हक की खातिर जान देना सिखाया हुसैन ने

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक जगह कहा है कि मैंने हुसैन से सीखा है अत्याचार पर विजय कैसे प्राप्त होती है, तो कभी डा. राजेंद्र प्रसाद को कहते पाया कि शहादत – ए – इमाम हुसैन पूरे विश्व के लिए इंसानियत का पैगाम है। कभी डा. राधा कृष्ण को कहते पाया कि इमाम हुसैन को शहादत लगभग तेरह सौ साल पुरानी है, लेकिन हुसैन आज भी इंसानों के दिलों पर राज करते हैं।
ज़िया अब्बास ज़ैदी वरिष्ठ पत्रकार




हक की खातिर जान देना सिखाया हुसैन ने सजदे में सिर गया तो न उठाया हुसैन ने । लाशों को अपने घर की उठाया हुसैन ने । सिर काट गया तो क्या जरा भी गम नहीं । नाना की शरीयत को बचाया हुसैन ने । हक हुसैन या हुसैन की सदा गूंजने का महीना मोहर्रम चल रहा है ।

इस महीने का इस्लामिक इतिहास में बड़ा ही महत्व है, क्योंकि इस्लाम धर्म की जितनी भी बड़ी घटनाएं घटी हैं, वो इसी महीने में घटी हैं जिनमें सबसे बड़ी घटना नवासा-ए-रसूल यानि इस्लाम धर्म के आखिरी पैगम्बर के नवासे हजरत इमाम हुसैन के साथ ही उनके पूरे परिवार की शहादत इसी महीने की दस तारीख में हुई है। एक ऐसी शहादत, जिसने दुनिया को सिखाया की चाहे जान चली जाए, मगर झूठ और फरेब का साथ नहीं देना है। हजरत इमाम हुसैन ने करबला के मैदान में जहां हजारों की तादाद में यजीद की सेना मौजूद थी, जो हजरत इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को चारों और से घेरे हुए थी, मगर इमाम हुसैन और उनके सभी साथियों ने इस बात से बेफिक्र होकर भूख और प्यास की शिद्दत के बावजूद हक पर रहे और हक पर ही अपने साथियों के साथ शहीद हो गए।


आपको जंगे करबला क्यों हुई और हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों पर क्या-क्या जुल्म किए गए हैं, इन्हें लिखने की कोशिश करता हूं। हर साल मोहर्रम का चांद दिखाई देते ही हर तरफ या हुसैन की सदा सुनाई देने लगती है, लोगों की जबान पर पैगाम-ए-इंसानियत, सब-ए-हुसैन और लश्करे हुसैन की कुर्बानियों की कहानी फिर से सुनाई देने लगती है। पहली नजर में तो ऐसा लगता है कि जैसे मुसलमान अपने नबी के नवासे की शहादत का गम मना रहे हैं, लेकिन जब इस इस्लामिक घटना को इंसानियत के चश्मे से देखा, तो पाया की दुनियाभर के सभी मानवतावादियों ने हजरत हुसैन के बेजोड़ बलिदान को सराहा और श्रद्धांजलि दी है।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक जगह कहा है कि मैंने हुसैन से सीखा है अत्याचार पर विजय कैसे प्राप्त होती है, तो कभी डा. राजेंद्र प्रसाद को कहते पाया कि शहादत – ए – इमाम हुसैन पूरे विश्व के लिए इंसानियत का पैगाम है। कभी डा. राधा कृष्ण को कहते पाया कि इमाम हुसैन को शहादत लगभग तेरह सौ साल पुरानी है, लेकिन हुसैन आज भी इंसानों के दिलों पर राज करते हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था कि सत्य की जंग अहिंसा से कैसी जीती जा सकती है, इसकी मिसाल इमाम हुसैन हैं। ऐसा नहीं है कि चांद देखते ही न सिर्फ मुसलमानों के दिल और आंखें गम-ए-हुसैन से छलक उठती हैं, बल्कि दुनिया में रहने वाले तमाम मजहब के लोग भी शहीदाने करबला को याद करके रो उठते हैं।

पैगम्बर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दुनिया से परदा करने के बाद शेर-ए-खुदा हजरत अली को घोखा देकर माविया ने शहीद करके खिलाफत अपने हाथों में ले ली। हजरत इमाम हुसैन, जो हजरत अली के बड़े बेटे थे, उनको भी माविया ने जहर देकर शहीद कर दिया था। अपनी जिंदगी मैं माविया ने अपने जालिम और दहशतगर्द बेटे यजीद को खलीफा बना दिया। यजीद ने खलीफा बनते ही शरीयते मोहम्मद को मिटाने की नाकाम कोशिशें शुरू कर दीं। यजीद ने इस्लाम में जो हराम था, उसको हलाल करने की कवायद शुरू कर दी थी । यजीद के जुल्मों सितम के सामने जिसने भी आवाज उठाई यजीद ने उसके ऊपर जुल्म करके खामोश कर दिया। माबिया की मौत के बाद यजीद और बेलगाम हो गया और उसने हजरत अली के बेटे इमाम हुसैन के पास खबर भेजी कि इमाम हुसैन यजीद की खिलाफत स्वीकार कर लें, नहीं तो जंग की तैयारी करें।


