
Tiger death investigation at Bandhavgarh Tiger Reserve
“फील्ड डायरेक्टर अनुपम सहाय के राज में बांधवगढ़ पार्क हुआ असहाय”
बांधवगढ़ का मौन: बाघ, वनकर्मी और सिस्टम – तीनों की चीख कौन सुनेगा
📍बांधवगढ़ टाइगर रिज़र्व, उमरिया/शहडोल|08 अक्टूबर 2025
बांधवगढ़, भारत के प्रमुख टाइगर रिज़र्व में से एक, आज सवालों के घेरे में है।
यहाँ एक बाघ की मौत और एक डिप्टी रेंजर द्वारा आत्महत्या के प्रयास ने पूरे सिस्टम की सच्चाई खोल दी है।
जहाँ कभी जंगल का राजा सुरक्षित था, वहाँ आज रक्षक खुद असुरक्षित है।
टूरिज़्म की चमक और वीआईपी इन्फ्लुएंस के पीछे दब गया है “वन संरक्षण” का मक़सद।
जंगल का वो सन्नाटा जो बोलता है
कभी बांधवगढ़ की पहचान थी — शेर की दहाड़ और पेड़ों की सरसराहट।
आज वही जंगल डरावनी ख़ामोशी में डूबा है।
न बाघों की गरिमा दिखती है, न वनकर्मियों की हिम्मत।
फील्ड डायरेक्टर अनुपम सहाय के अधीन कार्यरत यह पार्क अब “बचाने” से ज़्यादा “चलाने” की कोशिशों में उलझा दिखता है।
टूरिज़्म के नाम पर वीआईपी विज़िट्स, रिसॉर्ट लॉबी और होटल कनेक्शन — यही अब प्रशासन की प्राथमिकता बन गई लगती है।
एक तरफ जंगल के राजा की मौत,
दूसरी तरफ उस राजा की रक्षा करने वाले डिप्टी रेंजर की जान पर बनी नौबत —
यह सिर्फ़ दुखद नहीं, बल्कि चेतावनी है कि सिस्टम अब सड़ चुका है।
डिप्टी रेंजर का दर्द – “मेरी मौत का जिम्मेदार कौन?”
हरदिहा बीट, ताला रेंज — यहीं लहू लाल दीक्षित, एक ईमानदार डिप्टी रेंजर, ने कुएँ में छलांग लगा दी।
उनके सुसाइड नोट में दर्ज शब्द किसी भी इंसान को झकझोर सकते हैं।
उन्होंने अपने सीनियर अधिकारियों – एसडीओ वन दिलीप मराठा और रेंजर राहुल किरार – पर षड्यंत्र का आरोप लगाया।
कहा जाता है कि वे पिछले कई दिनों से डिपार्टमेंटल प्रेशर और मिसबिहेवियर से परेशान थे।
इस घटना ने दिखा दिया कि जो सिस्टम वन्यजीवों की रक्षा का दावा करता है,
वह अपने कर्मचारियों की मानसिक सुरक्षा भी नहीं दे पा रहा।
उन्हें बचाने की बजाय “डिपार्टमेंटल फाइल” खोली गई।
यही नौकरशाही का असली चेहरा है — जहां इंसान की जान से ज़्यादा “क्लोजिंग रिपोर्ट” मायने रखती है।
एक और बाघ की मौत – प्रकृति की चीख अनसुनी
3 अक्टूबर को पनपथा बफर के सलखनिया आरएफ 160 में एक बाघ का शव मिला।
वन विभाग ने इसे “नेचुरल डेथ” कहा, लेकिन स्थानीय सूत्रों के अनुसार यह घटना संदिग्ध है।
शव की स्थिति और घटनास्थल की रिपोर्ट कई सवाल छोड़ती है।
एनटीसीए (National Tiger Conservation Authority) की गाइडलाइन कहती है कि
हर बाघ की मौत पर इंडिपेंडेंट इनक्वायरी ज़रूरी है,
लेकिन बांधवगढ़ में बार-बार यह नियम “डिपार्टमेंटल एडजस्टमेंट” के हवाले कर दिया जाता है।
प्रबंधन की चुप्पी इस बार भी बरकरार रही।
जैसे सब कुछ “सिस्टम का रूटीन पार्ट” हो।
मगर ये मौन दरअसल एक “साज़िश” का हिस्सा है —
जहां सच को दबा दिया जाता है ताकि चेहरों पर धूल न पड़े।
जब जंगल बन गया टूरिज़्म का दरबार
बांधवगढ़ अब केवल “टाइगर रिज़र्व” नहीं, एक “टूरिस्ट ब्रांड” बन गया है।
यहाँ के अफसर वीआईपी विज़िट्स और होटल Lobbies से रिश्ते बनाए रखने में व्यस्त हैं।
कहते हैं, “जंगल की असली सफारी अब जीप में नहीं, फाइलों में होती है।”
हर रिज़र्व में कुछ अफसर “गाइडलाइन” की जगह “गिफ्टलाइन” फॉलो कर रहे हैं।
टूरिज्म ऑपरेटर्स और रेंज अफसरों के बीच जो तालमेल है,
वह धीरे-धीरे पूरे सिस्टम को खोखला कर रहा है।
जो पैसा वन्यजीव सुरक्षा पर खर्च होना चाहिए,
वह ‘मैनेजमेंट मीटिंग्स’ और ‘स्पेशल गेस्ट अरेंजमेंट्स’ में उड़ जाता है।
सिस्टम की गिरती साख और इंसान की थकान
जंगल का हर पेड़, हर आवाज़ गवाह है —
यह केवल बाघ की मौत नहीं,
बल्कि इंसानी संवेदनाओं की भी मौत है।
वनकर्मी चौबीसों घंटे जंगल में रहते हैं,
बिना सुरक्षा, बिना मानसिक सपोर्ट, बिना हेल्थ इंश्योरेंस।
फिर भी जब कोई रेंजर टूटता है,
तो फाइल में बस लिखा जाता है — “व्यक्तिगत कारणों से आत्महत्या”।
क्या यह वाकई “व्यक्तिगत” है,
या सिस्टम ने उसे वहाँ तक पहुँचा दिया जहाँ उम्मीद खत्म हो गई?
