
Bollywood comedian Mehmood smiling in a classic black and white portrait
महमूद: हंसी का सफर, दर्द की दास्तान
बॉलीवुड के कॉमेडी किंग महमूद की जिंदगी का सफर
📍 मुंबई
🗓️ 29 सितम्बर 2025
✍️ आसिफ़ खान
महमूद सिर्फ हंसी के कलाकार नहीं थे, बल्कि वह एक तर्ज़-ए-ज़िंदगी थे। पाँच दशक तक बॉलीवुड की स्क्रीन पर अपनी कॉमिक टाइमिंग और अदाओं से लाखों दिलों पर राज करने वाले इस शख़्स की कहानी सिर्फ ग्लैमर नहीं, बल्कि कड़ा संघर्ष, ठुकराए जाने और फिर अपनी मेहनत से मुकाम हासिल करने का आइना भी है।
बचपन की कड़वी हक़ीक़त
महमूद का बचपन मुंबई की गलियों और लोकल ट्रेनों में बीता। उनकी आंखों में ख्वाब था एक्टर बनने का, लेकिन जेब में अक्सर पैसे नहीं होते थे। छोटे-छोटे काम करके उन्होंने अपनी ज़िंदगी की गाड़ी चलाई। लेकिन यही तजुर्बे बाद में उनके किरदारों की असलियत बन गए। जब वह स्क्रीन पर गरीब आदमी की मज़ाकिया तसवीर पेश करते, तो उसमें असल ज़िंदगी की झलक दिखती थी।
शुरुआती दिन: रिजेक्शन और हौसले की लड़ाई
फिल्म “क़िस्मत” में चाइल्ड आर्टिस्ट बनने के बाद भी उन्हें बड़े मौके नहीं मिले। “मिस मैरी” में स्क्रीन टेस्ट फेल होना और “आप कभी एक्टर नहीं बन सकते” जैसी बातें सुनना किसी को भी तोड़ सकती थीं। लेकिन महमूद ने इसे हार नहीं माना, बल्कि चैलेंज बना लिया। यही जज़्बा उनकी सबसे बड़ी ताक़त था।
1950 का दशक: कदम जमाने की जंग
1958 में “परवरिश” और फिर 1959 की “छोटी बहन” ने उनके करियर की नींव रखी। इन फिल्मों ने दिखा दिया कि वह सिर्फ छोटे रोल के लिए नहीं, बल्कि बड़े पर्दे पर हंसी का तिलिस्म खड़ा कर सकते हैं।
1960 का दशक: कॉमेडी का नया चेहरा
साठ का दशक महमूद का स्वर्णकाल था। “ससुराल” (1961) में शुभा खोटे के साथ उनकी जोड़ी हिट हुई। उसी दौर में “छोटे नवाब” का प्रोडक्शन किया और पंचम दा (आर.डी. बर्मन) को मौका देकर संगीत की दुनिया बदल दी।
फिर आई “पड़ोसन” (1968)। यहां उनका साउथ इंडियन टीचर वाला किरदार आज भी आइकॉनिक है। गाना “एक चतुर नार” सिर्फ कॉमेडी नहीं, बल्कि क्लासिक बन गया। इस फिल्म ने साबित किया कि महमूद सिर्फ हंसी नहीं, बल्कि पूरी फिल्म का सेंटर ऑफ अट्रैक्शन बन सकते हैं।
1970 का दशक: प्रयोग और विस्तार
सत्तर के दशक में महमूद ने ट्रिपल रोल (हमजोली) निभाकर सबको चौंकाया। “गुड्डी” में छोटा लेकिन असरदार किरदार किया। यही वह दौर था जब उन्होंने दिखाया कि कॉमेडी भी उतनी ही गहरी आर्ट है जितनी ड्रामा या ट्रेजेडी।
उनकी मौजूदगी फिल्मों में इतनी अहम हो गई थी कि कई बार लोग कहते थे — फिल्म में हीरो चाहे जो हो, लेकिन कॉमेडी महमूद के बिना अधूरी है।
आज का शाह टाइम्स ई-पेपर डाउनलोड करें और पढ़ें
1980 का दशक: बदलाव का दौर
अस्सी के दशक तक फिल्म इंडस्ट्री बदल रही थी। नए कॉमेडियन आ रहे थे, लेकिन महमूद की जगह कोई ले नहीं पाया। हाँ, उनके रोल अब थोड़े सीमित होने लगे। इस दौर में उन्होंने कई फिल्मों में गेस्ट अपीयरेंस करके अपनी पहचान बनाए रखी।
1990 का दशक: आखिरी झलक
नब्बे का दशक उनके लिए ढलान का दौर था। मगर “अंदाज़ अपना अपना” में पुलिस इंस्पेक्टर का रोल निभाकर उन्होंने साबित कर दिया कि हंसी की चिंगारी अब भी ज़िंदा है।
कॉमेडी का फलसफ़ा
महमूद की कॉमेडी में सिर्फ मज़ाक नहीं, बल्कि समाज का आईना था। उन्होंने आम आदमी की तकलीफों को हंसी में बदलकर पेश किया। यही वजह है कि लोग उनके किरदारों में अपने आपको देखते थे।
म्यूज़िक और डांस से रिश्ता
महमूद को म्यूज़िक से गहरा लगाव था। उन्होंने आर.डी. बर्मन को मौका दिया, अपने कई गानों को हिट कराया। “एक चतुर नार” हो या “जान के दुश्मन” जैसे गाने, उनकी कॉमिक टाइमिंग गानों में भी झलकती थी।
पॉप कल्चर पर असर
आज के कॉमेडियन्स – जॉनी लीवर, राजपाल यादव, कपिल शर्मा – सब किसी न किसी रूप में महमूद की विरासत से जुड़े हैं। उनकी स्टाइल, टाइमिंग और एक्सप्रेशन आज भी स्कूल ऑफ कॉमेडी का हिस्सा हैं।
अवॉर्ड्स और यादें
महमूद को तीन बार फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला, लेकिन असली अवॉर्ड था दर्शकों का प्यार। उनकी फिल्मों ने हंसी को घर-घर तक पहुंचाया।
आखिरी सफर
23 जुलाई 2004 को जब वह दुनिया से गए, तो सिर्फ बॉलीवुड ही नहीं, पूरे हिंदुस्तान ने हंसी का एक बड़ा सितारा खो दिया। लेकिन उनकी यादें आज भी ज़िंदा हैं।




