उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में

हम दशकों से देश में बाल दिवस मनाते रहे हैं, ‘बच्चे मन के सच्चे’ गाते रहे हैं लेकिन निजाम का ध्यान कभी कूड़ा बीनते, सड़क किनारे ढाबों और ईंट भट्ठों में बचपन होम कर रहे बच्चों की ओर नहीं गया।

शिव कुमार मिश्र

पूरी दुनिया 12 जून को बाल श्रम विरोधी दिवस के रूप में मना रही है। लेकिन यह कोई रस्मी दिवस नहीं है। इसके अस्तित्व में आने के पीछे एक लंबी लड़ाई और लंबी कहानी है। आज बाल मजदूरी, बच्चों की ट्रैफिकिंग और उन्हें शोषण से बचाने के तमाम कानून हैं। भले ही इन पर जितना होना चाहिए, उतनी सख्ती से अमल नहीं हो पाया है लेकिन पूरी दुनिया ने इसके नतीजे देखे हैं। आज बाल मजदूरी और बच्चों के शोषण के प्रति समाज में पहले के मुकाबले थोड़ी अधिक संवेदनशीलता देखी जा रही है लेकिन यह महज चंद दशकों में ही हुआ है। बाल मजदूरी, बाल शोषण को खत्म कर बच्चों के लिए एक सुरक्षित बचपन देने का सपना अभी भी थोड़ा दूर लगता है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बाल मजदूरों की संख्या में खासी कमी आई है और इस मोर्चे पर हालात थोड़े से बेहतर हुए हैं। और पूरी दुनिया में बच्चों के हक में इन तमाम बदलावों के पीछे अगर कोई शख्स है तो वे हैं एक बेहद आम से भारतीय कैलाश सत्यार्थी ।

हम दशकों से देश में बाल दिवस मनाते रहे हैं, ‘बच्चे मन के सच्चे’ गाते रहे हैं लेकिन निजाम का ध्यान कभी कूड़ा बीनते, सड़क किनारे ढाबों और ईंट भट्ठों में बचपन होम कर रहे बच्चों की ओर नहीं गया। अखबारों-पत्रिकाओं में भी राजनीति, क्रिकेट और सिनेमा छाए रहते। कह सकते हैं कि एक रस्मी और सरकारी बाल दिवस के अलावा गरीब, वंचित परिवारों के मजूरी कर रहे ये बच्चे विमर्श के दायरे से बाहर थे। हालांकि आपात काल के दौरान संवैधानिक संशोधनों के बाद हम आधिकारिक रूप से समाजवादी देश हो चुके थे। लेकिन यत्र तत्र बिखरे ‘लेबर कैंप्स’ में बच्चों से कराई जा रही मजदूरी को रोकने के लिए कोई कानून नहीं था। इंजीनियरिंग करने के बाद अच्छी सी नौकरी कर रहे मध्य प्रदेश के विदिशा के एक संवेदनशील युवा कैलाश सत्यार्थी का मन अपने देश के नौनिहालों के हालात को लेकर व्यथित था। आखिर में 1980 में उन्होंने अच्छी खासी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूर्णकालिक बाल अधिकार कार्यकर्ता बन गए। सत्यार्थी ने ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की स्थापना की और पूरे देश में बाल मजदूरों, बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के अभियान में जुट गए। उन्होंने बाल श्रम और किसी भी रूप में बाल शोषण के खिलाफ सख्त कानूनों की मांग को लेकर अभियान छेड़ा। सरकार जागी तो सही और 1986 में बाल मजदूरी प्रतिबंध एक्ट पास किया जिसमें खतरनाक कार्यों में बच्चों से काम लेने पर पाबंदी का प्रावधान था। लेकिन दशकों तक यह कानून कागजी ही रहा क्योंकि सरकारें यही नहीं तय कर पाईं कि किसे खतरनाक और किसे गैर खतरनाक काम की श्रेणी में रखा जाए।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हाल कमोवेश यही था। इसी के मद्देनजर बाल श्रम के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय कानून की मांग को लेकर सत्यार्थी ने 17 जनवरी 1998 को वैश्विक मार्च शुरू किया। मनीला से शुरु हुए इस मार्च ने 80,000 किमी की यात्रा की और 103 देशों से गुजरी। पांच महीने तक चले इस वैश्विक मार्च में डेढ़ करोड़ लोगों ने सड़क पर उतर कर मार्च किया और 100 से ज्यादा वैश्विक नेताओं, राष्ट्राध्यक्षों और प्रधानमंत्रियों ने इसमें हिस्सा लेकर समर्थन जताया। छह जून, 1998 को जब यह मार्च जिनेवा में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के दफ्तर पहुंचा तो इस संगठन ने अपने नियमों-परंपराओं को परे रख पहली बार बच्चों के स्वागत के लिए अपने दरवाजे खोले और पहली बार एक आम नागरिक कैलाश सत्यार्थी ने उसके सालाना अधिवेशन को संबोधित किया। संबोधन में सत्यार्थी ने दो मांगें रखीं। पहला, बाल श्रम के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय कानून बनाया जाए और दूसरा, साल का एक दिन बाल मजदूरों के प्रति एकजुटता दिखाने के लिए समर्पित किया जाए।

