
STF and Police kill journalist Raghvendra Bajpai's murder accused in Sitapur encounter
पांच महीने बाद पत्रकार हत्याकांड के दो हत्यारोपी पुलिस मुठभेड़ में ढेर
सीतापुर पत्रकार हत्याकांड: मुठभेड़ में मारे गए दोनों इनामी आरोपी
सीतापुर में पत्रकार राघवेंद्र बाजपेयी हत्याकांड के दोनों इनामी आरोपी मुठभेड़ में ढेर। STF और पुलिस की कार्रवाई पर उठे मानवाधिकार सवाल।
पत्रकारों की सुरक्षा और लोकतंत्र पर खतरा
Lucknow ( Shah Times)।पत्रकार राघवेंद्र बाजपेयी की हत्या ने उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले को राष्ट्रीय सुर्खियों में ला दिया था। लगभग पांच माह बाद इस हत्याकांड में नामजद दो मुख्य आरोपियों को पुलिस और एसटीएफ की संयुक्त मुठभेड़ में मार गिराया गया। यह कार्रवाई जहां एक ओर कानून-व्यवस्था की दृढ़ता दिखाती है, वहीं दूसरी ओर मुठभेड़ों की पारदर्शिता और वैधता को लेकर बहस भी शुरू कर देती है। यह घटना ना सिर्फ न्याय प्रक्रिया की जटिलताओं को सामने लाती है, बल्कि पत्रकारों की सुरक्षा पर भी एक गंभीर सवाल खड़ा करती है।
हत्या की पृष्ठभूमि: एक पत्रकार की दर्दनाक मौत
8 मार्च 2025 को सीतापुर-बरेली हाईवे पर हेमपुर रेलवे ओवरब्रिज के पास दैनिक जागरण के पत्रकार राघवेंद्र बाजपेयी की बाइक पर जाते समय गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। उन्हें एक के बाद एक चार गोलियां मारी गईं, जिससे उनकी घटनास्थल पर ही मौत हो गई थी। वे एक निर्भीक पत्रकार माने जाते थे, जो स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक भ्रष्टाचार और आपराधिक गतिविधियों पर लगातार रिपोर्टिंग कर रहे थे।
मामले की शुरुआती जांच और विवाद
हत्या के 34 दिन बाद पुलिस ने कथित रूप से इस घटना का खुलासा किया। मंदिर के एक कथित पुजारी विकास राठौर उर्फ शिवानंद, निर्मल सिंह और असलम गाजी को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। लेकिन तब भी दो मुख्य शूटर फरार चल रहे थे। इस मामले में पुलिस पर देरी, लापरवाही और दबाव में जांच करने के आरोप लगे। पत्रकार संघों और स्थानीय लोगों ने लगातार धरना प्रदर्शन कर न्याय की मांग की थी।
20 मई को इस केस की गंभीरता को देखते हुए एसआईटी का गठन किया गया, लेकिन जांच की गति पर संतोषजनक सवाल खड़े होते रहे।
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मुठभेड़ की घटना: कैसे हुआ एनकाउंटर?
7 अगस्त की सुबह पुलिस और एसटीएफ की संयुक्त टीम को मुखबिर से सूचना मिली कि दोनों वांछित आरोपी हरदोई-सीतापुर सीमा पर देखे गए हैं। इसके बाद पिसावां थाना क्षेत्र के दूल्हापुर तिराहे के पास चेकिंग के दौरान बाइक पर सवार दो संदिग्ध युवक दिखाई दिए। जब पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने गोली चला दी। जवाबी फायरिंग में दोनों आरोपी घायल हुए और बाद में जिला अस्पताल में उनकी मौत हो गई।
पुलिस ने बताया कि मारे गए आरोपियों की पहचान मिश्रिख क्षेत्र के संजय तिवारी उर्फ अकील और राजू तिवारी उर्फ रिजवान के रूप में हुई। दोनों पर एक-एक लाख रुपये का इनाम घोषित था और उनके पास से एक पिस्टल और एक कार्बाइन बरामद की गई है।
मुठभेड़ पर सवाल: क्या यह न्याय है या त्वरित समाधान?
