
The conflict between the teachings of Islam and social fraternity
मज़हब बनाम बिरादरी: इंसानियत कहाँ खड़ी है?
इस्लाम का पैग़ाम और समाज का तंग दायरा
नई दिल्ली | 29 सितम्बर 2025
आसिफ़ ख़ान | शाह टाइम्स
इंसानियत की रूह और मज़हब की बुनियाद
दीन-ए-इस्लाम की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि वह इंसान को इंसानियत के पैमानों पर बराबरी देता है। क़ुरआन-ए-करीम में अल्लाह ने साफ़ कहा:
“ऐ लोगो! हमने तुम सबको एक मर्द और औरत से पैदा किया और तुम्हें क़बीलों और बिरादरियों में इसलिए बनाया ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको। अल्लाह के नज़दीक सबसे इज़्ज़तदार वह है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार है।”
(सूरह अल-हुजुरात, 13)
इस आयत का मक़सद यह बताना है कि बिरादरी या नस्ल इंसान को ऊँचा-नीचा नहीं बनाती। असल पैमाना तक़्वा यानी अल्लाह से डर और इंसाफ़ है। लेकिन अफ़सोस, समाज ने इस पैग़ाम को अक्सर भुला दिया और बिरादरी को मज़हब से भी ऊपर रख दिया।
बिरादरी की जकड़न और इंसान की सोच
अगर हम हिंदुस्तान के हालात देखें तो बिरादरी महज़ एक पहचान नहीं, बल्कि सियासी और समाजी ताक़त बन चुकी है। शादी-ब्याह, कारोबार, रोज़गार से लेकर सियासी वोट तक—हर जगह बिरादरी का दबदबा देखा जा सकता है।
गाँवों में आज भी यह आम है कि “अपनी बिरादरी में ही शादी होगी।” अगर कोई बिरादरी से बाहर निकाह करे तो अक्सर उसे समाज से बाहर कर दिया जाता है। कभी रिश्ते तोड़े जाते हैं, कभी हिंसा तक का माहौल बनता है। यही हाल शहरी इलाक़ों में भी देखने को मिलता है, बस अंदाज़ अलग होता है।
मगर सवाल यह है: जब इस्लाम बराबरी और भाईचारे की तालीम देता है, तो हम बिरादरी को मज़हब से बड़ा क्यों मानते हैं?
पैग़म्बर-ए-इस्लाम का पैग़ाम
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
“किसी अरबी को ग़ैर-अरबी पर और ग़ैर-अरबी को अरबी पर कोई फ़ज़ीलत नहीं, सिवाए तक़्वा के।”
यह हदीस सीधी और साफ़ है। इसमें नस्ल, रंग, बिरादरी सबको पीछे कर दिया गया। लेकिन इंसान की कमज़ोरी यह रही कि उसने हमेशा समाजी ताक़त और ग़रूर को मज़हब के ऊपर रखा।
तारीख़ी नज़ीर
इस्लाम के शुरुआती दौर में भी बिरादरी का दबदबा मौजूद था। जब हज़रत बिलाल حب्शी (रज़ि.) ने इस्लाम क़ुबूल किया, तो मक्का के क़ुरैश उन्हें सिर्फ़ उनकी नस्ल और रंग की वजह से नीचा दिखाते थे। मगर रसूलुल्लाह ﷺ ने उन्हें मुअज़्ज़िन-ए-रसूल बनाया और फ़रमाया कि बिलाल की आवाज़ जन्नत में सुनी जाएगी।
यानी इस्लाम ने उस वक़्त ही बिरादरी और नस्ल की दीवारें गिरा दी थीं। लेकिन वक्त गुज़रते-गुज़रते इंसान ने फिर से वही दीवारें खड़ी कर लीं।
मौजूदा समाज और बिरादरी की सियासत
आज के हिंदुस्तान में बिरादरी सिर्फ़ शादी-ब्याह तक सीमित नहीं। यह सीधा-सीधा सियासत से जुड़ी है। चुनाव के वक़्त नेता बिरादरी के वोटों का हिसाब लगाते हैं। उम्मीदवार की क़ुबूलियत अक्सर बिरादरी पर तय होती है, न कि उसकी काबिलियत या ईमानदारी पर।
इस्लाम इंसाफ़ की तालीम देता है। लेकिन जब वोट सिर्फ़ बिरादरी देखकर डाले जाएँ, तो इंसाफ़ कहाँ रह जाता है? यही वजह है कि समाज तरक़्क़ी से ज़्यादा तंग दायरों में उलझा रहता है।
इंसानियत की रोशनी बनाम बिरादरी की तंगदीली
क़ुरआन और हदीस इंसानियत को सबसे ऊपर रखते हैं। एक मशहूर हदीस में रसूलुल्लाह ﷺ ने कहा:
“लोग अल्लाह का ख़ानदान हैं। अल्लाह के नज़दीक सबसे प्यारा वह है जो उसके बन्दों के लिए सबसे ज़्यादा फ़ायदा पहुँचाने वाला हो।”
इस हदीस से साफ़ है कि इंसानियत ही असल पैग़ाम है। बिरादरीवाद, नफ़रत और तंगनज़री इस्लाम की रूह से मेल नहीं खाते।
मज़हबी तालीमात और समाजी रवायतें
असल में बिरादरीवाद का ताल्लुक़ मज़हब से कम और समाजी रवायतों से ज़्यादा है। इंसान अपनी रवायतों को मज़हब का लिबास पहनाता है ताकि उसे सही ठहराया जा सके। यही वजह है कि निकाह, तालीम, कारोबार हर जगह मज़हब के नाम पर बिरादरी की शर्तें लगा दी जाती हैं।
मगर हमें यह सोचना होगा कि क्या हम मज़हब की रूह निभा रहे हैं या बस अपने समाजी अहंकार को मज़हब की आड़ दे रहे हैं?
असल सवाल
अगर दीन का असल मक़सद इंसाफ़ और इंसानियत है, तो फिर बिरादरी के नाम पर दीवारें क्यों? क्या हम दीन-ए-इस्लाम को सिर्फ़ नाम और रस्म तक सीमित कर रहे हैं? क्या इंसानियत की जगह बिरादरी हमारी पहचान बन चुकी है?
रास्ता क्या है?
हमें पहले अपने बच्चों को दीन की असल तालीम समझानी होगी—कि इंसानियत हर चीज़ से ऊपर है।
मस्जिदों और मदरसों में सिर्फ़ रस्म-ओ-रिवाज नहीं, बल्कि इस्लाम की रूह यानी बराबरी और भाईचारे पर ज़ोर देना होगा।
समाज को यह मानना होगा कि बिरादरी इंसान की पहचान तो हो सकती है, लेकिन इंसान की क़ीमत का पैमाना नहीं।
सियासत में बिरादरी से ऊपर उठकर इंसाफ़ और काबिलियत को अहमियत देनी होगी।
नतीजा
दीन-ए-इस्लाम इंसानियत का दीन है। यह इंसान को इंसानियत के बराबर दर्जे पर खड़ा करता है। बिरादरीवाद उस पैग़ाम को कमज़ोर करता है और इंसाफ़ को कुचलता है।
आज की सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि हम अपनी सोच को तंग दायरों से निकालकर इंसानियत की रोशनी में रखें। अगर मज़हब की रूह को समझ लिया जाए, तो बिरादरीवाद अपने आप गिर जाएगा।
इस्लाम हमें जोड़ने आया था, बाँटने नहीं।