इमाम हुसैन ने समझ लिया कि अब बक्त आ गया है कि नाना की शरीयत और दीन को बचाने के लिए कुर्बान होने का वक्त आ गया है। हजरत इमाम हुसैन ने वक्त की नजाकत देखते हुए मदीना छोड़ने का निश्चय कर लिया। इमाम हुसैन अपने घर वालों के साथ अपना छोटा सा लश्कर लेकर मदीने से मक्का के लिए रवाना हुए और मक्का पहुंचे। हजरत इमाम हुसैन को वहां की फिजा भी सही नहीं लगी, क्योंकि यजीद के लोग मक्का में भी मौजूद थे।

जिसको देखकर हजरत इमाम हुसैन बिना हज किए अपना लश्कर लेकर इराक की तरफ रवाना हो गए। यह छोटा सा काफिला अरब की चिलचिलाती गर्मी में कठिन यात्रा के दुख झेलता हुआ चला जा रहा था। लश्करे हुसैनिया को रास्ते में पड़ने वाले सभी लोगों ने हर मंजिल पर हजरत हुसैन से इल्तजा करते थे कि खुदा के लिए वापस चले जाइए, यजीद बहुत ताकतवर है उसके पास बड़ी फौज है । इमाम हुसैन पैगम्बर मोहम्मद के नवासे और अली के बेटे थे, जिन्होंने खुदा के बताए रास्ते पर चलने के लिए हमेशा खुशी-खुशी दुख झेला था। वे अपने इरादे पर अटल रहे और सफर की परेशानियों को सहन करते हुए कूफा की तरफ आगे बढ़ते रहे। रास्ते में लश्करे हुसैन को यजीद की फौज का कमांडर हुर्र मिला जिसने इमाम हुसैन को कूफा जाने से रोका, जिसको इमाम हुसैन ने माना पड़ा और यह काफिला करबला की ओर चल पड़ा। यहां इमाम हुसैन ने इंसानियत का पैगाम देते हुए अपनी और अपनी आल के दुश्मन यजीद के ऐसे कमांडर को जो आपका रास्ता रोककर आपको कूफा से जबरदस्ती करबला लेकर जा रहा था, जहां रास्ते में ही कमांडर हुर्र की सेना का पानी खत्म होने के बाद इमाम हुसैन ने उन सभी को पानी पिलाया यहां तक कि उस फौज के-जानवरों को भी पानी पिलाकर सैराब किया।

इमाम हुसैन का छोटा सा लश्कर मुहर्रम महीने की दो तारीख को सरजमीने करबला पहुंचा और नहर ए फुरात के किनारे अपने तम्बू लगा लिए । इमाम हुसैन के साथ 72 लोग थे और उनमें भी कुछ बहुत बूढ़े लोग थे और कुछ नई उम्र के लड़के, चन्द जवान और नौजवान थे । यजीद की फौज ने जब देखा कि इमाम हुसैन के लश्कर ने अपना डेरा नहर के किनारे लगाया है तो यजीद ने उनका डेरा नहर के पास से हटवा दिया, जिससे लश्करे हुसैन पानी न पी सके । दो से सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन, उनके भाई हजरत अब्बास और उनके कुछ बुजुर्ग साथी यजीद के लोगो से बात-चीत करते रहे, उन्हें समझाते रहे कि तुम क्यों निर्दोषों का खून अपने सिर लेते हो। हजरत इमाम हुसैन ने यह भी कहा कि मुझे यजीद के पास ले चलो, मैं स्वयं उनसे बात-चीत कर लूंगा। ये रिवायत भी है कि उन्होंने कहा कि मैं किसी और देश हिन्दुस्तान की ओर चला जाना चाहता हूं, जहां मुसलमान तो नहीं, लेकिन इंसान रहते हैं, मगर यजीद के लोगों को सख्ती से यह आदेश दिया गया था कि इमाम हुसैन और उनके परिवार को कहीं न जाने दिया जाए। सात मुहर्रम से यजीद की फौजों ने नदी पर पहरा बैठा दिया और इमाम हुसैन के साथियों तक पानी का पहुंचना बन्द हो गया। यजीद ने रसद के रास्तों पर भी पहरा बैठा दिया।

यजीद समझता कि हुसैन और उनके साथी अगर और किसी तरह से नहीं देख सकते, तो नन्हें बच्चों और औरतों की भूख प्यास तो उनको झुका ही देगी, मगर वे क्या जानते थे कि हुसैन का सिर कट सकता है, मगर अत्याचार और झूठ के सामने झुक नहीं सकता। फिर मुहर्रम की रात आ गई जब यह तय हो गया कि यजीद की तीस हजार की फौज से इमाम हुसैन के 72 साथियों की जंग होगी। जंग से पहले इमाम हुसैन ने रात में खेमों की रोशनी बुझा दी और अपने साथियों से कहा कि मैं किसी के भी साथियों को अपने साथियों से ज्यादा वफादार और बेहतर नहीं समझता कल का दिन हमारे और इन दुश्मनों के मुकाबले का है। मैं तुम सब को बा खुशी इजाजत देता हूं कि रात के अंधेरे में यहां से चले जाओ। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी, यह लोग सिर्फ मेरे खून के प्यासे हैं। यजीद के फौजी उसको जाने भी देंगे, जो मेरा साथ छोड़ के जाना चाहेगा कुछ वक्त के बाद रोशनी फिर से कर दी गई और देखा की एक भी साथी इमाम हुसैन का उनका साथ छोड़कर नहीं गया। दुनिया इस पर चकित है कि इमाम हुसैन मैं ऐसा क्या था कि इजाजत देने के बाद भी कोई उनका साथ छोड़कर नहीं गया। आखिर दस मुहर्रम की वो ऐतिहासिक सुबह आई।

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