
भारत–बांग्लादेश संबंध हसीना प्रत्यर्पण विवाद से नए तनाव में। न्याय, राजनीति और कूटनीति के टकराव पर विस्तृत विश्लेषण।
भारत–बांग्लादेश रिश्ते हमेशा सीधे-सादे नहीं रहे। दोस्ती में नर्माहट है, मगर भू-राजनीति की कठोरता भी मौजूद है। यही मिश्रण मौजूदा हालात को और पेचीदा बनाता है। बांग्लादेशी “इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल” द्वारा शेख हसीना को “सज़ा-ए-मौत” सुनाए जाने और ढाका द्वारा भारत से उनके प्रत्यर्पण की औपचारिक मांग से कहानी एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़ी हो गयी है जहाँ कानून, सियासत और कूटनीति आपस में टकराते हुए दिखाई देते हैं।
भारत के सामने सवाल साफ है: क्या वह एक ऐसी पड़ोसी सरकार के कहने पर किसी पूर्व प्रधानमंत्री को सौंप दे जो खुद एक अस्थायी और राजनीतिक तौर पर अस्थिर ढाँचे पर खड़ी है? और क्या भारत अपने सबसे भरोसेमंद क्षेत्रीय साझेदार की सुरक्षा को उस न्यायिक प्रक्रिया के हवाले कर दे, जिस पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ बार-बार सवाल उठा चुकी हैं?
बुनियादी बात यह है कि बांग्लादेश की दिसंबर 2024 की मांग के बावजूद भारत ने हसीना को सुरक्षित रखा हुआ है। यही वह संकेत है जो दक्षिण एशिया की सियासत को पढ़ने वालों को बताता है कि दिल्ली की गणना सिर्फ कानून की किताब से नहीं होती; यह क्षेत्रीय स्थिरता, मानवीय चिंता और परदे के पीछे चलने वाली शक्ति-संतुलन की राजनीति से भी प्रभावित होती है।
भारत की खामोशी का मतलब क्या है?
ढाका के फैसले के बाद भारत सरकार ने जो बयान जारी किया, उसमें प्रत्यर्पण पर कोई ज़िक्र नहीं था। यह वही “स्ट्रैटेजिक साइलेंस” है जिसका इस्तेमाल भारत तब करता है जब वह सामने वाले देश को यह बताना चाहता है कि मामला सिर्फ कागज़ी नहीं, बल्कि संवेदनशील है। अदालत का फैसला एकतरफा था, हसीना को बचाव का हक नहीं मिला, वकील तक नहीं मिल सके। यह आपराधिक केस कम और सियासी कदम ज़्यादा लगता है। भारतीय नीति-निर्माताओं को इसका अंदाज़ा है और यही वह वजह है जो प्रत्यर्पण न करने के भारतीय रुख को और मजबूत करती है।
लेकिन क्या यह सच में सिर्फ सियासत है?
यहीं ज़रा रुककर अपनी धारणा टेस्ट करनी चाहिए। क्या यह संभव नहीं कि हसीना सरकार के दौरान हुई हिंसा में कुछ गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन सचमुच हुए हों? क्या यह भी पूरी तरह मुमकिन नहीं कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा उठाए गए सवालों के बावजूद ढाका इस फैसले को अपने भीतर चल रही जवाबदेही की प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करना चाहता हो? हर बात को “सियासी षड्यंत्र” कहना आसान है, पर सच इससे अधिक परतदार हो सकता है।
फिर भी, एक बात साफ रहती है—किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनुपस्थिति में मौत की सजा सुनाना न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है। यहाँ नैतिक आधार पर भारत के पास यह कहने का पूरा हक है कि प्रत्यर्पण न करना ही सही रास्ता है।
प्रत्यर्पण संधि और दो बड़े सवाल
2013 की संधि और 2016 का संशोधन दोनों देशों को अपराधियों के आदान-प्रदान का अधिकार देते हैं। भारत ने इसी संधि के तहत 2020 में दो अपराधियों को ढाका भेजा था। लेकिन इस संधि की दो ऐसी शर्तें हैं जो हसीना का मामला बिल्कुल अलग बना देती हैं:
राजनीतिक अपराध का प्रावधान
अगर अपराध राजनीतिक प्रकृति का हो, प्रत्यर्पण रोका जा सकता है। ICT ने हसीना पर हत्या और मानवता-विरोधी अपराधों के आरोप लगाए हैं, जो सामान्यतः इस धारा से बाहर जाते हैं। फिर भी, मुकदमे की प्रक्रिया में राजनीतिक प्रभाव के इतने संकेत हैं कि भारत यह साबित कर सकता है कि “सियासी बदले” का कोण इसमें मौजूद है।
निष्पक्ष सुनवाई का अभाव
यह वह बिंदु है जहाँ भारत का पक्ष सबसे मजबूत है। संयुक्त राष्ट्र पहले ही इस ट्रिब्यूनल की प्रक्रिया, जजों की नियुक्ति और निष्पक्षता पर सवाल उठा चुका है। जब आरोपी को वकील न मिले, जब अदालत का माहौल सरकारी दबाव में हो, जब फैसला अनुपस्थिति में सुनाया जाए—तब भारत खुलकर कह सकता है कि यह “फेयर ट्रायल” नहीं है।
अगर भारत प्रत्यर्पण से इंकार करे तो क्या होगा?