आईएलओ ने दोनों मांगें मान ली। अगले ही साल 17 जून, 1999 को बाल मजदूरी और बाल दासता के खिलाफ आम सहमति से कनवेंशन-182 पारित किया जो खराब हालात में बाल श्रम को प्रतिबंधित करता है। दूसरी मांग भी मान ली गई और 12 जून को विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस घोषित किया गया। एक अदना सा भारतीय दुनिया के सभी शोषित, उत्पीड़ित बच्चों की आवाज बनकर उभरा और उनको उनके हक दिलाए। दुनिया ने सत्यार्थी के प्रयासों पर मुहर लगाते हुए संधि पर तत्काल दस्तखत कर दिए लेकिन भारत इसे स्वीकार करने वाले सबसे आखिरी देशों में था। आखिरकार नरेंद्र मोदी की सरकार ने 13 जून, 2017 को इस पर दस्तखत किए। निश्चित रूप से पूर्व की सरकारों के मुकाबले मोदी सरकार ने बच्चों और बचपन के प्रति थोड़ा ज्यादा संवेदनशीलता दिखाई है। नीतियों और कानूनों में जरूरी बदलाव हुए हैं जिसका नतीजा है कि किसी भी अन्य देश के मुकाबले बच्चों के अधिकारों के लिए आज भारत में कानून सबसे सख्त हैं। लेकिन क्रियान्वयन के स्तर पर भी कुछ सार्थक बदलाव देखने को मिले हैं लेकिन काफी कुछ शेष है।

पूछ सकते हैं कि सत्यार्थी के प्रयासों के नतीजे क्या निकले हैं? इस एक अकेले आदमी के संघर्ष का नतीजा है कि 1998 में जहां दुनिया में बाल मजदूरों की संख्या करीब 26 करोड़ थी वो अब करीब 16 करोड़ रह गई थी। यानी 10 करोड़ बचपन आजादी की हवा में सांस ले रहे हैं। लेकिन समस्या अभी भी गंभीर है। आईएलओ के आंकड़ों के अनुसार पिछले चार साल में बाल मजदूरों की संख्या में 80 लाख की बढ़ोतरी हुई है। खास तौर से कोरोना काल के दौरान दुनिया भर में लाकडाउन और आर्थिक उथल-पुथल के कारण निम्न मध्यवर्गीय परिवार गरीबी के कगार पर और गरीब भुखमरी के कगार पर पहुंच गए। ऐसे में बहुत से बच्चों को बाल मजदूरों के दलदल में धकेल दिया गया, खास तौर से भारत में। इसीलिए आईएलओ ने 2021 के बाल श्रम विरोधी दिवस की थीम ‘कोरोना वायरस के दौर में बच्चों को बचाना’ रखी। एक तरफ जहां आपदा के समय बच्चों की तिजारत करने वाले ट्रैफिकर रोजाना नए तरीके अपनाने लगे हैं वहीं दूसरी ओर देश में बाल मजदूरी के प्रति पर्याप्त संवेदनशीलता का अब भी अभाव है। बहुत से लोगों को लगता है कि वे बाल मजदूरों को काम पर रखकर उन पर अहसान कर रहे हैं।

