
Shaheed-e-Salis Dargah in Agra – Where the Message of Love and Peace Lives
शहीद-ए-सालिस की दरगाह: इंसानियत और भाईचारे का पैग़ाम
अमन, मोहब्बत और सुकून की मज़ार ,शहीद-ए-सालिस रहमतुल्लाह अलैह
📍आगरा 🗓️ 14 अक्टूबर 2025 ✍️ ज़िया अब्बास जैदी
आगरा का दिल सिर्फ इसकी इमारतों या ताजमहल में नहीं धड़कता, बल्कि उस दरगाह में भी बसता है जहाँ हर मज़हब का इंसान अमन और मुहब्बत की तलब लेकर आता है। “शहीद-ए-सालिस रहमतुल्लाह अलैह” की दरगाह वो मुकाम है, जहाँ इंसानियत की सरहदें किसी धर्म या जाति से बँधी नहीं हैं। यहाँ हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई — सब एक ही छत के नीचे दुआ माँगते हैं और मोहब्बत की खुशबू फैलाते हैं।
आगरा की रूह — शहीद-ए-सालिस रहमतुल्लाह अलैह
आगरा हमेशा से इल्म, सलीका और तहज़ीब का शहर रहा है। इस शहर की फिज़ाओं में मोहब्बत और इत्तेहाद की ख़ुशबू घुली है। इन्हीं हवाओं में बसी है “दरगाह-ए-शहीद-ए-सालिस”, जहाँ इंसानियत का पैग़ाम हर दिल तक पहुँचता है।
शहीद-ए-सालिस, सैयद क़ाज़ी नूरुल्लाह शुस्तरी रहमतुल्लाह अलैह, सिर्फ एक आलिम या फ़क़ीह नहीं थे — वो एक ऐसा इंसानी चरित्र थे जिन्होंने मज़हब से ऊपर उठकर अमन और भाईचारे की मिसाल कायम की।
मोहब्बत की चौखट पर सब बराबर
यह दरगाह आगरा के दयालबाग रोड पर स्थित है। यहाँ हिन्दू अपने बच्चों की कामयाबी की दुआ करते हैं, मुस्लिम अपनी मुरादें रखते हैं, सिख अरदास करते हैं, और इसाई शांति के लिए मोमबत्तियाँ जलाते हैं।
यह वही जगह है जहाँ कोई मज़हबी दीवार नहीं, बस इंसानी एहसास है।
कहा जाता है कि हज़रत शहीद-ए-सालिस ने अपनी ज़िन्दगी में हर तबके से मोहब्बत की, सबके लिए दुआ की। उनकी तालीम यह थी —
“इंसान का असल अमल मुहब्बत और इंसाफ़ है, मज़हब नहीं।”
इल्म और इंसाफ़ के पैग़म्बर
शहीद-ए-सालिस का जन्म 1549 ईस्वी में ईरान के शुस्तर शहर में हुआ। इल्म और इंसाफ़ उनका सरमाया था। जब बादशाह अकबर ने उन्हें हिन्दुस्तान बुलाया, उन्होंने दरबार में “क़ाज़ी-ए-क़ज़ात” (Chief Judge) के तौर पर इंसाफ़ का नया मयार तय किया।
उन्होंने न सिर्फ शरियत बल्कि इंसानियत के तक़ाज़ों को भी समझा। अकबर के दौर में जब दीन-ए-इलाही जैसी नई बहसें उठीं, उन्होंने इस्लामी फिक़ह और इत्तेहाद के बीच से रास्ता निकाला।
मगर जब जहाँगीर ने सत्ता संभाली, सियासत और हसद ने इल्म के इस नूर को निशाना बना लिया। सन 1610 में उन्हें शहादत दी गई — और यही वजह है कि वो “शहीद-ए-सालिस” (तीसरे शहीद) के नाम से जाने गए।
दरगाह की रौनक — मज़ालिस और मुरादें
आज भी हर साल आगरा में उनकी याद में मज़ालिस का आयोजन होता है। 20 से 23 अक्टूबर तक चार दिन तक यह इलाक़ा रूहानी रंगों में नहाता है।
मौलाना डॉ. मिर्ज़ा हमीदुल हसन बक़ार, जो मज़ालिसों के कन्वीनर हैं, बताते हैं कि इस साल भी हजारों जायरीन आगरा पहुंचेंगे।
यह कार्यक्रम सैयद मेहदी हसन वक़ार अली साहब की सरपरस्ती में होगा। 21 अक्टूबर को “मजलिस-ए-निशत” रात 8 बजे तक चलेगी।
यह सिलसिला सिर्फ़ धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक इत्तेहाद का पैग़ाम है — जहाँ सब लोग एक-दूसरे से गले मिलते हैं और मोहब्बत की बात करते हैं।
मज़हब और इंसानियत — एक नई बहस
आज के दौर में जब समाज नफरतों और तफ़रक़ों में बँटता नज़र आता है, शहीद-ए-सालिस की दरगाह एक सबक देती है —
“मज़हब दीवार नहीं, रास्ता है; और वह रास्ता इंसानियत तक जाता है।”
यह दरगाह हमें याद दिलाती है कि मोहब्बत और अमन किसी एक धर्म की जागीर नहीं। यहाँ की चादर पर हर जाति, हर रंग, हर मज़हब का हाथ है। यही असली भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब है।
इत्तेहाद की मिसाल
दरगाह के अहाते में जब लोग “सलाम या शहीद-ए-सालिस” कहते हैं, तो वह सिर्फ एक धार्मिक जुमला नहीं होता — यह उस इंसानियत का सलाम होता है जो नफरतों के बीच भी ज़िंदा है।
यहाँ का हर पत्थर मोहब्बत का पैग़ाम देता है। यहाँ की मज़ालिसें सिर्फ शिया नहीं, बल्कि हिन्दू और सुन्नी भी शामिल होते हैं। यह वही सबक है जो भारत की रूह में बसा है — “विविधता में एकता”।
समय का आईना — आज के दौर में सबक
आज जब सोशल मीडिया और सियासत के ज़रिए दिलों में दीवारें खड़ी की जा रही हैं, तब शहीद-ए-सालिस की दरगाह यह याद दिलाती है कि अमन का रास्ता हमेशा इत्तेहाद और मोहब्बत से होकर जाता है।
अगर हम वाकई इस दरगाह की तालीम को समझ लें, तो शायद समाज में फैल रही नफरतों की आँच खुद बुझ जाए।
यह मज़ार एक पुकार है — “मोहब्बत करो, क्योंकि यही असल इबादत है।”
शहीद-ए-सालिस की दरगाह “साझा संस्कृति” का जीता-जागता प्रतीक
शहीद-ए-सालिस की दरगाह आज के भारत में “साझा संस्कृति” का जीता-जागता प्रतीक है। यह न केवल धार्मिक इत्तेहाद का केंद्र है बल्कि सामाजिक समरसता का भी प्रतीक है।
जब राजनीतिक परिदृश्य में विभाजन की बातें बढ़ रही हों, ऐसे में आगरा की यह दरगाह हमें बताती है कि असली ताक़त मोहब्बत में है, नफरत में नहीं।
यह दरगाह महज़ एक मज़ार नहीं — बल्कि इंसानियत की एक पाठशाला है, जो हर आने वाली नस्ल को यह सबक देती है कि धर्म से पहले “इंसान” होना ज़रूरी है।

ज़िया अब्बास जैदी
वरिष्ठ पत्रकार
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