
RSS Sarsanghchalak Mohan Bhagwat speaks at the 2025 cadre development valedictory ceremony, stressing that being a true Hindu means embracing all and promoting compassion in society.
हिंदू होने का सार: सभी को गले लगाना, किसी का विरोध नहीं
मोहन भागवत: “सच्चा हिंदू विरोध नहीं, सबको अपनाना सिखाता है”
RSS प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि कट्टर हिंदू होने का अर्थ दूसरों का विरोध नहीं बल्कि समावेश और करुणा है। भारतीय ज्ञान और शिक्षा पर ज़ोर।
कट्टर हिंदू होने की गलतफहमी: मोहन भागवत का स्पष्ट संदेश
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत ने सोमवार को आयोजित ‘ज्ञान सभा’ में जो बातें कहीं, वे आज के समय में न केवल प्रासंगिक हैं, बल्कि भारतीय समाज की वैचारिक दिशा को स्पष्ट करने वाली भी हैं। उनका यह कहना कि “कट्टर हिंदू होने का मतलब दूसरों का विरोध करना नहीं है” दरअसल एक आम लेकिन गंभीर गलतफहमी को चुनौती देना है।
आज के समय में जहां धार्मिक पहचान को अक्सर उग्रता और टकराव से जोड़ा जाता है, वहीं भागवत का यह वक्तव्य उस सोच का खंडन करता है। यह एक ऐसी सोच का समर्थन करता है जो सहिष्णुता, समावेश और करुणा पर आधारित है।
हिंदू होने का सार: सभी को गले लगाना, किसी का विरोध नहीं
मोहन भागवत ने कहा कि “हम हिंदू हैं, लेकिन हिंदू होने का सार सभी को गले लगाना है।” यह कथन केवल एक धार्मिक दृष्टिकोण नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और दर्शन की गहराई को दर्शाता है। हिंदू धर्म में सर्वे भवन्तु सुखिनः की अवधारणा को केन्द्रीय मान्यता दी गई है।
इस परिप्रेक्ष्य में, कट्टरता का अर्थ किसी अन्य विचारधारा के विरोध में खड़ा होना नहीं, बल्कि अपनी जड़ों में लौटकर सभी के लिए स्थान बनाना है। उन्होंने साफ किया कि किसी को गाली देना, अपमान करना या बहिष्कृत करना ‘हिंदू होने’ की पहचान नहीं है।
विद्या बनाम अविद्या: भारतीय ज्ञान परंपरा की दो धाराएँ
भागवत ने भारतीय ज्ञान परंपरा की दो प्रमुख धाराओं – विद्या (सच्चा ज्ञान) और अविद्या (अज्ञान) – पर ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि दोनों का स्थान समान रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक जीवन को दिशा देता है और दूसरा हमें भौतिक जगत से जोड़े रखता है।
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भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार, विद्या हमें आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाती है जबकि अविद्या के माध्यम से हम जीवन के व्यवहारिक पक्षों को समझते हैं। यही संतुलन भारतीय जीवनशैली और दर्शन की विशेषता है।
सच्चा विद्वान कौन? विचार से क्रिया तक की यात्रा
मोहन भागवत के अनुसार, सच्चा विद्वान वही है जो केवल सैद्धांतिक ज्ञान नहीं रखता बल्कि उसे अपने व्यवहार और कर्म में उतारता है। यह विचार महर्षि अरविंद से लेकर विवेकानंद तक की परंपरा का हिस्सा रहा है।
एक ऐसे समय में जब शिक्षा को केवल डिग्री और नौकरी से जोड़ा जाता है, भागवत का यह विचार हमें याद दिलाता है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल सूचना देना नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण करना है।
औपनिवेशिक शिक्षा बनाम भारतीय दृष्टिकोण
भागवत ने स्पष्ट रूप से कहा कि मैकाले की औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली आज के भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। यह शिक्षा व्यवस्था भारत की सांस्कृतिक जड़ों से कटी हुई थी और इसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के लिए “क्लर्क” तैयार करना था।
आज जब भारत वैश्विक मंच पर आत्मनिर्भरता और वैचारिक नेतृत्व की दिशा में बढ़ रहा है, तो शिक्षा प्रणाली को भी उसी दृष्टिकोण से पुनर्गठित करने की आवश्यकता है। भागवत ने सत्य और करुणा पर आधारित भारतीय शिक्षा प्रणाली को आवश्यक बताया जो केवल ज्ञान ही नहीं बल्कि संवेदना भी प्रदान करती है।
व्यक्तिगत कर्तव्य और राष्ट्र निर्माण की भूमिका
भागवत ने यह भी कहा कि अगर हमें समाज में परिवर्तन लाना है तो हर व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत कर्तव्य की भावना से कार्य करना होगा। यह विचार गीता के उस सिद्धांत से जुड़ा है जिसमें कर्म को पूजा बताया गया है।
राष्ट्र का निर्माण केवल सरकारें नहीं करतीं, बल्कि समाज के प्रत्येक नागरिक की भूमिका और जागरूकता से होता है। भागवत का यह कथन उस आत्मनिर्भर भारत की नींव है जिसकी कल्पना आज की जा रही है।
निष्कर्ष: हिंदू होना, मतलब मानवता से जुड़ना
मोहन भागवत का यह वक्तव्य कि “हिंदू होने का सार सभी को गले लगाना है,” केवल धार्मिक या वैचारिक दायरे में सीमित नहीं है, बल्कि यह आधुनिक भारत के लिए एक मूलभूत नैतिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
यह भारत की उस परंपरा की याद दिलाता है जो “वसुधैव कुटुंबकम्” के सिद्धांत पर टिकी है — जहां पूरा विश्व एक परिवार माना गया है। कट्टरता का अर्थ नफरत नहीं, आत्मबल है; विरोध नहीं, विवेक है; और अलगाव नहीं, समावेश है।