
बिहार में तेजस्वी यादव का नया दावा, क्या नीतीश का किला हिलेगा
बिहार इलेक्शन 2025: युवाओं की उम्मीद या पुराना अनुभव जीतेगा?
बिहार की सियासत एक बार फिर दिलचस्प मोड़ पर है। महागठबंधन ने लंबे इंतज़ार के बाद तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर दिया है। यह फैसला जहां युवाओं को उम्मीद देता है, वहीं गठबंधन के भीतर चल रही सीटों की खींचतान इस उम्मीद को थोड़ा धुंधला भी करती है। दूसरी तरफ़ नीतीश कुमार और बीजेपी गठबंधन (NDA) अपनी स्थिरता, शासन और संगठनात्मक अनुशासन पर भरोसा दिखा रहे हैं। सवाल यही है—क्या तेजस्वी का युवा जोश नीतीश की अनुभव राजनीति पर भारी पड़ेगा?
📍पटना 🗓️ 23 अक्टूबर 2025 ✍️आसिफ़ ख़ान
दो ध्रुवों में बँटा बिहार: बदलाव बनाम स्थिरता
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का सबसे अहम पहलू यह है कि मुकाबला अब पूरी तरह दो ध्रुवों के बीच सिमट चुका है।
एक तरफ़ NDA है — नीतीश कुमार और भाजपा का संगठित तंत्र, जो शासन, विकास योजनाओं और स्थिरता की बात कर रहा है।
दूसरी तरफ़ है महागठबंधन — जिसमें तेजस्वी यादव को अब आधिकारिक रूप से सीएम उम्मीदवार घोषित किया गया है।
तेजस्वी की घोषणा से महागठबंधन को एक चेहरा मिला है — युवा, ऊर्जावान और बदलाव की बात करने वाला। पर यह चेहरा तभी असरदार साबित होगा जब गठबंधन अपने अंदर की टूट-फूट को ठीक कर पाएगा।
अभी तक सीट बंटवारे की गुत्थी न सुलझना, कई क्षेत्रों में “दोस्ताना मुकाबले” होना, और कांग्रेस-राजद के बीच अविश्वास — ये सब तेजस्वी की चमक को कम कर सकते हैं।
तेजस्वी यादव की अपील: उम्मीद का चेहरा या जोखिम का दांव?
तेजस्वी यादव के नाम की घोषणा पटना के होटल मौर्य में हुई — माहौल जोशीला था, लेकिन सियासत में जोश से ज़्यादा ज़रूरी है जोल (रणनीति)।
तेजस्वी की अपील साफ़ है — युवा बिहार, नई सोच और रोज़गार की गारंटी।
राजद ने यह लड़ाई “थके हुए नीतीश बनाम उभरते तेजस्वी” के रूप में पेश की है।
लेकिन साथ ही यह सच भी है कि तेजस्वी को अपने परिवार के भ्रष्टाचार के मामलों से अब भी जूझना पड़ रहा है। भाजपा और जदयू इस मुद्दे को हर सभा में उठाते हैं — “नौकरी का वादा या नौकरी के बदले ज़मीन?”
ऐसे आरोप तेजस्वी की छवि को नुकसान पहुँचा सकते हैं, ख़ासकर शहरी और मध्यमवर्गीय वोटरों के बीच।
गठबंधन के भीतर दरारें: कहानी एकजुटता की नहीं, असहमति की
महागठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है — seat-sharing।
पहले चरण की नामांकन की आख़िरी तारीख निकल गई और कई सीटों पर दो-दो उम्मीदवार उतरे।
वैशाली, लालगंज और महुआ जैसे क्षेत्रों में राजद और कांग्रेस आमने-सामने हैं।
ये “दोस्ताना टक्करें” अंततः राजग के लिए तोहफ़ा साबित हो सकती हैं।
कांग्रेस का अलग सूची जारी करना, वीआईपी पार्टी की नाराज़गी, और सीट बँटवारे में देरी — यह सब उस छवि को कमजोर करता है जो तेजस्वी के नाम की घोषणा से बननी चाहिए थी।
राजनीतिक रूप से देखें तो यह वैसा ही है जैसे कप्तान तय हो गया, पर टीम अब भी ड्रेसिंग रूम में झगड़ रही है।
चुनावी वादों की होड़: रोज़गार बनाम कल्याण
महागठबंधन की रणनीति सीधी है — बड़े वादे, ज़मीन से जुड़ी बातें और जातीय संतुलन।