सरकार की ज़िम्मेदारी और जनता की उम्मीद
मध्य प्रदेश सरकार को इस पूरे प्रकरण पर विशेष न्यायिक जांच बैठानी चाहिए।
फील्ड डायरेक्टर अनुपम सहाय से जवाब माँगा जाना चाहिए —
क्यों बाघ की मौतें लगातार हो रही हैं?
क्यों उनके अधीन अधिकारी मानसिक रूप से टूट रहे हैं?
बांधवगढ़ की कहानी अब सिर्फ़ “वन्यजीव संरक्षण” की नहीं रही,
यह एक सामाजिक और प्रशासनिक संकट की कहानी है।
अगर आज इसे नहीं सुधारा गया,
तो आने वाले वर्षों में यह वही जंगल होगा जहाँ पेड़ तो होंगे, मगर जीवन नहीं।
मीडिया का धर्म – सच को बचाना
मीडिया का काम सिर्फ़ “खबर देना” नहीं, “न्याय की दिशा दिखाना” भी है।
शाह टाइम्स इस पूरे मामले को सिर्फ़ रिपोर्ट नहीं कर रहा,
बल्कि सवाल उठा रहा है —
क्या बांधवगढ़ सिर्फ़ एक रिज़र्व है या “रिज़र्व्ड ट्रुथ”?
यह एडिटोरियल किसी व्यक्ति या संस्था के खिलाफ़ नहीं,
बल्कि उस सड़े हुए तंत्र के खिलाफ़ है
जो बाघ की मौत और अफसर की पीड़ा दोनों पर फ़ाइल नंबर लगा देता है।
इंसान और जंगल का रिश्ता
जंगल इंसान से कुछ नहीं माँगता — बस थोड़ा सा संरक्षण, थोड़ा सम्मान।
लेकिन हम इंसान उसकी हर सीमा पार कर चुके हैं।
जहाँ कभी बाघ राजा था, अब अफसर उसका मालिक बन गया है।
अगर जंगल की यह पुकार अनसुनी रही,
तो अगली बार जब कोई टूरिस्ट वहाँ जायेगा,
उसे केवल पेड़ों की छाया मिलेगी —
न बाघ, न रक्षक, न उम्मीद।
एक सच्चाई की झलक
सुबह का कुहासा, सूरज की हल्की किरणें और दूर कहीं से आती हवा की आवाज़…
एक कुएँ के किनारे लोग इकट्ठा हैं,
एक डिप्टी रेंजर की वर्दी ज़मीन पर रखी है,
और उसके ऊपर पड़ी है सुसाइड नोट की परछाई।
पास ही, जंगल की गहराई में एक बाघ का शव पड़ा है।
दोनों की कहानी अलग है, मगर तकलीफ़ एक —
“किसी ने उन्हें नहीं बचाया।”
निष्कर्ष
बांधवगढ़ की ये दो घटनाएँ किसी हादसे से ज़्यादा हैं —
ये उस सिस्टम की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट हैं
जो “संरक्षण” का दावा करते-करते “शोषण” का औज़ार बन गया।
जरूरत है एक नई सोच की —
जहाँ जंगल को सिर्फ़ “इकोनॉमिक जोन” नहीं बल्कि “इकोलॉजिकल आत्मा” समझा जाए।
जहाँ बाघ की मौत और इंसान की चीख दोनों को समान महत्व मिले।
क्योंकि जब जंगल रोता है,
तो पूरा समाज सूख जाता है।





