
Uttar Pradesh teachers protest Supreme Court’s mandatory TET ruling, demanding exemption for pre-2011 appointees
2011 से पहले नियुक्त शिक्षकों को TET में बाँधना गलत, शिक्षक संगठनों का हल्ला बोल।
योगी सरकार की पुनर्विचार याचिका से मिली आंशिक राहत
सुप्रीम कोर्ट के TET फैसले से नाराज़ शिक्षक सड़कों पर, सरकार ने पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की घोषणा की।
Lucknow, (Shah Times)। उत्तर प्रदेश की सरज़मीं पर इन दिनों एक बड़ा इम्तिहान सिर्फ़ बच्चों का नहीं बल्कि ख़ुद उस्तादों का भी लिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट का हालिया फ़ैसला, जिसमें Teacher Eligibility Test (TET) को अनिवार्य किया गया है, ने सूबे के हजारों शिक्षकों के बीच ग़ुस्से और मायूसी की लहर दौड़ा दी है।
शिक्षक यूनियन का कहना है कि यह फ़ैसला उन लोगों के साथ ज़्यादती है, जिन्होंने 2011 से पहले Right to Education Act (RTE) लागू होने से पहले ही अपनी सेवाएं शुरू कर दी थीं।
उनका तर्क है कि “जब हमारी नियुक्ति हुई थी तब टीईटी की कोई शर्त नहीं थी, अब वर्षों की ख़िदमत के बाद हमें नए सिरे से इम्तिहान देने पर मजबूर करना इंसाफ़ नहीं है।”
विरोध की पृष्ठभूमि
2011 में RTE एक्ट के तहत शिक्षा व्यवस्था को क़ानूनी ढांचा मिला। इस एक्ट ने न्यूनतम योग्यताओं को तय करते हुए TET पास होना आवश्यक कर दिया।
लेकिन जो शिक्षक पहले से सेवामुक्त थे, उन्होंने उम्मीद की थी कि उन्हें इस शर्त से छूट दी जाएगी।
अब सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने स्पष्ट किया है कि “चाहे पुराने हों या नए, सभी को TET देना होगा।”
इससे तक़रीबन 1.86 लाख शिक्षक सीधे प्रभावित हुए हैं। इनमें से हज़ारों की रिटायरमेंट नज़दीक है, और ऐसे में दोबारा परीक्षा देना उनके लिए व्यावहारिक रूप से मुश्किल माना जा रहा है।
शिक्षकों की आवाज़
अन्याय का आरोप : शिक्षक यूनियन का कहना है कि सेवा के बीच में नियम बदलना मज़दूर के साथ वादाख़िलाफ़ी जैसा है।
अनुभव बनाम परीक्षा : उनका कहना है कि “20-25 साल का तज़ुर्बा किसी भी पेपर से बड़ा सबूत है।”
आत्महत्या की घटनाएं : शामली में दो शिक्षकों ने दबाव और अपमान की वजह से जान भी दे दी।
संगठन की माँग : 2011 से पहले नियुक्त सभी शिक्षकों को स्थायी रूप से TET मुक्त किया जाए।
सरकार की प्रतिक्रिया
उत्तर प्रदेश सरकार ने मामले की गंभीरता को देखते हुए ऐलान किया कि वह सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल करेगी।
साथ ही, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भरोसा दिलाया कि जिनकी सेवानिवृत्ति 2 साल से कम बची है, उनके लिए विशेष राहत पर विचार होगा।
केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को भी ज्ञापन सौंपा गया है, जिसमें अध्यादेश 2017 में संशोधन की मांग की गई है।
विश्लेषण
क़ानून का पहलू : RTE एक्ट के तहत सभी शिक्षकों पर समान मानक लागू करना क़ानून के नज़रिए से सही है। लेकिन, न्यायपालिका का यह दृष्टिकोण व्यावहारिक ज़रूरतों से टकराता है।
अनुभव बनाम योग्यता : सवाल यह है कि क्या 20 साल तक बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षक की क़ाबिलियत एक टेस्ट से परखी जानी चाहिए?
राजनीतिक दबाव : यूपी जैसे बड़े राज्य में 2 लाख शिक्षक वोट बैंक हैं। ऐसे में सरकार का संतुलन साधना ज़रूरी है।
सामाजिक असर : आंदोलन के बढ़ने से शिक्षा व्यवस्था प्रभावित हो सकती है। बच्चों की कक्षाएं बंद होना, परीक्षाओं में अव्यवस्था जैसे मुद्दे सामने आ सकते हैं।
तर्क-वितर्क
सुप्रीम कोर्ट का पक्ष : एक समान मानक से शिक्षा की गुणवत्ता सुधरेगी।
शिक्षकों का पलटवार : “क्या 20 साल पढ़ाने वाले को अब तक अयोग्य कहा जाए?”
सरकार की दुविधा : कोर्ट के आदेश का पालन भी करना है और अपने कर्मचारियों का मनोबल भी बनाए रखना है।
मुल्क की ज़रूरत : शिक्षा सुधार ज़रूरी है, लेकिन क्या उसका बोझ पुराने उस्तादों पर डाला जाना इंसाफ़ है?
आगे की राह
पुनर्विचार याचिका : अगर सुप्रीम कोर्ट नरमी दिखाता है तो पुराने शिक्षकों को छूट मिल सकती है।
संशोधन अध्यादेश : संसद या विधानसभा में क़ानून में बदलाव करके राहत दी जा सकती है।
परीक्षा में रियायतें : उम्र और अनुभव के आधार पर आसान टेस्ट या grace marks का प्रावधान।
देशव्यापी आंदोलन : अगर मांगें न मानी गईं तो शिक्षक यूनियन इसे अखिल भारतीय स्तर तक ले जाने का इरादा जता चुके हैं।
निष्कर्ष
शिक्षा किसी भी मुल्क की रीढ़ होती है। शिक्षकों को परीक्षा के कठघरे में खड़ा करना उन्हें हतोत्साहित करता है।
सुप्रीम कोर्ट का इरादा गुणवत्ता सुधारना है, मगर यह सुधार क़ानून और इंसाफ़ दोनों के बीच संतुलन से ही मुमकिन होगा।
यूपी सरकार की पुनर्विचार याचिका ने अस्थायी राहत तो दी है, लेकिन असली फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट और क़ानून के पन्नों पर लिखा जाएगा।
अब देखना यह है कि क्या तज़ुर्बे की तवक़्क़ो को क़ानून की कसौटी पर इन्साफ़ मिलेगा या नहीं।




