
Opposition MPs protesting in Lok Sabha; Speaker Om Birla warns of strict action – Shah Times Exclusive Coverage
लोकसभा में हंगामा और स्पीकर ओम बिरला की फटकार: संसदीय मर्यादा बनाम सियासी रणनीति
संसद की गरिमा पर सवाल, स्पीकर ओम बिरला बोले– देश देख रहा है
बिहार मतदाता सूची पर हंगामे से लोकसभा की कार्यवाही बाधित, स्पीकर ओम बिरला बोले– संसद में सड़क जैसा व्यवहार बर्दाश्त नहीं होगा।
संसद का मानसून सत्र और विवाद का सिलसिला
21 जुलाई से आरंभ हुए संसद के मानसून सत्र में लोकतंत्र की गरिमा और जवाबदेही की अपेक्षा के बजाय, विघ्न और हंगामे का माहौल हावी रहा है। लोकसभा में बुधवार को बिहार की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) के मुद्दे पर विपक्षी दलों ने जोरदार विरोध दर्ज कराया। प्रश्नकाल के दौरान हंगामे की वजह से कार्यवाही को स्थगित करना पड़ा। इस बार लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने विपक्षी सांसदों को तीखी फटकार लगाते हुए कहा – “आप सड़क का व्यवहार संसद में ला रहे हैं, देश देख रहा है।”
हंगामे का केंद्र: बिहार की मतदाता सूची
बुधवार को जब सदन में ‘बिहार की रेल परियोजनाओं’ पर चर्चा चल रही थी, तभी विपक्षी सांसदों ने SIR मुद्दा उठाकर हंगामा शुरू कर दिया। विपक्ष का आरोप है कि बिहार में मतदाता सूची में पुनरीक्षण की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है और यह सत्ताधारी दल द्वारा चुनावी लाभ लेने की रणनीति है।
यह मुद्दा उस समय और ज्यादा राजनीतिक रूप से संवेदनशील बन जाता है जब बिहार में विधानसभा चुनाव के संकेत मिल रहे हैं, और राष्ट्रीय स्तर पर भी लोकसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं।
आज का शाह टाइम्स ई-पेपर डाउनलोड करें और पढ़ें
स्पीकर का बयान: लोकतंत्र की मर्यादा पर जोर
ओम बिरला ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि संसद देश का सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच है और यहाँ सड़क जैसा व्यवहार अस्वीकार्य है। उन्होंने चेतावनी दी कि यदि सांसद तख्तियां लेकर सदन में आएंगे तो निर्णायक कार्रवाई की जाएगी।
इस बयान का दोहरा प्रभाव देखा गया—एक तरफ यह विपक्ष के हंगामे पर रोक लगाने का प्रयास था, दूसरी तरफ यह सदन की गरिमा और व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक स्पष्ट संदेश था।
विश्लेषण: संसद और सड़क की राजनीति में फर्क जरूरी
लोकतंत्र में विरोध की अनुमति है, परंतु उसका मंच और तरीका मायने रखता है। संसद में प्रश्नकाल एक महत्वपूर्ण समय होता है जब जनहित के सवाल उठते हैं और सरकार जवाबदेह होती है। लेकिन जब यह समय नारेबाजी और शोरगुल की भेंट चढ़ जाता है, तो इससे न केवल संसदीय कार्यवाही प्रभावित होती है, बल्कि जनता का भरोसा भी कमजोर होता है।
तीन दिनों से लगातार संसद में हंगामा यह दर्शाता है कि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच संवाद की कमी है। इससे न केवल नीति निर्माण में बाधा आती है, बल्कि संसदीय परंपराएं भी खतरे में पड़ती हैं।
रणनीति या शुद्ध राजनीति?
विपक्ष के लिए हंगामा करना कई बार एक रणनीतिक हथियार होता है ताकि वे जनहित के मुद्दों को जोर से उठा सकें। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह तरीका सही है?
क्या संसद को ठप करके ही लोकतांत्रिक जिम्मेदारी निभाई जा सकती है?
या फिर यह सब सिर्फ मीडिया की सुर्खियां बटोरने का जरिया बन गया है?
संसदीय इतिहास में भी ऐसे कई मौके आए हैं जब विपक्ष ने सरकार को घेरा, लेकिन वह तार्किक बहस और वोटिंग प्रक्रिया के माध्यम से हुआ, न कि हंगामे के ज़रिए।
बिहार का SIR विवाद: तकनीकी मुद्दा या राजनीतिक शंका?
SIR यानी Special Intensive Revision, एक नियमित प्रक्रिया है जिसे चुनाव आयोग समय-समय पर करता है ताकि मतदाता सूची अपडेट रहे। लेकिन बिहार में इस बार इस प्रक्रिया को लेकर कई राजनीतिक दलों ने सवाल खड़े किए हैं।
उनका आरोप है कि:
नए मतदाताओं को गलत तरीके से जोड़ा या हटाया जा रहा है।
यह एक राजनीतिक साजिश हो सकती है ताकि चुनाव परिणाम प्रभावित किए जा सकें।
हालांकि, चुनाव आयोग ने इन आरोपों को खारिज किया है और पारदर्शिता का भरोसा दिलाया है। फिर भी, जब इस मुद्दे पर संसद के अंदर चर्चा की जा सकती थी, तो विपक्ष ने बहस की बजाय हंगामे का रास्ता क्यों चुना?
विपक्ष की भूमिका: सवाल उठाना जरूरी, पर तरीका भी
विपक्ष की यह जिम्मेदारी होती है कि वो सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए, जनहित के मुद्दों को संसद में उठाए। लेकिन जब वह ऐसा हंगामे और नारेबाजी से करता है, तो वो खुद की साख को भी कमजोर करता है।
यदि विपक्ष बिहार SIR पर वास्तव में गंभीर है, तो उसे चाहिए कि वह:
चुनाव आयोग से जवाब मांगे,
संसद में नियमों के तहत चर्चा की मांग करे,
संसदीय समितियों में जांच की मांग करे।
आगे की राह: समाधान और संतुलन जरूरी
लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। यदि दोनों एक-दूसरे को अस्वीकार करेंगे और केवल टकराव की राजनीति करेंगे, तो संसद का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
ओम बिरला की चेतावनी एक समय पर ज़रूरी थी, लेकिन इससे आगे का रास्ता संवाद और सहयोग का होना चाहिए।
सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि:
वे संसद की मर्यादा बनाए रखें,
मुद्दों पर गंभीरता से चर्चा करें,
देशहित को निजी राजनीतिक फायदे से ऊपर रखें।
नतीजा
लोकसभा में जो कुछ भी पिछले तीन दिनों से हो रहा है, वह हमारे लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण संस्था के लिए चिंताजनक है। चाहे सत्तापक्ष हो या विपक्ष, दोनों को ही आत्ममंथन करना होगा कि संसद की गरिमा और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कैसे हो।
अगर सियासी दल तख्ती और नारे से ऊपर उठकर विचार और बहस की राह चुनें, तो लोकतंत्र न केवल मजबूत होगा, बल्कि जनता का भरोसा भी और गहराएगा।