
Mohammad Hasnain tribute to singer Mohammad Rafi in Baheri on 45th death anniversary
मोहम्मद रफी की याद में नगरभर गूंजे गीतमोहम्मद रफी की 45वीं बरसी: हसनैन ने बहेड़ी में रिक्शा घुमा कर रफी के नगमे सुनाए
बहेड़ी में मोहम्मद रफी की 45वीं बरसी पर हसनैन ने रिक्शा घुमाकर रफी के नगमे सुनाए, पिछले 40 वर्षों से निभा रहे हैं यह रफी प्रेम।
मोहम्मद रफी की 45वीं बरसी पर बहेड़ी में अनोखा श्रद्धांजलि कार्यक्रम: हसनैन ने रिक्शा पर सुनाए रफी के अमर गीत
रिपोर्ट: मो० इरफान मुनीम | बरेली शाह टाइम्स
मशहूर पार्श्व गायक मोहम्मद रफी की पुण्यतिथि पर देश भर में उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है, लेकिन उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के बहेड़ी नगर में एक अनोखी परंपरा हर साल निभाई जाती है। यहां के निवासी एनाउंसर मोहम्मद हसनैन बीते चार दशकों से लगातार 31 जुलाई को रिक्शा पर साउंड सिस्टम लगाकर रफी के नगमे नगरवासियों को सुनाते हैं।
इस वर्ष भी, रफी साहब की 45वीं बरसी पर हसनैन ने नगर की गलियों में घूमकर लोगों को ‘तुम मुझे यूं भुला न पाओगे’, ‘बड़ी दूर से आए हैं प्यार का तोहफा लाए हैं’ जैसे अमर गीतों के माध्यम से रफी को श्रद्धांजलि दी।
मोहम्मद हसनैन: एक समर्पित रफी प्रेमी
शाहजी नगर मोहल्ला के रहने वाले मोहम्मद हसनैन एक आम नागरिक हैं, लेकिन उनकी मोहम्मद रफी के प्रति दीवानगी उन्हें खास बनाती है। न तो उन्होंने रफी साहब को कभी देखा, न ही उनसे कोई व्यक्तिगत जुड़ाव रहा, लेकिन उनकी आवाज़ से बना रिश्ता इतना मजबूत है कि वह अपनी पूरी जिंदगी में रफी को ही जीते हैं।
हर बरसी पर वह अपने रिक्शा पर रफी की तस्वीर, फूलों की माला, और एक विशेष साउंड सिस्टम लगाकर निकलते हैं और पूरे नगर में घूमते हुए मोहम्मद रफी के दर्द भरे नगमे सुनाते हैं।

चार दशक पुरानी परंपरा बनी पहचान
हसनैन की यह परंपरा वर्ष 1985 से शुरू हुई थी। उस समय वह एक स्थानीय कार्यक्रम में उद्घोषणा किया करते थे। मोहम्मद रफी की पुण्यतिथि पर नगर में श्रद्धांजलि देने के लिए उन्होंने पहली बार रिक्शा घुमाया। फिर यह एक वार्षिक रिवाज बन गया जो आज तक जारी है।
उनका मानना है कि “आवाज़ें कभी मरती नहीं, और मोहम्मद रफी की आवाज़ तो अमर है। जब तक सांस है, मैं हर बरसी पर यूं ही श्रद्धांजलि देता रहूंगा।”
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रफी के नगमों से गूंजा बहेड़ी नगर
हसनैन की यह पहल सिर्फ एक श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि संगीत प्रेमियों के लिए एक यादगार अवसर बन जाती है। इस वर्ष भी जैसे ही वह रिक्शे पर साउंड सिस्टम के साथ नगर की गलियों में निकले, लोग छतों, बालकनियों और सड़कों पर आकर रफी के गीतों में डूब गए।
