
गुइलेन-बैरे सिंड्रोम (GBS) का खतरा और स्वास्थ्य प्रशासन की चुनौती
प्रदूषित पानी से फैला GBS: जिम्मेदार कौन?
भारत में गुइलेन-बैरे सिंड्रोम: बढ़ते मामले और महंगा इलाज
घातक जल प्रदूषण: कितना सुरक्षित है हमारा पीने का पानी?
“महाराष्ट्र के पुणे में गुइलेन-बैरे सिंड्रोम (GBS) के 180 मामले, 6 मौतें। जानिए इसके कारण, लक्षण, महंगे इलाज और प्रशासनिक लापरवाही की पूरी जानकारी।”
महाराष्ट्र के पुणे जिले में गुइलेन-बैरे सिंड्रोम (GBS) के बढ़ते मामलों ने चिंता बढ़ा दी है। अब तक 180 मामले सामने आ चुके हैं और 6 लोगों की मौत हो चुकी है। यह स्थिति केवल महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है, बल्कि देश के अन्य राज्यों—तेलंगाना, असम, पश्चिम बंगाल और राजस्थान—में भी इसके मरीज सामने आ रहे हैं। खासकर पश्चिम बंगाल और राजस्थान में बच्चों की मौत के मामले सामने आए हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि GBS का खतरा व्यापक हो सकता है।
GBS का मुख्य कारण पुणे के नांदेड़ क्षेत्र में प्रदूषित पानी को बताया जा रहा है, जिसमें कैंपिलोबैक्टर जेजुनी बैक्टीरिया पाया गया है। पुणे नगर निगम ने पानी शुद्धिकरण संयंत्रों को सील कर दिया है, लेकिन यह सवाल उठता है कि पानी की गुणवत्ता पर नजर रखने में प्रशासन की लापरवाही कैसे हुई? अगर पहले ही उचित कदम उठाए जाते, तो यह स्थिति इतनी गंभीर न होती।
GBS का इलाज महंगा है। इम्युनोग्लोबुलिन (IVIG) इंजेक्शन, जो इस बीमारी के इलाज में जरूरी है, उसकी कीमत 20 हजार रुपये तक होती है। कई मरीजों को पूरे कोर्स में 10-15 इंजेक्शन तक लगते हैं, जिससे इलाज का खर्च लाखों में पहुंच जाता है। सरकार को चाहिए कि वह इस बीमारी के इलाज को सस्ता और सुलभ बनाए, ताकि आर्थिक रूप से कमजोर मरीजों को राहत मिल सके।
स्वास्थ्य प्रशासन को चाहिए कि वह पानी की गुणवत्ता पर सख्ती से नजर रखे, जागरूकता अभियान चलाए और इस बीमारी के इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों में पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराए। इसके अलावा, सरकार को इस बीमारी को लेकर विस्तृत शोध कराना चाहिए, ताकि भविष्य में इसे रोका जा सके। GBS जैसी बीमारियों से निपटने के लिए हमें सिर्फ आपातकालीन उपायों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि स्वास्थ्य तंत्र को पहले से मजबूत करने की दिशा में काम करना होगा।