
Supreme Court stays charges against Ashoka University professor Ali Khan Mahmudabad
देशद्रोह केस में सुप्रीम कोर्ट की रोक, प्रो.अली खान महमूदाबाद को राहत
सुप्रीम कोर्ट का आदेश: प्रो.अली खान महमूदाबाद पर अभी आरोप तय नहीं होंगे
सुप्रीम कोर्ट ने अशोका यूनिवर्सिटी के प्रो. अली खान महमूदाबाद के खिलाफ आरोप पत्र पर निचली अदालत को संज्ञान लेने से रोका, मामला अब विचाराधीन।
New Delhi,(Shah Times)। सुप्रीम कोर्ट का हालिया आदेश न सिर्फ़ क़ानून और न्याय की बुनियादी समझ को सामने लाता है बल्कि यह देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी और अकादमिक स्वतंत्रता पर चल रही बहस को भी गहरा करता है। अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद पर ऑपरेशन सिंदूर को लेकर की गई सोशल मीडिया पोस्ट के बाद देशद्रोह सहित कई धाराओं में केस दर्ज किया गया। अब जबकि एसआईटी ने एक मामले में क्लोज़र रिपोर्ट और दूसरे में आरोप पत्र दाखिल किया, सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत को स्पष्ट निर्देश दिया कि वह संज्ञान न ले और आरोप तय करने से रुके।
मामला कैसे शुरू हुआ
ऑपरेशन सिंदूर के दौरान प्रो. महमूदाबाद की एक सोशल मीडिया पोस्ट ने भारी विवाद खड़ा कर दिया। इस पर हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष रेणु भाटिया और एक स्थानीय सरपंच की ओर से दो अलग-अलग FIR दर्ज कराई गईं। आरोप गंभीर थे और इन्हें सीधे राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों से जोड़कर देखा गया। 14 दिन की न्यायिक हिरासत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अंतरिम जमानत दी, लेकिन यह शर्त रखी कि वे इस विषय पर सार्वजनिक टिप्पणी नहीं करेंगे।
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न्यायपालिका का दृष्टिकोण
जस्टिस सूर्यकांत और जॉयमाल्या बागची की पीठ ने साफ़ कहा कि जब तक पूरे मामले की वैधता पर विचार नहीं हो जाता, आरोप तय नहीं किए जाएं। अदालत ने यह भी आदेश दिया कि जिस मामले में क्लोज़र रिपोर्ट आ चुकी है, उससे संबंधित सारी कार्यवाही रद्द की जाए। वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने प्रोफेसर की ओर से दलील देते हुए कहा कि देशद्रोह के तहत आरोप लगाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है, और अदालत को इस पर गहन विचार करना चाहिए।
विश्लेषण: अकादमिक स्वतंत्रता बनाम राष्ट्रीय सुरक्षा
यह मामला एक अहम सवाल खड़ा करता है — क्या अकादमिक बहस और व्यक्तिगत राय को राष्ट्रीय सुरक्षा के ख़िलाफ़ माना जा सकता है?
एक पक्ष मानता है कि सोशल मीडिया पर लिखे शब्दों का प्रभाव जनमानस पर गहरा पड़ता है और संवेदनशील ऑपरेशनों के समय ऐसी टिप्पणियाँ सुरक्षा बलों के मनोबल पर असर डाल सकती हैं।
दूसरा पक्ष तर्क देता है कि किसी प्रोफेसर की व्यक्तिगत राय को राष्ट्र-विरोधी गतिविधि कहना न केवल अतिशयोक्ति है बल्कि यह अकादमिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध भी है।
विपक्ष और नागरिक समाज की प्रतिक्रिया
कई मानवाधिकार संगठनों और सिविल सोसायटी के सदस्यों ने सुप्रीम कोर्ट के इस हस्तक्षेप का स्वागत किया है। उनका कहना है कि अगर अकादमिक जगत पर इस तरह के मामले दर्ज किए जाते रहे तो स्वतंत्र शोध और विचार-विमर्श का दायरा सिमट जाएगा। वहीं, कुछ राजनीतिक दलों ने इसे देश की सुरक्षा से जुड़ा गंभीर मुद्दा बताते हुए कहा है कि न्यायपालिका को भी राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखना चाहिए।
मीडिया और सोशल मीडिया विमर्श
इस पूरे मामले ने सोशल मीडिया और समाचार चैनलों पर गहन बहस छेड़ दी है। कुछ लोग प्रोफेसर महमूदाबाद को अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रतीक मान रहे हैं, तो कुछ उन्हें ‘ग़ैर-जिम्मेदार अकादमिक’ बता रहे हैं। हैशटैग अभियानों ने इस विवाद को और अधिक उभार दिया है, जिससे यह केस राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ गया है।
प्रतिवाद: सुरक्षा का तर्क
जिन लोगों ने प्रोफेसर के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, उनका मानना है कि इस तरह के बयान संकट के समय सैनिकों और नागरिकों की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकते हैं। उनके अनुसार लोकतंत्र का मतलब अराजकता नहीं है और हर नागरिक को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह कदम लोकतांत्रिक ढांचे और न्यायिक संतुलन की दिशा में अहम है। यह आदेश संकेत देता है कि अदालतें न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा पर बल्कि नागरिक स्वतंत्रता और अकादमिक आज़ादी पर भी ध्यान देती हैं। आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह मामला भारतीय न्यायिक इतिहास में अभिव्यक्ति की आज़ादी और राज्य की शक्ति के बीच एक नए मानक की स्थापना करता है।