इसके पीछे वजह है। जब रोग की पहचान ही सही नहीं होगी तो इलाज कैसे सही होगा? देश में एक आम मिथक है कि बाल मजदूरी का कारण गरीबी है। सरकार का भी यही सोचना था। बाल मजदूरी पर 1979 में गठित गुरुपाद स्वामी समिति ने अपनी सिफारिशों में गरीबी को बाल मजदूरी का मुख्य कारण माना। जबकि तमाम अध्ययन बताते हैं कि गरीबी और बेरोजगारी के पीछे मुख्य कारण बाल मजदूरी है। बाल मजदूरी एक सस्ता श्रम है जिससे बेरोजगारी बढ़ती है। बच्चों से मामूली पैसे पर 12-14 घंटे काम कराया जा सकता है जो वयस्क नहीं करेंगे। बच्चे कोई यूनियन नहीं बना सकते, उन्हें आसानी से धमकाया या फुसलाया जा सकता है। आंकड़ों में जाएं तो बाल मजदूरी और बेरोजगारी में संबंध स्पष्ट दिख जाएंगे। आज दुनिया में 16 करोड़ बाल मजदूर हैं तो बीस करोड़ बेरोजगार। अध्ययन यह भी बताते हैं कि ये ज्यादातर बाल मजदूर बेरोजगार वयस्कों के ही बच्चे हैं। यानी बाल मजदूरी खत्म हो जाए तो सस्ते श्रम की उपलब्धता खत्म होगी जिससे वयस्क हाथों को काम मिलेगा।

इसके लिए समाज और सरकार दोनों को साझा और एकजुट प्रयास करने होंगे। आईएलओ कहता है, “बाल श्रम पीढ़ियों के बीच की गरीबी को बढ़ाता हैऔर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को चुनौती देता है।” अगर हम इसका खात्मा चाहते हैं तो कानूनों पर सख्ती से अमल करना होगा। लेकिन बच्चों के अधिकारों के लिए बनी देश की तमाम कानून प्रवर्तन एजेंसियों के पास जरूरी स्टाफ और संसाधनों की कमी है। राज्य सरकारों के बाल आयोग और बाल कल्याण समितियां भी बहुत सक्रिय नहीं हैं। एक बड़ी चुनौती यह कि तमाम सरकारी एजेंसियों, पुलिस और यहां तक कि न्यायपालिका में भी बच्चों के अधिकारों को लेकर बने कानूनों की ज्यादा जानकारी नहीं है। इस मोर्चे पर काम करने की जरूरत है। साथ ही अगर बच्चों के 14 वर्ष की उम्र तक शिक्षा के अधिकार कानून पर ही सख्ती से अमल हो तो भी बाल मजदूरी पर काफी हद तक अंकुश लग सकता है। बाल मजदूरी से आजाद कराए गए बच्चों के पुनर्वास के लिए बनाई गई राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना पर ठीक से अमल हो तो काफी बदलाव दिख सकता है। इसमें बाल मजदूरी से आजाद कराए गए बच्चों का विशेष स्कूलों में दाखिला कराया जाता है जहां उन्हें औपचारिक शिक्षा प्रणाली में डालने से पहले शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, पौष्टिक आहार और स्वास्थ्य जैसी महत्वपूर्ण सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। करना बस इतना है कि बच्चों के लिए बने कानूनों को किताबों से निकाल कर जमीन पर लाना होगा।

समाज को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। बच्चों से मजदूरी कराने वाले लोगों पर एक नैतिक या आर्थिक दबाव बना कर उन्हें हतोत्साहित करना होगा। अगर बच्चों से मजदूरी कराने वाले के खिलाफ कोई व्यक्ति पुलिस को सूचित नहीं करना चाहता तो वह कम से कम इतना तो कर ही सकता है कि वह उस जगह से कुछ खरीदे नहीं, कुछ खाए नहीं। यही काफी होगा। आखिर कैलाश सत्यार्थी ने बच्चों को हक दिलाने के लिए कोई बंदूक नहीं उठाई थी। उन्होंने बस इतना किया कि हर मंच से बच्चों के हक की आवाज उठाई, सरकार व एजेंसियों पर एक नैतिक दबाव बनाया। इसी का नतीजा था कि 1998 में जब वे बाल श्रम के खिलाफ अपने वैश्विक मार्च में पांच महीने मनीला से पैदल चल कर जिनेवा पहुंचे तो आईएलओ ने एक अदने से भारतीय को सम्मान देते हुए न केवल उन्हें अपने सालाना अधिवेशन को संबोधित करने का अवसर दिया बल्कि साल भर बीतते ही कानून भी पास कर दिया। लेकिन अभी रास्ता लंबा है। नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त करते समय सत्यार्थी ने कहा था, “यह पुरस्कार बाल-दासता को समाप्त करने की मेरी लड़ाई में सिर्फ एक अल्पविराम है और मुझे पूरा यकीन है कि मैं अपने जीवनकाल में बाल दासता का अंत देख पाऊंगा।” यह मुश्किल लगता है लेकिन असंभव नहीं। उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में। इनके पांव में बेड़ियां नहीं डालो।

(लेखक स्पेशल कवरेज न्यूज के संपादक हैं।)

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