
Afghan Foreign Minister Amir Khan Muttaqi visits Darul Uloom Deoband during his India tour, marking a symbolic step in Indo-Afghan diplomacy. Image Alt Text: Amir Khan Muttaqi visiting
अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तकी का दौरा: भारत-अफ़ग़ान रिश्तों में नई गर्माहट या नई रणनीति?
देवबंद की गलियों से वैश्विक राजनीति तक – अफ़ग़ान कूटनीति का नया चेहरा
📍देवबंद
🗓️ 11 अक्टूबर 2025✍️ आसिफ़ खान
अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तकी का भारत दौरा केवल एक धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि बदलते क्षेत्रीय समीकरणों की गहरी झलक है। देवबंद जैसे इस्लामी शिक्षा केंद्र में उनका जाना भारत-अफ़ग़ान रिश्तों में नई परतें जोड़ता है — जहाँ धर्म, संस्कृति और राजनीति एक साथ संवाद करते नज़र आते हैं।
अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान शासन के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तकी का भारत दौरा, और विशेष रूप से उनका दारुल उलूम देवबंद पहुँचना, अंतरराष्ट्रीय राजनीति की नयी परतें खोलता है।
देवबंद की गलियों में जब मुत्तकी का क़ाफ़िला दाख़िल हुआ, तो यह केवल एक धार्मिक मुलाक़ात नहीं थी — यह एक प्रतीक था उस संवाद का, जो वर्षों से रुक गया था लेकिन अब फिर से जीवित हो रहा है।
मुत्तकी का स्वागत जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी और अन्य वरिष्ठ उलेमा ने किया। उन्होंने हदीस की कक्षा में छात्रों के साथ बैठकर तालीमी सिलसिले का हिस्सा बने — एक ऐसा दृश्य जिसने धार्मिक प्रतीकवाद को कूटनीतिक संकेतों से जोड़ दिया।
देवबंद में अफ़ग़ानिस्तान के बीस विद्यार्थी पढ़ रहे हैं, और मुत्तकी ने उनसे मिलकर कहा, “हम चाहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान और भारत के बीच वही रिश्ता फिर से कायम हो जो पहले था — इल्म और एतबार का रिश्ता।”
भारत–अफ़ग़ान रिश्तों की नई परिभाषा
भारत और अफ़ग़ानिस्तान का रिश्ता हमेशा भावनात्मक और सांस्कृतिक रहा है। लेकिन 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद यह रिश्ता ठहर गया।
भारत ने अपना दूतावास बंद किया, मदद परियोजनाएं रोक दीं और मान्यता देने से परहेज़ किया। मगर मुत्तकी के इस दौरे से साफ़ दिखता है कि अब नई दिल्ली व्यावहारिक (pragmatic) दृष्टिकोण अपना रही है।
विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मुत्तकी की मुलाक़ात इसी दिशा का संकेत है।
जयशंकर ने कहा – “हम स्थिर, समावेशी और शांत अफ़ग़ानिस्तान चाहते हैं।”
वहीं मुत्तकी ने भारत को “क़रीबी दोस्त” बताया और भारतीय निवेशकों को अफ़ग़ानिस्तान आने का न्योता दिया।
दारुल उलूम देवबंद: एक प्रतीक, एक पुल
देवबंद सिर्फ़ एक मदरसा नहीं, बल्कि एक विचारधारा का केंद्र है — जिसने पूरे दक्षिण एशिया में धार्मिक और सामाजिक चेतना जगाई।
तालिबान के कई प्रमुख नेता देवबंदी मसलक से प्रभावित हैं। यही वजह है कि मुत्तकी की यात्रा को प्रतीकात्मक माना जा रहा है।
एक तरफ़ वे इस्लामी तालीम के स्रोत से जुड़ रहे हैं, दूसरी तरफ़ भारत से संवाद का पुल बना रहे हैं।
यह दौरा केवल धार्मिक जुड़ाव नहीं बल्कि उस soft diplomacy का हिस्सा है जिसमें भारत बिना औपचारिक मान्यता दिए तालिबान से संवाद जारी रख रहा है।




कूटनीति के तहों में: रणनीतिक दिलचस्पी
भारत ने अब तक तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता नहीं दी है, पर संपर्क के दरवाज़े खुल रखे हैं।
इसका मकसद साफ़ है — अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन किसी भी भारत-विरोधी गतिविधि का अड्डा न बने।
तालिबान भी जानता है कि भारत की भूमिका उसके लिए आर्थिक और राजनीतिक रूप से ज़रूरी है। चीन की Belt & Road Initiative (BRI) परियोजना अफ़ग़ानिस्तान में पैर पसार रही है, पर तालिबान नहीं चाहता कि वह पूरी तरह बीजिंग या इस्लामाबाद पर निर्भर रहे।
