
Government’s mandatory pre-installed Sanchaar Saathi rule triggers debate on privacy and security.
सरकारी संचार साथी ऐप को अनइंस्टॉल न करने की शर्त पर विवाद
संचार साथी ऐप को सभी नए हैंडसेट में प्री-इंस्टॉल करने के सरकारी आदेश से साइबर सुरक्षा, निजता और नागरिक स्वतंत्रता को लेकर बड़े सवाल उठे हैं।
📍New Delhi 🗓️ 2 December 2025 ✍️ Asif Khan
सरकार का कहना है कि यह कदम फर्जी IMEI रोकने और साइबर फ्रॉड को नियंत्रित करने के लिए है। लेकिन विपक्ष इसे निगरानी बढ़ाने वाला और निजता का हनन मान रहा है। अब सबसे अहम सवाल यह है कि सुरक्षा और प्राइवेसी के बीच संतुलन कहाँ बनेगा।
भारत में दूरसंचार विभाग का नया आदेश सामने आते ही बहस एकदम गर्म हो गई है। सरकार ने कहा कि अब भारत में बनाए या आयात किए जाने वाले हर नए मोबाइल फोन में संचार साथी ऐप पहले से इंस्टॉल होना चाहिए और उसे न हटाया जा सकता है, न डिसेबल। पहली नज़र में यह फैसला सुनने में साफ और सीधा लगता है। साइबर फ्रॉड बढ़ रहा है, फर्जी IMEI वाले हैंडसेट मार्केट में घूम रहे हैं, और आम लोग हर साल लाखों फोन खोने या चोरी होने की वजह से परेशान होते हैं। सरकार का कहना है कि यह ऐप उसी समस्या को हल करता है। लेकिन यहां सवाल खत्म नहीं होता, यहीं से शुरू होता है।
यहां से एक बड़ा तर्क उभरता है — क्या सुरक्षा के नाम पर सरकार को हर नागरिक के फोन पर एक अनिवार्य और न हटाए जा सकने वाला ऐप लगाने का अधिकार है?
यही बहस असल मुद्दे की तरफ ले जाती है।
सरकार ने इस पहल को “citizen-centric security measure” कहा है। दूसरी तरफ विपक्ष कह रहा है कि यह “state-centric surveillance measure” है। दोनों दावे एक-दूसरे के उलट हैं और यही टकराव इस कहानी की जान है।
सरकार की सोच: सुरक्षा को लेकर बढ़ता दबाव
हिंदी में कहें तो सरकार का तर्क यह है कि देश में मोबाइल फोन का इस्तेमाल अब सिर्फ कॉल या मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि बैंकिंग, ई-कॉमर्स, डिजिटल पेमेंट और पहचान सत्यापन जैसी अहम गतिविधियों के लिए होता है। उर्दू में इसे समझें तो हुकूमत के नज़दीक यह कदम “क़ौमी अम्न व सलामती” के लिहाज़ से ज़रूरी है, क्योंकि मोबाइल नंबर और IMEI अक्सर साइबर क्राइम के शुरुआती सुराग होते हैं। कहें तो their claim is straightforward — you can’t secure digital India without securing the devices that run digital India.
सरकार के मुताबिक संचार साथी ऐप तीन मुख्य काम करता है:
असली और नकली हैंडसेट में फर्क करने में मदद
खोए या चोरी हुए फोन को ब्लॉक और ट्रेस करने की सुविधा
संदिग्ध कॉल, स्पैम और फ्रॉड रिपोर्टिंग
यह सब सुनने में जरूरी लगता है। खास कर इसलिए कि भारत के सेकेंड-हैंड मोबाइल बाजार में डुप्लीकेट या क्लोन IMEI का इस्तेमाल एक आम समस्या बन चुकी है। कई बार एक ही IMEI कई डिवाइस में एक साथ चलता मिलता है। इस वजह से जांच एजेंसियों को फर्जी डिवाइस से जुड़ी गतिविधियों को ट्रैक करना मुश्किल हो जाता है।
सरकार अपनी रिपोर्ट में कहती है कि 42 लाख से ज्यादा मोबाइल ब्लॉक किए जा चुके हैं और 26 लाख से अधिक चोरी हुए फोन ट्रेस किए गए हैं। उर्दू में कहें तो “यह आंकड़े यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि ये सिस्टम वाक़ई कारगर है।”
लेकिन मसला सिर्फ आंकड़ों का नहीं है, बल्कि अधिकारों का भी है।
विपक्ष और नागरिक समाज के तर्क: यह प्राइवेसी के खिलाफ है
कांग्रेस नेता वेणुगोपाल ने कहा कि यह कदम निजता के अधिकार के खिलाफ है। उनका तर्क है कि जब एक ऐप को सिस्टम लेवल पर अनइंस्टॉल न किया जा सके, तो वह सिर्फ एक टूल नहीं, बल्कि निगरानी का ज़रिया बन जाता है। उर्दू में उन्होंने इसे “हर शहरी पर नज़र रखने की कोशिश” कहा। कार्ति चिदंबरम ने तो इसे पेगासस++ तक कह दिया।
अब सवाल यह है कि क्या यह तुलना सही है?
