
Opposition leaders Akhilesh Yadav, Mamata Banerjee, and Rahul Gandhi with protesting MPs inside Parliament against the new Constitutional Amendment Bill. – Shah Times
लोकतंत्र या सियासी हथकंडा? नया लोकसभा बिल विवादों में
क्राइम-फ्री पॉलिटिक्स या विपक्ष को निशाना? बिल पर बहस तेज़
प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को बर्खास्त करने वाले बिल पर बनी संयुक्त संसदीय समिति (JPC) से TMC और SP ने किनारा किया, कांग्रेस दबाव में, विपक्षी एकता पर सवाल।
भारतीय लोकतंत्र के गलियारों में इस वक्त सबसे तीखी बहस उस विधेयक को लेकर है, जिसमें यह प्रावधान रखा गया है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री यदि किसी गंभीर आपराधिक मामले में 30 दिन तक जेल में रहते हैं, तो उन्हें स्वतः पद से बर्खास्त कर दिया जाएगा। इस बिल को लेकर संसद में संयुक्त संसदीय समिति (JPC) का गठन हुआ, लेकिन विपक्षी दलों की एकता अब बिखरती नज़र आ रही है। तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और समाजवादी पार्टी (एसपी) ने इस समिति से किनारा कर लिया है, जबकि कांग्रेस अब दुविधा में फंस गई है।
संयुक्त संसदीय समिति (JPC) का राजनीतिक संदर्भ
जेपीसी भारतीय संसदीय परंपरा में वह तंत्र माना जाता रहा है, जो बड़े राष्ट्रीय घोटालों, संवैधानिक विवादों और वित्तीय अनियमितताओं पर जांच का औपचारिक ढांचा देता है। बोफोर्स और हर्षद मेहता कांड इसकी मिसाल रहे हैं। मगर आज हालात यह हैं कि विपक्षी दल ही इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं।
टीएमसी नेता डेरेक ओ’ब्रायन का बयान खासा तीखा था। उन्होंने इसे “तमाशा” बताते हुए मोदी गठबंधन पर आरोप लगाया कि जेपीसी का गठन केवल राजनीतिक ध्यान भटकाने और विपक्ष को असहज करने के लिए किया गया है।
अखिलेश यादव का सख़्त विरोध
समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए इंटरव्यू में कहा कि यह विधेयक “सोच से ही त्रुटिपूर्ण” है। उन्होंने गृहमंत्री अमित शाह का नाम लेकर याद दिलाया कि वे खुद कई बार कह चुके हैं कि उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दायर हुए। अखिलेश ने सवाल किया कि अगर कोई भी किसी पर फर्जी केस डाल सकता है, तो इस बिल का मतलब क्या है?
उन्होंने आगे कहा कि सपा नेताओं—आजम खान, रमाकांत यादव और इरफान सोलंकी—को भी इसी तरह जेल भेजा गया। उनके मुताबिक यह विधेयक भारत की संघीय संरचना पर हमला है, क्योंकि राज्य सरकारें अपने स्तर पर केस वापस ले सकती हैं और कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है।
टीएमसी की रणनीति
तृणमूल कांग्रेस पहले से ही इस समिति का बहिष्कार करने के मूड में थी। पार्टी का कहना है कि संविधान संशोधन विधेयक 130 पहले दिन से ही विवादित है और जेपीसी इसके लिए सिर्फ एक दिखावा है। ममता बनर्जी की पार्टी का साफ मानना है कि केंद्र सरकार इस समिति के जरिये विपक्ष को जकड़ने और जनता का ध्यान असली मुद्दों से भटकाने की कोशिश कर रही है।
कांग्रेस की दुविधा
अब सवाल सबसे बड़ा कांग्रेस पर है। विपक्षी एकजुटता का झंडा उठाने वाली कांग्रेस इस समिति में शामिल होने के पक्ष में झुकी हुई थी। लेकिन सपा और टीएमसी के फैसले ने उसे दुविधा में डाल दिया है। पार्टी नेतृत्व अब विचार कर रहा है कि विपक्षी एकता के नाम पर क्या समिति से बाहर रहना ही सही रणनीति होगी, या फिर जेपीसी में रहकर सरकार को घेरना अधिक कारगर साबित होगा।
जेपीसी की घटती प्रासंगिकता
संसदीय इतिहास गवाह है कि जेपीसी कभी सशक्त जांच का माध्यम रही। लेकिन 2014 के बाद से इसकी साख पर लगातार सवाल उठे हैं। विपक्षी सांसदों के संशोधन खारिज कर दिए जाते हैं, बहस औपचारिक रह जाती है और रिपोर्ट सरकार के पक्ष में झुकी नज़र आती है। यही वजह है कि आज विपक्ष इसे निष्प्रभावी मंच मान रहा है।
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डेरेक ओ’ब्रायन ने उदाहरण देते हुए कहा कि बोफोर्स मामले में कांग्रेस के एक सांसद पर रिश्वत का आरोप लगा था और हर्षद मेहता प्रकरण में भी जेपीसी बनी थी। उस दौर की समितियों की रिपोर्टों ने न्यायपालिका और जनमत दोनों पर असर डाला। लेकिन मौजूदा दौर में समितियां महज़ औपचारिकता रह गई हैं।
विपक्षी एकता पर संकट
टीएमसी और एसपी का बहिष्कार विपक्षी खेमे की सबसे बड़ी कमजोरी बन सकता है। संसद में सरकार का बहुमत पहले ही मजबूत है और यदि विपक्ष भी विभाजित हुआ तो विधेयक का पास होना लगभग तय है। कांग्रेस के लिए यह ‘करो या मरो’ जैसी स्थिति है—या तो विपक्षी एकजुटता बनाए रखने के लिए समिति से बाहर रहे या फिर समिति में रहकर सरकार की पोल खोलने की रणनीति अपनाए।
विश्लेषण: संघीय ढांचा और राजनीतिक लाभ-हानि
यह बहस केवल विधेयक तक सीमित नहीं है। असल सवाल संघीय ढांचे के संतुलन और राजनीतिक रणनीति का है। केंद्र यदि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को केवल 30 दिन की गिरफ्तारी पर हटाने की व्यवस्था करता है, तो यह राज्यों की संप्रभुता और जनादेश को कमजोर करने जैसा होगा।
वहीं भाजपा का पक्ष है कि सार्वजनिक जीवन से अपराधियों को दूर रखना लोकतंत्र की मजबूरी है और इसी लक्ष्य के लिए यह विधेयक जरूरी है। लेकिन विरोधी दल इसे दमनकारी और राजनीतिक हथियार मान रहे हैं।
निष्कर्ष
जेपीसी पर मचा यह घमासान संसद और विपक्ष की राजनीति दोनों की दिशा तय करेगा। अगर कांग्रेस टीएमसी-एसपी की राह पर चली तो विपक्षी एकता मजबूत दिखेगी लेकिन सरकार को सीधा लाभ होगा। अगर कांग्रेस समिति में रहकर लड़ती है तो विपक्षी मोर्चे पर दरार और गहरी होगी।
भारत का लोकतंत्र हमेशा से विरोध और सहमति की धुरी पर खड़ा रहा है। सवाल यह है कि क्या यह समिति वास्तव में जवाबदेही सुनिश्चित करेगी या फिर एक और राजनीतिक नाटक बनकर रह जाएगी।