
Delhi High Court expresses outrage over Ramdev’s comment on Rooh Afza, calling it inexcusable.
दिल्ली हाईकोर्ट ने ‘शरबत जिहाद’ टिप्पणी को बताया अक्षम्य और सामाजिक सौहार्द के खिलाफ। बाबा रामदेव को विवादित वीडियो हटाने और भविष्य में ऐसी टिप्पणियों से बचने के लिए हलफनामा दाखिल करने का आदेश।
विवाद से विवेक की ओर: न्यायपालिका की चेतावनी और बाबा रामदेव का उत्तरदायित्व
भारतीय समाज में संतुलन और सद्भाव की परंपरा रही है, और जब कोई सार्वजनिक व्यक्ति इस संतुलन को बिगाड़ने वाला बयान देता है, तो यह केवल विचारों की सीमा नहीं तोड़ता, बल्कि सामाजिक एकता को भी चोट पहुंचाता है। ऐसा ही मामला हाल ही में बाबा रामदेव के ‘शरबत जिहाद’ वाले बयान के बाद सामने आया, जब दिल्ली हाईकोर्ट को इस पर सख्त रुख अपनाना पड़ा।
हाईकोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह बयान “अक्षम्य और अंतरात्मा को झकझोर देने वाला” है। यह टिप्पणी केवल एक ब्रांड या उत्पाद (रूह अफ़ज़ा) की छवि को धूमिल करने की कोशिश नहीं है, बल्कि इससे कहीं अधिक खतरनाक बात यह है कि यह धार्मिक ध्रुवीकरण को हवा दे सकती है।
न्यायपालिका का संदेश साफ है – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सामाजिक सौहार्द से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।
इस मामले में हमदर्द लैबोरेटरीज ने याचिका दायर कर बाबा रामदेव के उस बयान को चुनौती दी थी, जिसमें उन्होंने रूह अफज़ा को ‘शरबत जिहाद’ बताया था। अदालत ने स्पष्ट निर्देश दिए कि सभी विवादित वीडियो और विज्ञापन पांच दिन के भीतर हटाए जाएं और हलफनामा प्रस्तुत किया जाए जिसमें यह वादा किया जाए कि भविष्य में इस तरह का कोई बयान नहीं दिया जाएगा।
यह सिर्फ कानूनी मामला नहीं, नैतिक ज़िम्मेदारी भी है।
रामदेव जैसे प्रभावशाली व्यक्तित्व की बात लाखों लोग सुनते हैं, मानते हैं। ऐसे में, उनकी हर बात न केवल विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, बल्कि जनमानस को प्रभावित भी करती है। जब यह प्रभाव साम्प्रदायिक दिशा में मुड़ता है, तो उसके परिणाम गहरे और व्यापक हो सकते हैं।
कोर्ट में वकीलों के बीच हुई बहस यह दिखाती है कि यह मुद्दा सिर्फ एक ब्रांड या वीडियो का नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति की जिम्मेदारी और सामाजिक प्रभाव की गूंज का है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि ऐसे बयान रोके नहीं गए, तो यह समाज के ताने-बाने को कमजोर कर सकते हैं।
समाज को चाहिए कि वह विवेक से काम ले और सार्वजनिक संवाद में जिम्मेदारी को प्राथमिकता दे।
यह मामला एक उदाहरण बन सकता है, यदि हम इससे सीख लें कि शब्दों की शक्ति को हल्के में नहीं लेना चाहिए। कानून सिर्फ दंड नहीं देता, वह चेताता भी है—और यह चेतावनी सभी के लिए है।