
ED intensifies investigation into Al Falah University as allegations of financial fraud and misappropriation grow
अल-फलाह यूनिवर्सिटी मामला: 415 करोड़ की गड़बड़ी और ईडी की सख़्त जांच
फर्जी मान्यता से Money Laundering तक: अल-फलाह केस की पूरी परतें
📍 फरीदाबाद ✍️ Asif Khan
अल-फलाह यूनिवर्सिटी पर ईडी की कार्रवाई ने 415 करोड़ की हेराफेरी, फर्जी मान्यता और संदिग्ध नेटवर्क की परतें उजागर की हैं। चेयरमैन जावेद सिद्दीकी हिरासत में हैं और जांच आगे बढ़ रही है। मामला तालीम, financial disenfranchisement, और सामाजिक असर के बीच खड़ा एक जटिल उदाहरण बन चुका है।
जांच की रौशनी में अल-फलाह यूनिवर्सिटी का काला कारोबार
फरीदाबाद की अल-फलाह यूनिवर्सिटी का नाम पिछले कुछ हफ्तों में लगातार सुर्खियों में रहा है। वजह साफ है। ईडी ने इस यूनिवर्सिटी के चेयरमैन जावेद सिद्दीकी को मनी लॉन्ड्रिंग के गंभीर आरोपों में गिरफ्तार किया, और इसी गिरफ्तारी के साथ एक ऐसा सिलसिला खुला जो न सिर्फ तालीमी ढांचे पर सवाल उठाता है, बल्कि इस बात पर भी कि एक संस्थान कब तालीम की राह छोड़कर तिज़ारत और फिर उससे भी आगे किसी अनजाने रास्ते में भटक जाता है। यह कहानी किसी आम संस्थान की कमज़ोरियों की नहीं, बल्कि उस खतरनाक गड्ढे की है जहाँ तालीम के नाम पर भरोसा खरीदा जाता है और उसी भरोसे को सबसे पहले बेचा जाता है।
ईडी की शुरुआती रिपोर्ट कहती है कि यूनिवर्सिटी ने फर्जी मान्यता, गलत दस्तावेज और फेक ग्रेडिंग दिखाकर अभिभावकों से भारी रकम वसूली। यह रकम महज़ फीस नहीं थी, बल्कि एक ‘मकसद के साथ खड़ा किया गया माली ढांचा’ थी, जिसका असली इस्तेमाल अभी भी जांच के घेरे में है। इस ढांचे का आकार इतना बड़ा था कि शुरुआती जांच में 415 करोड़ की हेराफेरी सामने आई और एजेंसी का दावा है कि यह आंकड़ा आगे और बढ़ सकता है। सवाल यह है कि इतनी बड़ी रकम का खेल एक यूनिवर्सिटी के भीतर कैसे चला और किस तरह इतने साल तक किसी को भनक तक नहीं लगी?
