
Barabanki blast site after massive explosion at illegal firecracker factory, rescue teams on ground.
बाराबंकी में पटाखा फैक्ट्री विस्फोट: लापरवाही या सिस्टम की विफलता?
📍बाराबंकी 🗓️ 13 नवंबर 2025✍️आसिफ ख़ान
बाराबंकी ज़िले के टिकैतनगर क्षेत्र में एक अवैध पटाखा फैक्ट्री में हुए ज़ोरदार धमाके ने प्रशासनिक लापरवाही और सुरक्षा व्यवस्था पर बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं। हादसे में दो लोगों की मौत और तीन घायल हैं। विस्फोट इतना भीषण था कि आसपास के मकानों में दरारें आ गईं और कई घरों में आग लग गई।
धमाका सिर्फ़ एक फैक्ट्री में नहीं हुआ, ये उस सिस्टम में हुआ जो बार-बार चेतावनी मिलने के बावजूद सोता रहा। बाराबंकी के सराय बरई गांव की ये पटाखा फैक्ट्री—काग़ज़ पर शायद कभी अस्तित्व में थी ही नहीं, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त में वहाँ दिन-रात बारूद और ग़ैरक़ानूनी उत्पादन चल रहा था।
गाँव वालों ने बताया कि शिकायतें पहले भी की गईं थीं। लेकिन स्थानीय अधिकारियों की आँखों पर शायद “त्योहार सीज़न की चुप्पी” थी। ये हादसा सिर्फ़ एक एक्सीडेंट नहीं, एक संस्थागत विफलता का प्रतीक है।
मानवीय त्रासदी का चेहरा
दो निर्दोष मज़दूर—जो रोज़ की रोटी के लिए उस फैक्ट्री में काम कर रहे थे—धमाके के साथ हमेशा के लिए ख़ामोश हो गए। उनके शरीर के टुकड़े कई मीटर दूर तक बिखर गए। तीन अन्य ज़ख़्मी हैं, जिनकी हालत गंभीर बताई जा रही है।
धमाके की आवाज़ दो किलोमीटर तक गूंजी। आसपास के घरों में दरारें, दीवारों का झुक जाना और आग का फैलना… ये सब उस खौफनाक पल के निशान हैं। औरतें बच्चों को लेकर भागीं, बुज़ुर्गों ने दुआएँ मांगीं—हर किसी के दिल में एक ही सवाल: “कब तक ऐसी लापरवाही?”
ज़िम्मेदारी किसकी?
प्रशासन कह रहा है—जांच जारी है। लेकिन जांचें अक्सर हादसों के साथ दफ़न हो जाती हैं। सवाल ये है कि अगर फैक्ट्री अवैध थी तो उसे चलाने की अनुमति किसने दी? या फिर—किसने आँखें मूँद लीं?
स्थानीय स्तर पर यह भी कहा जा रहा है कि कुछ प्रभावशाली लोगों की “संरक्षण छत्रछाया” में यह कारोबार चल रहा था। अगर ऐसा है, तो यह सिर्फ़ एक कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक अपराध भी है।
सुरक्षा और कानूनी चूकें
भारतीय क़ानून के तहत किसी भी पटाखा फैक्ट्री को चलाने के लिए Explosives Act, 1884 और Explosives Rules, 2008 का पालन करना ज़रूरी है। इसमें लाइसेंसिंग, स्टोरेज, फायर सेफ्टी और दूरी के मानक तय हैं।
लेकिन जब प्रशासन और फ़ैक्ट्री मालिक दोनों नियमों को कागज़ पर छोड़ दें, तो नतीजा यही होता है—धुआँ, चीखें और राख।
गाँव वालों की चेतावनी अनसुनी क्यों?
प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि फैक्ट्री में बारूद खुले में रखा जाता था। बच्चों और बुज़ुर्गों को रोज़ उसके पास से गुज़रना पड़ता था। कई बार आग के छोटे हादसे भी हुए, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया।
यह सिर्फ़ “अज्ञानता” नहीं थी, बल्कि जानबूझकर अनदेखी थी। यही अनदेखी आज मौत का सबब बन गई।
प्रशासन की प्रतिक्रिया
धमाके के बाद फ़ायर ब्रिगेड की कई गाड़ियाँ और भारी पुलिस बल मौके पर पहुँचा। राहत-बचाव जारी है। वरिष्ठ अधिकारी मौके पर हैं, बयान जारी हो चुके हैं—“जांच होगी, दोषी नहीं बचेंगे।”
लेकिन जनता पूछ रही है—क्या अब भी कोई “जिम्मेदार” सज़ा पाएगा या ये भी बस एक ‘न्यूज़ हेडलाइन’ बनकर रह जाएगा?
विकल्प और सुधार की राह
सख़्त निरीक्षण व्यवस्था: हर पटाखा फैक्ट्री का मासिक ऑडिट अनिवार्य हो।
स्थानीय रिपोर्टिंग चैनल: ग्रामीणों की शिकायतें सीधे ज़िला स्तर पर दर्ज हों।
जागरूकता अभियान: मज़दूरों और ग्रामीणों को सेफ्टी ट्रेनिंग दी जाए।
राजनीतिक हस्तक्षेप पर नियंत्रण: कोई भी प्रभावशाली व्यक्ति नियमों से ऊपर न हो।
सामाजिक दृष्टिकोण से सोचें
हम अक्सर हादसे को “क़िस्मत” या “तक़दीर” कहकर छोड़ देते हैं, लेकिन असल में ये हमारे सामूहिक मौन का नतीजा है।
अगर समाज पहले ही आवाज़ उठाए, प्रशासन समय पर कार्रवाई करे और मीडिया अपनी भूमिका निभाए—तो शायद अगला धमाका न हो।
बाराबंकी का यह ब्लास्ट सिर्फ़ एक गांव की कहानी नहीं है। ये उस ढांचे की कहानी है जहाँ लालच, लापरवाही और मौन मिलकर ज़िंदगी से खिलवाड़ करते हैं।
इस हादसे की असली जांच तभी मानी जाएगी जब दोषियों को सज़ा मिले और ऐसी फैक्ट्रियों पर पूरी तरह रोक लगे।
सवाल अब यह नहीं कि धमाका कैसे हुआ—सवाल यह है कि हम सबने इसे होने क्यों दिया?




