
CJI बी. आर. गवई की मुंबई यात्रा के दौरान प्रोटोकॉल उल्लंघन पर दाखिल याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने सस्ती पब्लिसिटी बताते हुए खारिज किया। इस पर ₹7000 का जुर्माना लगाया गया। जानिए इस फैसले का न्यायिक और सामाजिक विश्लेषण।
पद की गरिमा बनाम पब्लिसिटी की लड़ाई
भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की सर्वोच्च संस्था, सुप्रीम कोर्ट, जब किसी विषय पर टिप्पणी करती है, तो उसका प्रभाव सिर्फ कानून तक सीमित नहीं होता, बल्कि समाज के सोचने और समझने के नजरिए को भी आकार देता है। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की मुंबई यात्रा के दौरान प्रोटोकॉल उल्लंघन के आरोपों पर दायर जनहित याचिका को कोर्ट ने जिस प्रकार से खारिज किया, वह कई आयामों पर सोचने को मजबूर करता है।
मामले का सार: याचिका, टिप्पणी और जुर्माना
याचिकाकर्ता वकील शैलेंद्र मणि त्रिपाठी ने याचिका दायर कर महाराष्ट्र के तीन वरिष्ठ अधिकारियों – मुख्य सचिव, डीजीपी और मुंबई पुलिस कमिश्नर – पर प्रोटोकॉल उल्लंघन का आरोप लगाया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इसे ‘पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन’ करार देते हुए ₹7000 का जुर्माना ठोंक दिया। CJI गवई ने स्पष्ट रूप से कहा कि यह एक अत्यंत सामान्य और छोटा मामला था, जिसे तूल देना न्याय संगत नहीं।
प्रोटोकॉल बनाम पब्लिक परसेप्शन
CJI ने स्वयं स्वीकार किया कि संबंधित अधिकारियों ने सार्वजनिक रूप से माफी मांग ली है और प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से इस मामले को समाप्त भी कर दिया गया था। ऐसे में जब सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति स्वयं विवाद को विराम दे चुका हो, तब इसे पुनः अदालत में लाकर मुद्दा बनाना ‘न्याय’ नहीं, बल्कि निजी प्रचार का साधन प्रतीत होता है।
लोकतांत्रिक जवाबदेही और मर्यादा की सीमाएं
भारत जैसे लोकतंत्र में जहाँ संस्थानों की गरिमा सर्वोपरि है, वहीं यह भी जरूरी है कि जनहित की आड़ में संस्थानों को अनावश्यक रूप से विवादों में न घसीटा जाए। यह मामला स्पष्ट करता है कि किस प्रकार अदालतें अब पब्लिसिटी के लिए दायर याचिकाओं को गंभीरता से नहीं लेतीं।
CJI को ‘परमानेंट स्टेट गेस्ट’ का दर्जा – नीतिगत सुधार की दिशा में कदम
इस पूरे प्रकरण के पश्चात महाराष्ट्र सरकार ने त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए CJI को ‘परमानेंट स्टेट गेस्ट‘ घोषित कर दिया। इसके अंतर्गत अब न्यायमूर्ति गवई की राज्य यात्रा के दौरान सभी आवश्यक प्रोटोकॉल, सुरक्षा और सुविधाएं सुनिश्चित की जाएंगी। यह निर्णय स्वागतयोग्य है, क्योंकि यह भविष्य में इस प्रकार की अप्रत्याशित स्थितियों को रोकने में सहायक होगा।
मीडिया और सोशल मीडिया का जिम्मा
इस मुद्दे पर मीडिया की भूमिका भी विचारणीय है। क्या यह विषय वास्तव में राष्ट्रीय चिंता का विषय था या सिर्फ सोशल मीडिया वायरल कैम्पेन के कारण सुर्खियों में आया? SMO के दौर में, यह आवश्यक है कि खबरों को त्वरित फैलाने की होड़ में तथ्यों और गरिमा का भी ध्यान रखा जाए।
निष्कर्ष: न्यायपालिका की गरिमा सर्वोपरि
सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी और फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पद की गरिमा को बनाए रखने के लिए तिल का ताड़ नहीं बनाया जाना चाहिए। जब किसी विषय का समाधान हो चुका हो, माफी मिल चुकी हो, और संस्थागत सुधार की दिशा में कदम भी उठ चुके हों, तब केवल व्यक्तिगत प्रचार या चर्चा पाने के उद्देश्य से याचिका दाखिल करना, जनहित नहीं, बल्कि संस्थाओं के प्रति असम्मान है।