अगर एक तालीमी संस्थान फर्जी NAAC ग्रेडिंग लेकर हजारों छात्रों को दाखिला देता है, तो उसकी जड़ें सिर्फ कागज़ों में नहीं होतीं। उसके पीछे एक पूरा सिस्टम सक्रिय होता है—लोग, फैसले, मीटिंग्स, फाइलें, ट्रांजेक्शन और कहीं-कहीं पर वो खामोशियां जो सबसे ज़्यादा बोलती हैं। यूनिवर्सिटी ने अपनी ‘कामयाबी’ को दिखाने के लिए जिन दस्तावेज़ों को इस्तेमाल किया, वे बाद में फर्जी निकले। इसने पूरे ढांचे को सवालों में खड़ा कर दिया। जब वह नींव ही झूठी हो, तब उस पर बनी पूरी इमारत खोखली होती है।
तहक़ीक़ात की दूसरी परत में ईडी ने यह भी पाया कि यूनिवर्सिटी ने 2014 से 2024 तक के बीच जो आय और लेन-देन दिखाए, उनमें कई रकम को ‘स्वैच्छिक योगदान’ की श्रेणी में रखा गया था। यह शब्द सुनने में बहुत साफ लगता है, लेकिन जितना साफ लगता है उतना होता नहीं। कई बार यह श्रेणी रकम छुपाने की सबसे आसान जगह बन जाती है। जांच एजेंसी का दावा है कि इन ‘स्वैच्छिक योगदानों’ की रकम टैक्स रिकॉर्ड और वास्तविक गतिविधियों से मेल नहीं खाती। जब कोई संस्थान इतना बड़ा खेल खेल रहा हो, तो संभावना उसी दिशा में जाती है कि यह उसकी व्यवस्था के मूल से जुड़ा हुआ है, न कि किसी एक व्यक्ति के गलती से किया गया काम।
अब सवाल यह है कि यह मामला किस हद तक तालीमी सिस्टम की नाकामी है और किस हद तक जानबूझकर किया गया अपराध? यह बहस हर मामले में होती है—एक पक्ष कहता है कि मामला राजनीतिक हो सकता है, दूसरा पक्ष कहता है कि मामला पूरी तरह अपराध आधारित है। लेकिन यहाँ एक बात साफ है: फर्जी NAAC ग्रेडिंग राजनीति नहीं बना सकती। ऐसा करने के लिए दस्तावेज चाहिए, सिस्टम को चकमा देना पड़ता है, और छात्रों के भरोसे का इस्तेमाल करना पड़ता है। यह वही जगह है जहाँ तालीम अपनी राह खो देती है।
इस मामले में एक और पहलू बहुत चर्चा में रहा—उन संकेतों का जिनका संबंध किसी संदिग्ध नेटवर्क या आपराधिक मॉड्यूल से जोड़ा गया। अभी यह बात साबित नहीं, मगर जांच में इस तरह के संकेत आना ही चिंता बढ़ाने के लिए काफी है। जब तालीम से जुड़े किसी संस्थान में माली लेन-देन संदिग्ध पाए जाते हैं, तो यह गड़बड़ी सिर्फ पैसों तक सीमित नहीं रहती। यह सवाल उठता है कि क्या इन पैसों से कोई बड़ा नेटवर्क फायदा उठा रहा था? क्या इस रकम का इस्तेमाल सिर्फ यूनिवर्सिटी के अंदर हुआ या बाहर किसी और दिशा में गया? जांच इन सवालों के जवाब तलाश रही है।
जो स्टूडेंट्स इस यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे, उनका सबसे बड़ा नुकसान हुआ। कई छात्रों ने सालों की मेहनत और भारी फीस देकर यह उम्मीद लगाई थी कि उन्हें वैध और मजबूत डिग्री मिलेगी। अब जब इस डिग्री की बुनियाद पर ही सवाल उठ गया है, तो छात्रों का भविष्य अनिश्चित हो चुका है। तालीम के भरोसे का यही मतलब है—अगर भरोसा टूट जाए तो डिग्री सिर्फ कागज़ का टुकड़ा बन जाती है।
जावेद सिद्दीकी की गिरफ्तारी इस मामले का पहला बड़ा कदम है। उन्हें ईडी ने देर रात अदालत में पेश किया था और अदालत ने उन्हें 13 दिन की कस्टडी में भेज दिया। अब जांच एजेंसी के पास वह समय है जिसमें वह उन तमाम ट्रांजेक्शंस, कागज़ात, फोन रिकॉर्ड और लेजर को देख सकती है जिनमें इस पूरे नेटवर्क की चाबी छिपी हो सकती है। इसी दौरान असल तस्वीर साफ हो सकती है कि यूनिवर्सिटी की माली व्यवस्था का असली वास्तुकार कौन था और क्या यह काम अकेले या समूह में हुआ।
