीं — वह पार्टी के इंटेलेक्चुअल फेस हैं, ग्लोबल पॉलिटिक्स पर उनकी पकड़ मजबूत है, और युवाओं में उनकी अपील भी।
मगर सवाल यह नहीं कि उन्होंने तारीफ़ क्यों की। असली सवाल यह है कि उनकी तारीफ़ किस चीज़ का संकेत है।
थरूर शुरुआत से अपनी अलग पहचान रखते आए हैं। उन्हें भीड़ में शामिल होने का शौक़ नहीं, वह अपना रास्ता खुद बनाते हैं। उनकी राजनीति का दिलचस्प हिस्सा यह है कि वह आलोचना भी करते हैं और सराहना भी, दोनों बिंदास। जैसे किसी अदीब यानी लेखक की तरह, जो बात मन में है वह कह देता है, चाहे महफ़िल में सन्नाटा क्यों न छा जाए।
इस बार भी ऐसा ही हुआ।
मैकाले की मानसिकता पर पीएम मोदी के प्रहार को थरूर ने भाषण का सबसे दिलचस्प हिस्सा कहा। उन्होंने लिखा कि भारतीय भाषाओं, ज्ञान प्रणाली और संस्कृति को अगले दस साल में फिर से गौरव दिलाने की बात एक बड़े विज़न की ओर इशारा करती है। उन्होंने यह भी कहा कि मोदी पर चुनावी मोड का आरोप लगता है, मगर लोगों की समस्याओं पर वह भावनात्मक मोड में होते हैं। यह टिप्पणी अपने आप में एक दिलचस्प कॉन्ट्रास्ट पेश करती है।
यहां ठहरकर सोचने की ज़रूरत है:
क्या थरूर यह कहना चाह रहे हैं कि मोदी की राजनीति को सिर्फ चुनावी चश्मे से नहीं देखा जा सकता?
क्या यह उनके मन में बन रहे किसी नए मूल्यांकन का हिस्सा है?
या फिर यह दिखाने की कोशिश कि विपक्ष की आलोचना अपनी जगह, मगर अच्छे काम की पहचान अपनी जगह?
यह चुनावी राजनीति का सवाल नहीं; यह पॉलिटिकल कल्चर की बहस है।
भारत की एलीट पॉलिटिक्स लंबे समय से इस एकरूपी सोच में फँसी हुई है कि विपक्ष का नेता कभी भी सत्ता पक्ष की तारीफ़ नहीं करेगा। थरूर इस जड़ता को चुनौती देते दिखते हैं। वह कहते हैं कि देश की छवि, विदेश नीति और सांस्कृतिक नैरेटिव में अगर कोई सकारात्मक बात दिखे तो उसे स्वीकार करना चाहिए। कुछ इसे साहस कहते हैं, कुछ इसे रणनीति।
लेकिन यहां एक और परत है, और वह है दिल्ली की ख़ास भाषा — शक।
कांग्रेस के भीतर सवाल उठ रहा है कि क्या यह सब किसी भूमिका-बदल की प्रस्तावना है?
क्या थरूर भविष्य की किसी सियासी जगह की तरफ़ देख रहे हैं?
या वह कांग्रेस के भीतर अपनी अलग धुरी बनाना चाहते हैं?
यह शक इसलिए भी बढ़ा क्योंकि थरूर बीजेपी नेताओं के बीच बैठकर भाषण सुन रहे थे। उनके एक तरफ़ रविशंकर प्रसाद और दूसरी तरफ़ गुलाम नबी आज़ाद बैठे थे। यह दृश्य अपने आप में कुछ संकेत छोड़ता है।
दिलचस्सी की बात यह है कि उनकी तारीफ़ को बीजेपी ने भी तुरंत लपक लिया। कई नेताओं ने कहा कि थरूर की यह ईमानदारी उन्हें सियासत में अलग दर्जा देती है। उधर कांग्रेस के कुछ नेता दबी ज़बान में कहते दिखे कि यह निजी राय है, पार्टी की लाइन नहीं।
अब बात करते हैं असल मुद्दे की:
थरूर का यह रुख भारत की राजनीति को क्या संदेश देता है?
सबसे पहले, यह दिखाता है कि भारतीय राजनीति सिर्फ विरोध की राजनीति नहीं रह गई। इंटेलेक्चुअल अप्रोच अब भी जगह बना सकती है।
दूसरे, यह संकेत है कि कांग्रेस के भीतर विचार-युद्ध है। एक धारा चाहती है कि पार्टी मोदी के विरोध में कड़ा रुख रखे। दूसरी धारा कहती है कि वैश्विक और सांस्कृतिक मुद्दों पर मोदी के कुछ स्टैंड स्वीकार करने से कांग्रेस का चेहरा सौम्य और विश्वसनीय बन सकता है।
तीसरे, थरूर की यह पॉलिटिक्स सत्ता के लिए नहीं, वैचारिक नेतृत्व के लिए है। वह बातचीत को रिजनल नहीं, नेशनल और इंटरनेशनल लेवल पर ले जाते हैं।
यहां एक और दिलचस्प सवाल उठता है:
क्या मोदी की तारीफ़ करना कांग्रेस को नुक़सान पहुंचाएगा, या क्या यह पार्टी में आवश्यक सुधार की शुरुआत हो सकती है?
उदाहरण के तौर पर, अगर विपक्ष सिर्फ विरोध में खड़ा रहे, तो उसका नैरेटिव कमजोर पड़ता है। पर अगर वह सकारात्मक बिंदुओं पर भी सहमत हो, तो जनता यह सोचने लगती है कि यह नेतृत्व ज्यादा परिपक्व है।
थरूर शायद इसी नए टेम्परेचर को छू रहे हैं।
उनके अंदाज़ में जो उर्दू का नफ़ीसपन, हिन्दी की ठोस ज़मीन और इंग्लिश का ऑब्ज़र्वेशन मिलता है, वह उनकी राजनीतिक भाषा को अनोखा बनाता है। वह हर बात को सफेद या काला बनाने के बजाय ग्रे ज़ोन में ले जाते हैं, जहां समझदारी विकसित होती है।
मगर इसका दूसरा पहलू भी है।
अगर यह सिलसिला बढ़ा, तो कांग्रेस के भीतर फूट की आशंका बढ़ सकती है।
कुछ नेता इसे मोदी की लाइन का अप्रत्यक्ष स्वीकार मान सकते हैं।
कुछ इसे जिम्मेदार नेता का साहस कह सकते हैं।
दोनों सोचें अपनी जगह जायज़ हैं।
यहां से आगे सवाल आता है:
क्या यह समय भारत की राजनीति में वैचारिक परिपक्वता का है?
क्या विपक्ष और सत्ता के बीच सिर्फ संघर्ष ही रिश्ता नहीं होना चाहिए?
क्या थरूर राजनीति को एक नए फॉर्मैट में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं?
इन सवालों के जवाब अभी साफ़ नहीं, मगर इतना तय है कि थरूर ने एक बार फिर अपने स्टैंड से देश की राजनीति को सोचने पर मजबूर कर दिया है।
उनका यह लेखन, उनके ट्वीट, उनका बैठना, उनका अंदाज़ — सब मिलकर एक नया पॉलिटिकल मैसेज बनाते हैं:
राय दी जा सकती है, बहस की जा सकती है, और तारीफ़ भी की जा सकती है, अगर वह देश के हित में लगे।
यह बदलाव सिर्फ थरूर का नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति की नई पीढ़ी की सोच का भी संकेत हो सकता है।
और यही इस पूरे मामले का सबसे अहम हिस्सा है।