भारत उनके लिए एक वैकल्पिक सहयोगी (alternative partner) बन सकता है।
सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी लिखते हैं –
“यह यात्रा पाकिस्तान के लिए झटका है और तालिबान शासन को अप्रत्यक्ष मान्यता देने की दिशा में एक कदम भी।”
भारत और तालिबान दोनों ही अब क्षेत्रीय शक्ति संतुलन के नए दौर में प्रवेश कर रहे हैं।
मानवाधिकार और वास्तविकता का टकराव
हालांकि इस यात्रा से कूटनीतिक संवाद खुला है, मगर मानवाधिकारों की चुनौती बनी हुई है।
तालिबान शासन में महिला शिक्षा पर प्रतिबंध, प्रेस की आज़ादी में कमी, और समावेशी सरकार का अभाव भारत के लिए असहज सवाल खड़े करता है।
अनुराधा चिनॉय, जेएनयू की पूर्व प्रोफ़ेसर कहती हैं —
“भारत को बातचीत बंद नहीं करनी चाहिए, लेकिन मान्यता देने की जल्दी भी नहीं करनी चाहिए। पश्चिमी देशों ने दबाव बनाकर कुछ नहीं पाया, भारत संवाद से परिणाम चाहता है।”
यह दृष्टिकोण भारत की पुरानी “मध्यमार्गी कूटनीति” की मिसाल है — जहाँ भावनाओं से ज़्यादा तर्क और व्यावहारिकता को प्राथमिकता दी जाती है।
पाकिस्तान फैक्टर: पुराने सहयोगी की दूरी
कभी तालिबान को पाकिस्तान का “रणनीतिक सहयोगी” कहा जाता था, लेकिन अब दोनों के बीच तनाव बढ़ रहा है।
सीमा विवाद, हवाई हमले और आतंकी गुटों पर मतभेद ने दोनों देशों में दूरी पैदा कर दी है।
तालिबान भारत के साथ संबंध सुधारकर यह दिखाना चाहता है कि वह अब पाकिस्तान पर पूरी तरह निर्भर नहीं है।
दूसरी ओर, भारत इस बदलाव को अपने हित में उपयोग करना चाहता है ताकि पाकिस्तान की क्षेत्रीय पकड़ कमज़ोर हो।
हर्ष वी. पंत, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन से कहते हैं –
“तालिबान अपने विकल्प खुले रखना चाहता है। यह भारत के लिए अवसर है कि वह अफ़ग़ानिस्तान में अपने पुराने प्रभाव को पुनर्स्थापित करे।”
दारुल उलूम में मुत्तकी का पैगाम
देवबंद में मुत्तकी का संदेश सादा लेकिन गहरा था –
“इल्म, अमन और एतबार की जो रूह देवबंद से उठी थी, वही अफ़ग़ानिस्तान में ज़िंदा रहनी चाहिए।”
उनकी यह बात केवल धार्मिक भाव नहीं बल्कि राजनीतिक संकेत भी थी।
तालिबान अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि सुधारने की कोशिश में है, और भारत इस सुधार की प्रक्रिया का हिस्सा बनकर अपनी रणनीतिक स्थिति मजबूत करना चाहता है।
इतिहास से सीख: 1990 और आज का फ़र्क़
1990 के दशक में जब तालिबान पहली बार सत्ता में आया था, भारत ने उसके शासन को मान्यता नहीं दी थी और काबुल से दूरी बना ली थी।
लेकिन आज की स्थिति अलग है — भारत इस्लामाबाद या वाशिंगटन के इशारों पर नहीं, बल्कि अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता के आधार पर नीति बना रहा है।
यह बदलाव केवल भू-राजनीतिक नहीं बल्कि मानसिकता का भी है — भारत अब अफ़ग़ानिस्तान को समस्या नहीं, बल्कि संभावना के रूप में देख रहा है।
भविष्य का रास्ता: संवाद या दूरी?
द हिंदू की वरिष्ठ संपादक सुहासिनी हैदर सवाल उठाती हैं –
“अगर भारत ने काबुल में अपना दूतावास फिर से खोला है, तो क्या अब वह तालिबान के राजदूत को दिल्ली बुलाएगा? क्या यह औपचारिक मान्यता की दिशा में पहला कदम है?”
यह प्रश्न असुविधाजनक है, पर ज़रूरी भी।
भारत एक ऐसे दोराहे पर है जहाँ उसे संवाद जारी रखते हुए भी अपने लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करनी है।
नज़रिया
मुत्तकी का देवबंद दौरा केवल खबर नहीं, एक प्रतीक है — इस्लामी तालीम और आधुनिक कूटनीति के संगम का प्रतीक।
यह दिखाता है कि दक्षिण एशिया में संवाद की संस्कृति अभी जिंदा है, और भारत उस संवाद का केंद्र बना रहना चाहता है।
अफ़ग़ानिस्तान में अमन तभी संभव है जब क्षेत्रीय ताकतें अपने मतभेदों को बातचीत से सुलझाएं।
भारत की यही कोशिश है — न ज़्यादा पास, न बहुत दूर — बस इतनी दूरी कि संवाद जारी रहे और हित सुरक्षित रहें।
देवबंद की मिट्टी ने एक बार फिर दुनिया को सिखाया है कि संवाद का रास्ता भले लंबा हो, पर वही सबसे स्थायी होता है।