‘ना तू जमीन के लिए है न आसमां के लिए’, ‘न फनकार तुझ सा तेरे बाद आया’ जैसे गीतों ने लोगों की आंखें नम कर दीं।
छोटे बच्चे, युवा और बुज़ुर्ग सभी इस कारवां का हिस्सा बने। किसी ने ताली बजाई तो किसी ने रिकॉर्डिंग की। हर किसी की जुबान पर सिर्फ एक ही नाम था — मोहम्मद रफी।
नगर में सांस्कृतिक चेतना का केंद्र
हसनैन की इस पहल ने बहेड़ी को सांस्कृतिक रूप से भी जागरूक किया है। अब नगर में कई युवा रफी के गीतों को सुनते हैं, समझते हैं और गुनगुनाते हैं। स्कूलों और छोटे आयोजनों में भी अब रफी के गानों को स्थान दिया जाने लगा है।
हसनैन कहते हैं, “मैं चाहता हूं कि नई पीढ़ी रफी को सिर्फ एक गायक नहीं, एक संवेदना के रूप में पहचाने। उनकी आवाज़ में इंसानियत थी, मुहब्बत थी, और एक अद्भुत सादगी थी।”
मोहम्मद रफी: एक संक्षिप्त परिचय
मोहम्मद रफी, हिंदी सिनेमा के स्वर्ण युग के वो गायक थे जिनकी आवाज़ में हर भाव, हर रंग, हर जज़्बात बसते थे। 24 दिसंबर 1924 को अमृतसर में जन्मे रफी ने करियर की शुरुआत 1940 के दशक में की थी और अगले तीन दशकों तक लाखों दिलों पर राज किया।
उनकी आवाज़ में भक्ति भी थी, दर्द भी, प्यार भी और क्रांति भी। उन्होंने लता मंगेशकर, किशोर कुमार, आशा भोसले सहित तमाम दिग्गजों के साथ काम किया।
1980 में 31 जुलाई को रफी साहब इस दुनिया से विदा हो गए, लेकिन उनकी आवाज़ आज भी हर दिल में ज़िंदा है।
सामाजिक संदेश और संगीत का समर्पण
हसनैन की यह पहल सिर्फ एक संगीतमय श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि एक सामाजिक संदेश भी है। जब समाज में लोग अपने आदर्शों को भूलते जा रहे हैं, तब हसनैन जैसे लोग हमें यह याद दिलाते हैं कि सच्ची श्रद्धा सिर्फ मंदिर या मजार पर नहीं, दिल में होती है।
उनका रिक्शा, साउंड सिस्टम और उस पर बजते रफी के नगमे — यह सब मिलकर एक चलता-फिरता स्मारक बन जाते हैं, जो मोहम्मद रफी की याद को हर साल जीवित रखते हैं।
स्थानीय प्रशासन और जनता की सराहना
बहेड़ी नगर पालिका और स्थानीय निवासियों ने भी हसनैन की इस पहल को सराहा। कुछ स्थानीय स्कूलों ने तो अपने विद्यार्थियों को विशेष रूप से हसनैन के रिक्शा के पास ले जाकर रफी के गीतों की जानकारी दी।
स्थानीय पार्षदों और सामाजिक संगठनों ने हसनैन को इस निरंतर सेवा के लिए सम्मानित करने की घोषणा की है।
निष्कर्ष
मोहम्मद हसनैन का रफी प्रेम सिर्फ एक संगीत प्रेम नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा जैसा है। जब वह हर साल 31 जुलाई को रिक्शा पर निकलते हैं, तो वह रफी के साथ-साथ हमारी सांस्कृतिक संवेदनाओं और भावनाओं को भी जीवित रखते हैं।
आज जब संगीत में व्यावसायिकता हावी होती जा रही है, तब हसनैन जैसे रफी प्रेमियों की यह निःस्वार्थ श्रद्धांजलि हमें सिखाती है कि संगीत सिर्फ सुनने की चीज नहीं, बल्कि जीने की चीज है।