क्या कोई ऐसा ऐप जो सरकारी आदेश से डिवाइस में आता है, वह वैसे ही खतरनाक हो सकता है जैसे कोई खुफिया स्पाइवेयर?
आप अगर तर्क की कसौटी पर सोचें तो दोनों एक जैसे नहीं हैं। स्पाइवेयर गुप्त होता है, छिपा होता है, और यूजर को कभी पता नहीं चलता कि क्या निगरानी हो रही है। संचार साथी इसके उलट है — यह खुला ऐप है, यूजर को दिखता है, और इसके फीचर सरकारी पोर्टल से जुड़े हैं।
लेकिन, और यही असली बिंदु है — खुला ऐप होने से यह साबित नहीं होता कि वह सुरक्षित भी है।
यहां से बहस एक और लेयर पकड़ती है।
क्या नागरिकों को मजबूर कर किसी ऐप को अनइंस्टॉल न करने देना वाजिब है?
कहें तो this is where the policy meets the principle.
कहें तो यह वही बिंदु है जहां सुरक्षा की जरूरत और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सवाल एक-दूसरे से टकराते हैं।
क्या सरकार को यह अधिकार है कि वह आपके निजी फोन पर कुछ ऐसा डाले जिसे आप हटाने का विकल्प न रखें?
अगर आज यह ऐप है, तो कल कोई और ऐप क्यों नहीं?
यही डर विपक्ष और नागरिक अधिकार समूह उठा रहे हैं।
सरकार का बचाव: IMEI tampering criminal offence है
सरकार ने टेलीकम्युनिकेशन एक्ट 2023 का हवाला दिया और कहा कि IMEI में छेड़छाड़ एक नॉन-बेलेबल अपराध है और इसमें तीन साल की जेल या 50 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।
यह सही है। यह भी सही है कि IMEI tampering देश में कई गंभीर अपराधों, जैसे फिशिंग, स्मिशिंग और डिजिटल धोखाधड़ी का आधार बनता है।
लेकिन यह भी सही है कि IMEI चेक करने की सुविधा पहले से मौजूद थी — वेबसाइट, QR, और डेटाबेस के जरिए।
तो सवाल उठता है — क्या यह ऐप वास्तव में अनिवार्य होना चाहिए?
तर्क की परीक्षा: क्या यह कदम जरूरत से ज्यादा है?
“कितनी ज़रूरत, कितना ज़रूरी और कितना ज़्यादा” का सवाल कह सकते हैं।
मान लीजिए सरकार कहती है कि यह ऐप आपकी सुरक्षा के लिए है। ठीक बात है। लेकिन फिर इसे हटाने का विकल्प क्यों नहीं?
साधारण डिजिटल लॉजिक यह बताता है कि कोई भी ऐप जो अनइंस्टॉल न हो सके, वह एक तरह से सिस्टम कंट्रोल बन जाता है।
और जब सरकार के पास ऐसा कंट्रोल हो, तो नागरिकों का शक स्वाभाविक है।
इसलिए यह समझना जरूरी है कि सरकार का इरादा भले सुरक्षा का हो, लेकिन ऐसा कदम पारदर्शिता और विश्वास को कम करता है।
एक वैकल्पिक दृष्टिकोण: क्या हल बीच में है?
अगर इसे एक तटस्थ निगाह से देखें तो दो बातें साफ निकलती हैं:
साइबर फ्रॉड और फर्जी IMEI बहुत बड़े खतरे हैं
प्राइवेसी का बिना शर्त संरक्षण भी उतना ही जरूरी है
तो क्या ऐसा मॉडल नहीं हो सकता जिसमें संचार साथी जैसे ऐप को प्रोत्साहित किया जाए, लेकिन अनिवार्य और न हटाए जा सकने वाला न बनाया जाए?
कहें तो..
A voluntary but well-integrated security app could achieve the same goal without undermining user autonomy.
यह debate सिर्फ एक ऐप की नहीं है।
यह debate यह परखने की है कि डिजिटल सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता कहाँ मिलते हैं और कहाँ अलग हो जाते हैं।
भारत में डिजिटल शासन तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन यह भी जरूरी है कि यह शासन नागरिकों के भरोसे पर खड़ा हो, न कि उनकी मजबूरी पर।




