
Vishnugad Hydro Power Project villagers facing landslides and displacement – Shah Times
विष्णुगाड़ जलविद्युत परियोजना: गांवों का उजड़ता भविष्य
भू-धंसाव और उजड़ते गांव और स्थानीय आवाज़ें और आरोप
विष्णुगाड़ 444 मेगावाट परियोजना बनने से पहले ही गांवों में भू-धंसाव और विस्थापन संकट गहराता, ग्रामीणों ने कंपनी पर उठाए गंभीर सवाल।
~ रणबीर नेगी
Chamoli, (Shah Times)। उत्तराखंड की गढ़वाल घाटी में बहती अलकनंदा नदी न सिर्फ़ धार्मिक धरोहर है बल्कि पूरे पहाड़ी इलाक़े की जीवन-रेखा भी। इसी पर आधारित है विष्णुगाड़-पीपलकोटी जलविद्युत परियोजना (444 मेगावाट), जिसे क्षेत्रीय विकास और ऊर्जा उत्पादन की बड़ी उम्मीदों के साथ शुरू किया गया। लेकिन हक़ीक़त यह है कि यह परियोजना अपने पूर्ण होने से पहले ही कई गांवों की नींव हिला रही है।
पल्ला, मठ, हाट, जखोला और तेंदुली-गुनियाला जैसे गांव आज भू-धंसाव, भूस्खलन और पानी के स्रोत सूखने की त्रासदी झेल रहे हैं। ग्रामीण सवाल उठा रहे हैं कि क्या विकास के नाम पर उनकी पीढ़ियों की कमाई और सांस्कृतिक धरोहर कुर्बान कर दी जाएगी?
भू-धंसाव और उजड़ते गांव
पल्ला गांव में भू-धंसाव की ताज़ा घटनाओं ने 30 परिवारों को उजाड़ दिया। जिनके घर सालों की मेहनत से बने थे, वे देखते-देखते जमींदोज हो गए। लोग अब प्रशासन द्वारा दिए गए अस्थायी टैंटों में ठंड और बारिश झेलने को मजबूर हैं।
मठ गांव में हालात और भी गंभीर हैं। 2023 की बारिश के बाद भूस्खलन सीधे घरों के आंगन तक पहुंच गया। पांच परिवारों को दूसरे घरों में शरण लेनी पड़ी। गांव के बुज़ुर्ग कहते हैं – “पहले यहां का पानी मीठा और जीवनदायी था, अब न धारा बचा न खेत।”
हाट गांव का उजड़ना तो परियोजना की कहानी का पहला अध्याय है। डंपिंग ज़ोन बनाने के नाम पर पूरे गांव को खाली कराया गया। ग्रामीणों के विरोध पर हाईकोर्ट ने रोक लगाई, लेकिन नुकसान की भरपाई संभव नहीं रही।
स्थानीय आवाज़ें और आरोप
ग्रामीण संगठन और पंचायत प्रतिनिधि लगातार टीएचडीसी (THDC) पर आरोप लगा रहे हैं कि टनल निर्माण और ब्लास्टिंग की वजह से गांवों की ज़मीन हिल रही है।
कुलदीप नेगी (प्रभावित ग्रामीण) का कहना है:
“टनल और सड़क निर्माण के चलते मठ गांव पूरी तरह खतरे की जद में है। हमारी आवाज़ कोई सुन नहीं रहा। अगर विस्थापन नहीं हुआ तो हम आंदोलन करेंगे।”
पल्ला जखोला की प्रधान लक्ष्मी देवी ने जिलाधिकारी को दिए ज्ञापन में साफ कहा:
“यह सिर्फ़ प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानवनिर्मित तबाही है। कंपनी जिम्मेदार है और उसे विस्थापन की गारंटी देनी होगी।”
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जिलाधिकारी चमोली संदीप तिवारी को ज्ञापन

शनिवार को ग्रामीणों ने जिलाधिकारी चमोली संदीप तिवारी को ज्ञापन सौंप कर भू-धंसाव के लिए टीएचडीसी को जिम्मेदार ठहराते हुए विस्थापन की मांग की गई।
ज्ञापन देने वालों में पल्ला जखोला के प्रधान लक्ष्मी देवी,वन पंचायत सरपंच उमा देवी,लंगसी के प्रधान विनोद भंडारी,जखोला के क्षेत्र पंचायत सदस्य मुकेश सेमवाल, दर्शन लाल, प्रेमलाल, जिला पंचायत सदस्य रमा राणा, भाकपा माले के गढ़वाल सचिव अतुल सती सहित अन्य उपस्थित रहे थे।
विश्लेषण: विकास बनाम विस्थापन
परियोजना समर्थकों का तर्क है कि विष्णुगाड़ बांध से राष्ट्रीय ग्रिड को 444 मेगावाट ऊर्जा मिलेगी, जो आर्थिक विकास और औद्योगिक सप्लाई के लिए बेहद ज़रूरी है।
लेकिन विरोधी पक्ष सवाल पूछता है कि अगर 22 गांव उजड़ेंगे, तो विकास किसके लिए?