तेजस्वी यादव ने “हर घर नौकरी” का वादा किया है, लगभग 10 से 20 लाख सरकारी नौकरियों का लक्ष्य।
इसके साथ ही ईबीसी, एससी, एसटी और महिलाओं के लिए आरक्षण और ज़मीन वितरण के वादे किए गए हैं।
उन्होंने जीविका दीदियों को स्थायी नौकरी और ₹30,000 मासिक वेतन देने का वादा भी किया है।
दूसरी ओर, एनडीए की रणनीति अलग है — वे इसे आर्थिक रूप से असंभव बताते हैं।
बीजेपी का तर्क है कि बिहार का कुल बजट ₹3.17 लाख करोड़ है, और तेजस्वी के वादों को पूरा करने में ₹29 लाख करोड़ लगेंगे।
इसलिए NDA तेजस्वी के अभियान को “सपनों की राजनीति” और “बेबुनियाद इकोनॉमिक्स” बताकर जनता को “स्थिर शासन” का विकल्प दे रहा है।
जातीय समीकरण और महिला वोटर: चुनावी गणित की असली कुंजी
बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय संतुलन पर टिकी रही है।
जदयू ने इस बार OBC और EBC पर खास ध्यान दिया है — लगभग आधे उम्मीदवार इसी वर्ग से हैं।
नीतीश की महिला योजनाएं — “लखपति दीदी”, “हर घर शौचालय”, “ड्रोन दीदी” — ग्रामीण इलाक़ों में अभी भी असर रखती हैं।
राजद इस आधार को तोड़ने के लिए आरक्षण बढ़ाने और ज़मीन देने की बात कर रहा है।
अगर तेजस्वी ईबीसी वर्ग के कुछ हिस्सों को भी अपने पाले में खींच लेते हैं, तो यह नीतीश के लिए चुनौती बन सकता है।
लेकिन याद रखिए — बिहार की महिलाएं अब “विकास की सुविधा” के साथ वोट करती हैं, सिर्फ़ नारे पर नहीं।
एनडीए की रणनीति: अनुभव और अनुशासन
एनडीए की सबसे बड़ी ताकत उसका अनुशासन है।
भाजपा और जदयू के बीच 101-101 सीटों का फ़ॉर्मूला तय हो चुका है, जबकि सहयोगी दलों को भी जगह दी गई है —
चिराग पासवान की लोजपा (रा.वि.) को 29 सीटें, मांझी और कुशवाहा की पार्टियों को 6-6 सीटें।
यह वितरण भले नीतीश की वरिष्ठता कम करता दिखे, पर बीजेपी के लिए यह “संगठनात्मक प्रभुत्व” की जीत है।
साथ ही, भाजपा ने चिराग पासवान को एक “भावी नेतृत्व विकल्प” के रूप में तैयार करना शुरू कर दिया है।
यह NDA की दोहरी रणनीति है — नीतीश की स्थिरता आज के लिए, और पासवान का चेहरा कल के लिए।
ज़मीन पर हालात और सर्वे: शुरुआती बढ़त NDA को
हाल के सर्वे बताते हैं कि एनडीए को आरामदायक बढ़त मिल रही है।
न्यूज़एक्स और आईएएनएस-मैट्रिज के सर्वे में NDA को लगभग 136 सीटें और महागठबंधन को 75 सीटें मिलती दिख रही हैं।
2020 में RJD को 110 सीटें मिली थीं, यानी उन्हें अब 26 सीटों की भरपाई करनी होगी।
फिर भी, बिहार में वोट प्रतिशत के मामूली अंतर भी नतीजे बदल देते हैं।
जन सुराज (प्रशांत किशोर) और वामदलों की मौजूदगी कई जगह मुकाबले को त्रिकोणीय बना रही है।
अगर महागठबंधन अपने अंदरूनी विवाद सुलझा लेता है, तो यह चुनाव अभी भी दिलचस्प रह सकता है।
बिहार की जंग — संगठन बनाम संभावना
बिहार 2025 का चुनाव असल में दो मॉडलों की लड़ाई है —
एक ओर NDA का अनुशासित, योजनाबद्ध, अनुभव-संचालित शासन मॉडल;
दूसरी ओर तेजस्वी का युवा, आकांक्षी और रोजगार-केंद्रित वादों वाला मॉडल।
फिलहाल बढ़त NDA के पास है, पर राजनीति में आखिरी गेंद तक खेल बाकी रहती है।
अगर तेजस्वी अपने गठबंधन की दरारें भर पाते हैं और रोज़गार के वादे को भरोसेमंद बना देते हैं,
तो यह मुकाबला बिहार की सियासत में नई कहानी लिख सकता है।