बहुत से लोग यह भी तर्क देंगे कि जब तक अदालत किसी पर आरोप साबित नहीं करती, तब तक उसे दोषी कहना गलत है। यह बात बिल्कुल सही है। लेकिन यह भी उतना ही सही है कि इतने बड़े पैमाने पर गड़बड़ी हुई है, उसके प्रमाण जांच एजेंसी ने अदालत के सामने रखे हैं। इसलिए यह मामला ‘बिना सबूत’ वाला मामला नहीं है। यह सबूतों की बुनियाद पर खड़ा हुआ केस है, और आगे की तहक़ीक़ात इसे और स्पष्ट करेगी।
यहाँ एक और पहलू समझना चाहिए—अगर किसी तालीमी संस्थान की व्यवस्था इतनी कमजोर हो कि वह फर्जी दस्तावेज देकर मान्यता हासिल कर ले, तो यह समस्या सिर्फ एक संस्थान की नहीं होती, बल्कि पूरे सिस्टम की होती है। NAAC की प्रक्रिया कितनी मजबूत है? क्या कोई भी संस्थान कागज़ों को सजाकर ग्रेड ले सकता है? अगर हाँ, तो यह तालीमी दुनिया का सबसे खतरनाक जोखिम है, क्योंकि यहाँ भरोसा टूटने का मतलब है—करियर, मेहनत और जीवन की योजनाएँ सब दांव पर लगना।
कई विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि यह मामला तालीमी संस्थानों की निगरानी व्यवस्था की कमज़ोरी से भी जुड़ा हुआ है। अगर निगरानी प्रभावी होती तो यह फर्जीवाड़ा पाँच या दस साल तक नहीं चलता। ये मामले यह भी बताते हैं कि देश में तालीम अब एक कारोबार का रूप ले चुकी है। जहाँ कारोबार बढ़ता है, वहाँ मुनाफा भी आता है। और जहाँ मुनाफा आता है, वहाँ झूठ और सच दोनों चलते हैं।
आगे चलकर जांच यह भी बताएगी कि इस मामले में कौन-कौन शामिल था। क्या यह सिर्फ चेयरमैन तक सीमित था या ट्रस्ट, प्रशासन और अन्य हिस्सों में भी किसी की भूमिका थी? क्या कोई बाहरी व्यक्ति इस नेटवर्क का हिस्सा था? क्या इस रकम से कोई दूसरी गतिविधियाँ भी चल रही थीं? इन सवालों के जवाब किसी भी दिशा में जा सकते हैं, और दोनों दिशाएँ हमारे सामने दो अलग-अलग तस्वीरें रखेंगी।
इस केस से एक बड़ा सबक मिलता है—तालीमी संस्थानों की जमीन पर भरोसा तभी बनता है जब पारदर्शिता हो, व्यवस्था साफ हो, और छात्रों के हित सर्वोपरि हों। जहाँ तिजारत पहले आती है, तालीम पीछे रह जाती है। और जहाँ तालीम पीछे रह जाए, वहाँ समाज का भविष्य भी धुंधला होता है।
अब इस पूरे मुद्दे का bottom line यही है कि यह केस एक तालीमी स्कैंडल भर नहीं, बल्कि एक चेतावनी भी है। यह हमें बताता है कि देश के संस्थानों को भरोसे के साथ-साथ जिम्मेदारी की भी जरूरत है। ऐसी घटनाएँ सिर्फ मुकदमे नहीं बनतीं, ये उन बच्चों की कहानियाँ बनती हैं जिनकी मेहनत पर किसी ने अपनी दौलत खड़ी की।
जांच आगे बढ़ेगी, सच सामने आएगा। लेकिन जब तक पूरा सच सामने नहीं आता, तब तक हमें तर्क से चलना चाहिए। न जल्दबाज़ी में फैसले, न अंदाज़ों पर राय। यह मामला हमें सोचने पर मजबूर करता है कि तालीम की जमीन को सुरक्षित रखना अब पहले से ज्यादा जरूरी है। अगर यह जमीन असुरक्षित हुई, तो नुकसान सिर्फ एक यूनिवर्सिटी का नहीं, पूरे समाज का होगा।