एनकाउंटर को लेकर पुलिस की कार्यवाही पर सवाल उठना कोई नई बात नहीं है। हाल के वर्षों में उत्तर प्रदेश में ‘एनकाउंटर राज’ की आलोचना और समर्थन दोनों देखने को मिले हैं। इस मामले में भी मानवाधिकार संगठनों और कुछ पत्रकार संगठनों ने आशंका जताई है कि यह एक ‘सोचा-समझा’ एनकाउंटर था।
सवाल यह उठता है कि –
यदि आरोपी पांच महीने से फरार थे, तो अचानक कैसे उनके मूवमेंट की सटीक जानकारी मिली?
गोलीबारी की घटना में पुलिस को कोई नुकसान क्यों नहीं हुआ?
क्या आरोपी वास्तव में आत्मरक्षा में पुलिस पर गोली चला रहे थे?
इस तरह के सवालों के जवाब में पारदर्शिता और स्वतंत्र न्यायिक जांच की मांग की जा रही है।
पत्रकारों की सुरक्षा: अब भी उपेक्षित
राघवेंद्र बाजपेयी की हत्या केवल एक व्यक्ति की मौत नहीं थी, बल्कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर सीधा हमला था। इस घटना ने फिर से यह रेखांकित किया कि पत्रकार, विशेषकर ग्रामीण और स्थानीय रिपोर्टिंग से जुड़े पत्रकार, कितने असुरक्षित हैं। ना उनके लिए कोई विशेष सुरक्षा नीति है, ना ही सरकारी तंत्र में उन्हें गंभीरता से लिया जाता है।
भारत में पत्रकारों के खिलाफ हिंसा के मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारें पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर एक ठोस नीति लाएं, जिसमें उन्हें खतरे के मामलों में तत्काल सुरक्षा, हेल्पलाइन, बीमा और कानूनी सहायता प्रदान की जाए।
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सरकार और प्रशासन की भूमिका: केवल बयानबाजी नहीं, नीति होनी चाहिए
उत्तर प्रदेश सरकार ने इस मामले में सक्रियता तो दिखाई लेकिन मुठभेड़ के बाद अब सवाल यह है कि –
क्या यह स्थायी समाधान है?
क्या पत्रकारों के लिए कोई विशेष तंत्र विकसित किया गया?
क्या पीड़ित परिवार को न्याय मिल पाया?
ऐसे मामलों में केवल इनामी आरोपियों को मार गिराने से समस्या का हल नहीं होता, बल्कि समाज में कानून के शासन की भावना भी मजबूत होनी चाहिए। पारदर्शी जांच, त्वरित न्याय और पीड़ित परिवार को उचित मुआवजा व सामाजिक समर्थन मिलना उतना ही जरूरी है।
न्याय प्रक्रिया बनाम मुठभेड़ संस्कृति: लोकतंत्र के लिए चुनौती
मुठभेड़ों को लेकर दो राय हैं – एक पक्ष इसे त्वरित न्याय की संज्ञा देता है, जबकि दूसरा इसे संविधान और न्याय प्रणाली की अवहेलना मानता है। किसी भी आरोपी को सजा देना न्यायालय का काम है, न कि पुलिस की गोलियों का। यदि हर अपराधी को एनकाउंटर में मारा जाएगा, तो फिर अदालतों की क्या जरूरत है?
इसलिए जरूरी है कि इस घटना की निष्पक्ष जांच हो, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह पुलिस का आत्मरक्षण था या सुनियोजित मुठभेड़।
न्याय के साथ जवाबदेही भी जरूरी
सीतापुर में पत्रकार राघवेंद्र बाजपेयी की हत्या और उसके बाद हुई मुठभेड़ दोनों ही लोकतंत्र के स्वास्थ्य पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। जहां एक ओर अपराधियों का अंत समाज को थोड़ी राहत देता है, वहीं दूसरी ओर पारदर्शिता, जवाबदेही और संवैधानिक प्रक्रिया का पालन भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
सरकार, पुलिस प्रशासन और न्यायपालिका को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि पत्रकारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिले और उनका जीवन सुरक्षित रहे। साथ ही, मुठभेड़ जैसी घटनाओं में पारदर्शी प्रक्रिया अपनाकर लोगों के विश्वास को कायम रखना लोकतंत्र की असली जीत होगी।