ढाका की नाराज़गी बढ़ेगी। बयानबाज़ी भी। यूनुस सरकार इसे “ग़ैर-दोस्ताना कदम” कह सकती है। मगर बांग्लादेश भारत पर व्यापार, बिजली और सीमा-सुरक्षा सहयोग के लिए निर्भर है। इसलिए रिश्ते टूटने की संभावना बहुत कम है।
फिर भी, एक खतरा मौजूद है: रणनीतिक झुकाव।
अगर ढाका महसूस करे कि दिल्ली उसकी राजनीतिक प्राथमिकताओं की परवाह नहीं कर रही, तो वह चीन और पाकिस्तान के साथ नज़दीकियाँ बढ़ाकर खेल बदल सकता है। एक पाकिस्तानी युद्धपोत का हाल का ढाका पहुँचना, यूनुस के हाथ में “ग्रेटर बांग्लादेश” का मैप, और व्यापार-युद्ध जैसे हालात इस तनाव के शुरुआती संकेत हैं।
दूसरी तरफ कहानी यह भी है…
क्या भारत का हसीना को सुरक्षित रखना यह संदेश नहीं देता कि दिल्ली किसी भी कीमत पर अपने पुराने राजनीतिक पसंदीदा रिश्तों को बचाना चाहती है? और क्या यह ढाका की मौजूदा सरकार के लिए यह संकेत नहीं बन जाता कि भारत उनके फैसलों को “वैध” नहीं मानता?
यही वह जगह है जहाँ भारत को बहुत संतुलित कूटनीति की आवश्यकता है। सम्मान का भाव भी, और स्थिरता का मकसद भी।
हसीना के पास आगे क्या विकल्प हैं?
कानूनी
उच्च न्यायालय में अपील, सबूतों की दोबारा जांच, निष्पक्ष सुनवाई की मांग। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के पास शिकायत। इससे वैश्विक दबाव तैयार हो सकता है।
राजनीतिक
भारत या किसी तीसरे देश में शरण। अवामी लीग की सड़कों पर वापसी। दो दिन के राष्ट्रव्यापी बंद की घोषणा इस दिशा का पहला संकेत है।
अंतरराष्ट्रीय मार्ग
यूएन मानवाधिकार परिषद और ICC प्रक्रिया की जांच कर सकते हैं। यदि ICC प्रक्रिया में खामी पाए, तो भारत प्रत्यर्पण से इनकार करने के लिए कानूनी आधार और मजबूत कर सकता है।
हसीना के खिलाफ फैसला और ढाका की सड़कों का उबाल
ढाका की सड़कों पर अवामी लीग समर्थकों का उबलता ग़ुस्सा बताता है कि यह सिर्फ एक कानूनी फैसला नहीं, बल्कि सत्ता के पुराने और नए केंद्रों के बीच टकराव है। पुलिस ने आंसू गैस और लाठीचार्ज किया, दो लोगों की मौत की ख़बरें आईं। यह स्पष्ट है कि अंतरिम सरकार चाहकर भी स्थिरता सुनिश्चित नहीं कर पा रही।
क्या भारत के लिए यह सिर्फ एक कूटनीतिक मसला है?
नहीं। यह सुरक्षा, सीमा, पूर्वोत्तर, बंगाल की खाड़ी, व्यापार, और क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन—सब कुछ है।
भारत इस पूरे मामले में सिर्फ “मित्रता” के भरोसे नहीं चल सकता। उसे यह भी देखना होगा कि दक्षिण एशिया का भविष्य किस दिशा में जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र का दृष्टिकोण
यूएन महासचिव एन्तोनियो गुतरेस ने मौत की सजा के खिलाफ कड़ा बयान दिया। मानवाधिकार उच्चायुक्त ने भी इस प्रक्रिया में “फेयर ट्रायल” पर गंभीर सवाल उठाए। UN की यह स्थिति भारत के लिए एक तरह से ढाल भी है—क्योंकि भारत प्रत्यर्पण न करे तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ उसके फैसले को नैतिक सहारा दे सकती हैं।
भारत के सामने यह सिर्फ एक कानूनी केस नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया की दिशा तय करने वाला मोड़ है।
अगर भारत जल्दबाज़ी में कोई कदम उठाता है, तो क्षेत्र की राजनीति पर दूरगामी असर होगा।
और यदि भारत ठंडे दिमाग से, कानून और नैतिकता को सामने रखकर निर्णय लेता है, तो इस पूरी उथल-पुथल में वह स्थिरता का केंद्र बन सकता है।