आर्थिक पहलू:
बांध से ऊर्जा उत्पादन ज़रूरी है, लेकिन अगर प्रभावित परिवारों का पुनर्वास नहीं हुआ तो यह विकास अधूरा और अन्यायपूर्ण कहलाएगा।
पर्यावरणीय प्रभाव:
विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि हिमालयी इलाक़े की नाजुक भूगर्भीय संरचना में इतने बड़े पैमाने पर विस्फोट और खुदाई गंभीर खतरा है।
सांस्कृतिक नुकसान:
कई गांवों में पौराणिक मंदिर, धारा और खेत उजड़ चुके हैं। ग्रामीणों का कहना है कि पैसा तो मिल सकता है, पर “ज़मीन और संस्कृति का मुआवज़ा कौन देगा?”
काउंटरपॉइंट्स: कंपनी और प्रशासन का पक्ष
टीएचडीसी का कहना है कि परियोजना सभी नियमों का पालन कर रही है और हर प्रभावित परिवार को उचित मुआवज़ा मिलेगा।
तकनीकी तर्क: कंपनी का दावा है कि भू-धंसाव पूरी तरह प्राकृतिक कारणों से हो रहा है, इसमें टनल ब्लास्टिंग का कोई सीधा सबूत नहीं है।
प्रशासन की भूमिका: जिलाधिकारी संदीप तिवारी ने कहा कि प्रभावित परिवारों को अस्थायी राहत दी जा रही है और वैज्ञानिक रिपोर्ट के बाद आगे का कदम तय होगा।
सरकारी दलील: ऊर्जा मंत्रालय बार-बार दोहरा रहा है कि राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा के लिए ऐसे प्रोजेक्ट ज़रूरी हैं।
सवाल और निष्कर्ष
यह सवाल अब सिर्फ़ एक गांव या एक परियोजना का नहीं रह गया है, बल्कि पूरे हिमालयी विकास मॉडल का है।
क्या विकास के नाम पर स्थानीय आबादी को लगातार कुर्बान किया जाएगा?
क्या पुनर्वास और पर्यावरणीय संतुलन पर गंभीर प्लानिंग नहीं होनी चाहिए?
क्या अल्पकालिक ऊर्जा उत्पादन, दीर्घकालिक सामाजिक और पारिस्थितिक विनाश से अधिक महत्वपूर्ण है?
निष्कर्ष यह है कि उत्तराखंड को एक संतुलित विकास मॉडल की ज़रूरत है। जहां ऊर्जा और इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स आगे बढ़ें, लेकिन साथ ही गांव, पर्यावरण और सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जाए।
आज अगर मठ, पल्ला और हाट गांवों की आवाज़ दब गई, तो कल पूरा क्षेत्र सवाल करेगा – क्या यह सचमुच विकास था या विस्थापन की नियति?