
Supreme Court delivers landmark judgment on SC/ST Act anticipatory bail
Supreme Court on SC/ST Act: Anticipatory Bail अब मुश्किल, साफ़ नियम
सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: SC/ST एक्ट मामलों में अग्रिम जमानत की सीमाएं
सुप्रीम कोर्ट ने SC/ST एक्ट मामलों में अग्रिम जमानत पर रोक लगाई, हाई कोर्ट का आदेश पलटा। दलित सुरक्षा का ऐतिहासिक फ़ैसला।
New Delhi,(Shah Times) । भारत के क़ानूनी ढाँचे (Judicial Framework) में SC/ST Act 1989 हमेशा से एक अहम बहस का विषय रहा है। अदालतों में बार-बार ये सवाल उठता रहा है कि क्या आरोपी को Anticipatory Bail यानी अग्रिम ज़मानत मिलनी चाहिए या नहीं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए साफ़ कर दिया कि इस एक्ट की धारा 18 किसी भी आरोपी को अग्रिम ज़मानत देने पर रोक लगाती है।
CJI बीआर गवई, जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की पीठ ने बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश को खारिज करते हुए कहा कि यदि प्रथम दृष्टया (Prima Facie) मामला बनता है तो आरोपी को राहत नहीं मिल सकती।
ऐक्ट की पृष्ठभूमि और न्यायालय का दृष्टिकोण
SC/ST एक्ट क्यों आया?
इस क़ानून का मक़सद था समाज के उन तबकों की सुरक्षा करना जो सदियों से जातिगत उत्पीड़न और सामाजिक बहिष्कार के शिकार रहे हैं। यह सिर्फ़ Law & Order का मामला नहीं बल्कि Social Justice का हिस्सा भी है। अदालत ने याद दिलाया कि यह कानून दलितों और आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक हालत सुधारने के लिए बनाया गया था।
धारा 18 का महत्व
कोर्ट ने साफ़ कहा कि धारा 18 CrPC की धारा 438 यानी Anticipatory Bail को लागू नहीं होने देती। इसका मतलब यह हुआ कि यदि किसी आरोपी पर SC/ST एक्ट के तहत केस दर्ज है तो उसे अग्रिम जमानत नहीं मिल सकती।
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केस का संदर्भ: महाराष्ट्र चुनाव और दलित परिवार पर हमला
यह पूरा मामला 2024 विधानसभा चुनाव से जुड़ा है। धाराशिव ज़िले में एक दलित परिवार पर हमला हुआ। FIR में आरोप था कि आरोपी राजकुमार जैन और अन्य लोगों ने जातिसूचक गालियां दीं और लोहे की रॉड से हमला किया।
शिकायतकर्ता किरण ने कहा कि हमला सिर्फ़ इसलिए हुआ क्योंकि उसके परिवार ने जैन के पसंदीदा उम्मीदवार को वोट नहीं दिया।
निचली अदालत ने अग्रिम जमानत से इंकार कर दिया था।
मगर बॉम्बे हाई कोर्ट ने राजनीति से प्रेरित बताते हुए आरोपी को राहत दे दी।
अंततः पीड़ित ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, जहाँ हाई कोर्ट का फ़ैसला पलट गया।
न्यायालय का विश्लेषण
कठोर संदेश
सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“जातिसूचक गालियां देना, अपमान करना और हिंसा करना, स्पष्ट रूप से SC/ST एक्ट का उल्लंघन है।”
यह बयान न सिर्फ़ एक केस बल्कि आने वाले समय में तमाम मुक़दमों के लिए मिसाल बन सकता है।
संतुलन का सवाल
फिर भी अदालत ने यह स्पष्ट किया कि अगर प्रथम दृष्टया आरोप झूठे साबित होते हैं तो अदालत के पास विवेकाधिकार है कि वह अग्रिम ज़मानत दे सकती है। यानी कोर्ट ने Zero Tolerance और Judicial Balance दोनों पर ज़ोर दिया।
Counterpoints: आलोचना और बहस
दुरुपयोग का मुद्दा
कुछ लोग मानते हैं कि SC/ST एक्ट का दुरुपयोग भी होता है। कई बार झूठे केस दर्ज करके Personal Vendetta या Political Pressure के लिए इसे इस्तेमाल किया जाता है।
Critics कहते हैं कि इस क़ानून की सख़्ती कई बार निर्दोष लोगों के लिए मुसीबत बन जाती है।
Legal Experts का मानना है कि कोर्ट को Safeguards देने चाहिए ताकि झूठे केस में आरोपी बेवजह जेल न जाए।
संवेदनशीलता बनाम न्याय
दूसरी तरफ़ दलित और आदिवासी संगठनों का तर्क है कि जब तक यह क़ानून सख़्त नहीं रहेगा, तब तक समाज में बदलाव मुश्किल है।
उनका कहना है कि “ज़मानत की ढील” का मतलब होगा पीड़ित समुदायों पर और दबाव।
समाजशास्त्रियों का मानना है कि यह फ़ैसला Social Justice और Rule of Law दोनों को मज़बूत करता है।
नज़रिया: आगे का रास्ता
इस फ़ैसले ने न्यायपालिका के सामने एक नई चुनौती खड़ी की है – क़ानून की सख़्ती और मानवाधिकारों की सुरक्षा के बीच संतुलन।
अदालत ने साफ़ संदेश दिया है कि जातिगत हिंसा को किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
मगर साथ ही यह भी खुला रखा कि झूठे मामलों में अदालत आरोपी को राहत दे सकती है।
यह फ़ैसला आने वाले समय में Law & Order Policies और Police Investigations दोनों पर असर डालेगा।
नतीजा
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका में एक Landmark Judgment है। इसने न सिर्फ़ SC/ST एक्ट की सख़्ती को दोहराया है बल्कि यह भी सुनिश्चित किया है कि Social Justice और Fair Trial दोनों एक साथ चल सकते हैं।
यह फ़ैसला भविष्य के लिए एक मिसाल बनेगा, जहाँ क़ानून पीड़ितों की रक्षा भी करेगा और निर्दोषों को राहत भी देगा।