
Sanatan Dharma Shah Times
‘सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘सदा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। इतनी बड़ी जहां आशा और उम्मीद दिखे वो आकर्षक तो होगा ही
डॉ उदित राज
कुछ समय से सनातन पर बड़ी चर्चा छिड़ी है। यह हिंदू राष्ट्र का पर्याय भी माना जाता हैं। जब हिंदू धर्म के कुछ प्रश्नों का जवाब नही मिलता तो सनातन धर्म शरणं हो जाते हैं। यहां भी संतोषजनक उत्तर न मिलने पर फिर चर्चा का अंत हो जाता है। हिंदू धर्म विरोधी आरोप, चिल्लाना और पलट कर पूछना कि क्या अनंत और अनादि का जाना और समझा जा सकता है? नास्तिक होने का आरोप लग जाए तो ताज्जुब न हो। मानव स्वभाव हमेशा कुछ प्राप्ति की तलाश में रहता है। जो मिल गया उससे संतुष्ट नही होता। जिनकी भौतिक आवश्यकताएं पूरी हो गई हैं वो भी कुछ और बड़ी चीज की इच्छा रखता है। जो अभाव की जिन्दगी जीते हैं और कोशिश के बावजूद इच्छा पूरी न हो तो चमत्कार का सहारा।
इस जन्म में प्राप्त न हो तो दूसरे जन्म में ही सही। स्वर्ग और नर्क का तिलस्म इतना बड़ा है कि इन्सान इसकी खोज और प्राप्ति में कुछ भी करने को तैयार रहता है। सनातन धर्म को परिभाषित करना यहां जरूरी है । ‘सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘सदा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। इतनी बड़ी जहां आशा और उम्मीद दिखे वो आकर्षक तो होगा ही। भौतिक संसार शाश्वत नही हैं और जीव को समझाया जाता है कि कहां झंझटों में पड़े हो , करो तैयारी स्वर्ग की जहां आनंद ही आनंद है।
पाखंडी, अर्धशिक्षित और तर्कहीन समाज, जो अभाव, अन्याय और अधिकार से वंचित हो, उसको चमत्कार के माध्यम से संगठित करना मुश्किल नही है। जनतंत्र को नकारने वाले शुरू से से ही संविधान को समस्याओं को कारण बताते रहे हैं। कई संघर्षरत लोग थक हारकर संविधान में गड़बड़ी को कारण बता बैठते हैं। संविधान को संघ और हिंदू महासभा ने शुरू में पुरजोर विरोध किया था और तभी से कभी दबी जुबान या मुखर होकर इसका विरोध करते आ रहे हैं। बीच बीच में शिगूफा छोड़ते रहते हैं कि संविधान ही गलत है। एक तबका मानने लगा है कि संविधान ही समस्या का जड़ और बदले सनातन धर्म विकल्प बताने से नही चूकते।
अब यक्ष प्रश्न है कि वेद, भगवत गीता, रामायण, पुराण सनातन धर्म का हिस्सा हैं कि नही? नकारेंगे तो सवाल उठता है कि सनातन का अपना कोई धार्मिक और सामाजिक नियम, किताब और परंपरा क्या हैं? यह एक कल्पना की दुनिया है, जिसकी कोई प्रमाणिकता नही है। महाभारत मे जाति व्यवस्था का उल्लेख स्पष्ट है। यथास्थितिवाद उसके मूल में है। राम चरित मानस की तमाम चौपाइयों पर कुछ दिन पहले ही बड़ा विवाद हुआ। ऋग्वेद के इतने कठिन और क्रूर नियम दलितों- पिछड़ों-महिलाओं के लिए हैं कि अगर कहा जाए तो वो मात्र गुलामी के लिए पैदा हुआ करते थे। मनुस्मृति में शूद्रों और महिलाओं की स्थिति किसी से छुपी नही है।
तमाम समस्याओं का समाधान सनातन धर्म के पुनःउत्थान से बताया जा रहा है । सनातन धर्म में दलितों, पिछड़ों और महिलाओं की क्या स्थिति होगी, बताया नही जा रहा है। मान लेते हैं कि पुनः वो व्यवस्था लौट आए तो उसका क्या प्रारूप होगा? है कोई बताने वाला, होगा भी नही। जितने सनातन धर्म के वकील हैं वो सभी जानें और अनजाने में संविधान विरोधी हैं। इन्हे धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र से बड़ी नफरत है, क्योंकि इनके होते एकाधिकार नहीं हो पाएगा। जनतंत्र में साधन और सत्ता का बंटवारा होता है। ऐसी स्थिति में गुलामी करने वाले नहीं रह जाएंगे।
जैसे जागृति बढ़ी है, निम्न और पिछड़ी जातियां सवाल करने लगीं हैं कि हिंदू धर्म ने दिया क्या? डॉ अंबेडकर लाखों अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म छोड़कर 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध बन गए। दलित और पिछड़ों ने अपने जाति की गोलबंदी की और अब जातिवादी व्यवस्था को चुनौती देने लगे हैं। इस बगावत को रोकना मुश्किल हो रहा है। मुसलमानों के छद्म दुश्मन बताकर इनके सामने खड़ा करने की कोशिश हो रही है फिर भी आक्रोश दब नही रहा है। इस बगावत पर विराम लगाने के लिए कभी सनातन धर्म तो कभी विश्वगुरू की आड़ ली जाती है।
सनातन का झांसा कामयाब नही होने वाला। क्या इसका कोई खाका है? क्या कोई नियम और सिद्धांत दिखता है? सनातन में सवर्णों का स्थान तो पक्का दिखता है पर बाकियों का अपरिभाषित है। कभी कभी सतयुग का कटिया फेंकते है और लोग फँस भी जाते है। यहां बरबस डॉक्टर अम्बेडकर याद आते हैं। उनका कहना था, मुझे वह धर्म पसंद है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सिखाता है, क्योंकि एक व्यक्ति के विकास के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है जो करुणा, समानता और स्वतंत्रता है। धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए।उनके मतानुसार जाति प्रथा के चलते हिंदू धर्म में इन तीनों का ही अभाव था। ये कथित सनातनी वर्तमान को नकारते है और संसार को बुलबुला और मायाजाल से तुलना करते हैं । कथा, जागरण, प्रवचन, उपदेश में कमेरा, किसान, व्यापारी, मजदूर और शिक्षक आदि को भोगी कहा जाता है। दिलचस्प है कि कथा बांचने वाले खुद 5 , 10 और 50 लाख लेकर कार्यक्रम देते हैं और वही अपने प्रवचन में धन- दौलत को लोभ और लालच और माया बताते हैं।
बहुजन चमड़ा का काम, साफ-सफाई, कृषि, दूध उत्पादन, मजदूरी, पशु पालन, दस्तकारी, मिट्टी खोदना, सिंचाई, कटाई आदि काम से जुड़े हैं। ऐसे लोगों के लिए सनातन में कोई जगह नही दिखती, जो बहुजन सनातन धर्म के झूठे सपनों में फस रहे हैं या जाएंगे, अपना नुकसान करेंगे। यह समझ लेना जरुरी है कि इनका असली निशाना संविधान हैं ।
(लेखक पूर्व लोकसभा सदस्य हैं )







