
जातीय जनगणना पर मोदी सरकार की मुहर: राहुल-अखिलेश से मुद्दा छीना, बिहार और यूपी में बदलेगा सियासी समीकरण
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जातीय जनगणना को मंजूरी देकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के सबसे बड़े चुनावी मुद्दे को छीन लिया है। जानें इस फैसले के फायदे-नुकसान और इसका असर बिहार व यूपी की राजनीति पर।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जातीय जनगणना को मंजूरी देना केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं, बल्कि एक रणनीतिक राजनीतिक चाल भी है। इससे न सिर्फ कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के वर्षों पुराने चुनावी मुद्दे की धार कुंद हो गई है, बल्कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख राज्यों में एनडीए के लिए नए दरवाजे खुल गए हैं।
कांग्रेस-सपा के सामने नई चुनौती
राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने जातीय जनगणना को सामाजिक न्याय का मुख्य आधार बनाकर जन समर्थन जुटाने की कोशिश की थी। राहुल गांधी लगातार “जाति बताओ” अभियान से आरक्षण के दायरे को बढ़ाने की बात कर रहे थे, वहीं अखिलेश यादव ने पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) की राजनीति को धार देने का प्रयास किया। लेकिन अब बीजेपी ने इस ‘सामाजिक न्याय’ के एजेंडे को अपने हाथ में लेकर विपक्ष के एजेंडे को खुद आगे बढ़ा दिया है।
जातीय जनगणना: फायदे और चुनौतियाँ
जातीय जनगणना से यह स्पष्ट हो सकेगा कि किस जाति की आबादी कितनी है और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्या है। इससे आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं के बेहतर वितरण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। लेकिन यह भी सच है कि इससे जातिगत ध्रुवीकरण और नई सामाजिक मांगों का उदय होगा, जिससे राजनीतिक अस्थिरता का खतरा भी बढ़ सकता है।
बिहार और यूपी में सियासी गणित बदलता हुआ
बिहार की राजनीति जातिगत समीकरणों पर टिकी रही है। ऐसे में जातीय जनगणना का फैसला निर्णायक बन सकता है। एनडीए इसे पिछड़ों और अति पिछड़ों के वोट बैंक को मजबूत करने के लिए इस्तेमाल कर सकती है। वहीं, कांग्रेस और आरजेडी को अब अपने रणनीतिक पत्ते दोबारा फेंटने होंगे।
उत्तर प्रदेश में भी सपा के लिए यह झटका कम नहीं। अखिलेश यादव लंबे समय से इस मुद्दे को भुनाने की कोशिश में थे, लेकिन अब यह भाजपा के खाते में जाता दिख रहा है। अब सपा को ‘हिस्सेदारी’ और ‘संख्या बल’ जैसे नारों से अपनी रणनीति को धार देनी होगी।
क्या राहुल और अखिलेश बना पाएंगे नया नैरेटिव?
इस फैसले के बाद राहुल गांधी और अखिलेश यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे अब कौन सा नया एजेंडा जनता के सामने रखें। क्या वे मोदी सरकार को इस फैसले की वजह विपक्ष के दबाव में लिया गया कदम बताकर श्रेय खुद लेने की कोशिश करेंगे? या फिर सामाजिक न्याय की लड़ाई को आरक्षण की नई बहस में तब्दील करेंगे?
जातीय जनगणना – बदलाव की दस्तक या नई राजनीति की शुरुआत?
यह कहना गलत नहीं होगा कि जातीय जनगणना का यह निर्णय भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत है। इससे ना केवल सामाजिक आंकड़ों का अद्यतन होगा, बल्कि इससे जुड़ी राजनीति भी नए सिरे से परिभाषित होगी। अब देखना यह है कि विपक्ष इसे किस तरह से पलटवार करता है और सत्ता पक्ष इसे किस तरह भुनाता है।